जिस शहर में मेरी परवरिश हुई, उसकी यूएसपी थी गंगा के किनारे बसा होना। घर भी नदी किनारे से बमुश्किल 100 मीटर की दूरी पर था। इतना करीब कि उसकी कलकल धारा की गूंज जेहन में अभी तक साफ सुनाई देती है। वह भी सिर्फ मानसून के महीनों में नहीं, साल भर। लेकिन, अब वहां तेज रफ्तार से भागती गाड़ियों का बेसुरा हॉर्न सुनाई देता है। नदी के मुहाने पर एक नया पुल बन गया है, जिस पर सुबह से शाम तक ट्रैफिक से जूझते लोगों की चिल्ल-पों कानों तक पहुंचती है। जब ट्रैफिक न हो तो मोटरसाइकिल पर कलाबाजियां करते दिलेर नौजवान दिख जाते हैं। यह सेल्फी लेने वालों और रील बनाने वालों का पसंदीदा अड्डा बन चुका है।
अफसोस, इस बीच गंगा नदी शहर के अधिकतर भागों से दूर जा चुकी है और यह फासला दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा है। कभी जिस शहर की बड़ी आबादी गंगा के निर्मल, स्वच्छ जल में स्नान करती थी, वहां अब निरंतर घटते भूजल स्तर से कुकुरमुत्ते जैसे पनप रहे अपॉर्टमेंटों में हायतौबा मची है। उनमें से कुछ तो नदी के बिलकुल करीब बने हैं। आधुनिकता और शहरीकरण की अंधी दौड़ में हजारों पुराने पेड़ जमींदोज किए जा चुके हैं। शहर की मुख्य सड़क छह लेन की हो चुकी है, जिस पर अब अधिकतर चमचमाती एसयूवी दौड़ती दिखती है। चारों तरफ पुल-पुलियों का जाल बिछ चुका है। बढ़ती जनसंख्या के मद्देनजर आम और खास की हर जरूरत को पूरा करने के लिए नीति-निर्धारकों को यह सब करना गैर-मुनासिब नहीं लग रहा है। किसी शहर का कथित विकास ऐसी ही सहूलियतों के पैमाने पर आंका जाता है। किसी को तो इसकी कुर्बानी देनी पड़ेगी। प्रकृति को ही सही!
किसी पुरानी नदी के शहर से दूर चले जाने की कीमत कैसे चुकाई जाती है, यह वहां के बाशिंदों से ज्यादा कोई और नहीं जान सकता। उसका वहां के पर्यावरण और जनजीवन पर क्या असर होता है, यह वे ही महसूस कर सकते हैं। वहां पिछले एक पखवाड़े से लोग 45 डिग्री सेल्सियस की तपिश झेल रहे हैं। दर्जनों लोगों की लू से मौत हो चुकी है। किसी समय जिस शहर में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस होने पर अखबार पहले पन्नों की सुर्खियां बनाते थे, अब वहां 45 डिग्री ‘न्यू नार्मल’ समझा जाता है।
मौसम विभाग भले ही ऐसी स्थिति में ‘रेड अलर्ट’ जारी करता है, लेकिन सब कुछ बदस्तूर चलता रहता है। पेड़ों का कटना भी, ताकि सड़कें चौड़ी की जा सकें, ज्यादा से ज्यादा एसयूवी चलाई जा सके और जरूरत पड़े तो नदियों के किनारे रिवर फ्रंट बनाया जा सके। किसी समय विलासिता का प्रतीक समझे जाने वाले एयर कंडीशनर की हैसियत अब छोटी हो रही है। वह दिन दूर नहीं, जब आधारभूत जरूरतों में रोटी, कपड़ा और मकान के साथ एसी को जोड़ना होगा। प्राकृतिक असंतुलन और उससे उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग के कारण साल दर साल जिस खतरे की आशंका की जा रही थी, वह अब दहलीज पर खड़ी नहीं, अंदर आकर पांव पसार चुकी है। इसके बावजूद उससे निजात पाने के उपाय ढूंढने के बजाय स्थितियां बद से बदतर होती चली गई हैं।
नदियों का सूखना तो प्रतीक मात्र है कि हमने प्रकृति के साथ कैसा खिलवाड़ किया। यह सिर्फ एक शहर की कहानी नहीं है। अधिकतर शहरों में जिन सड़कों के किनारे पीपल, बरगद और नीम के छायादार वृक्ष राहगीरों को छाया प्रदान करते थे, अब वहां टिन और फाइबर के शेड बनाए जा रहे हैं। प्रकृति के साथ जो हमने किया, उसका खमियाजा सिर्फ जेठ और बैशाख की तपती दुपहरिया या सावन-भादो की उमस में हमें नहीं भुगतना होता है। इसे हम पूरे साल महसूस कर सकते हैं। गर्मी हो, बरसात या सर्दी के महीने, मौसम की मार किसी न किसी रूप में हर महीने झेलनी पड़ती है। गंगा पट्टी के अधिकतर शहरों में बच्चों के स्कूल कभी हीट वेव, कभी शीत लहरी और कभी अतिवृष्टि के कारण बंद करने पड़ते हैं। पिछले दो दशकों में ऐसा होना सामान्य हो गया है। क्या यह कभी उन दिनों हुआ करता था जब गंगा की लहरें शहरों को छूते हुई चलती थीं? क्या यह उन दिनों होता था जब शहरों में सड़कों के किनारे बड़े-बड़े छायादार पेड़ होते थे? प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में उनका क्या योगदान था, इसे बताने के लिए पर्यावरणविद या मौसम वैज्ञानिक होने की जरूरत नहीं। वहां का अदना-सा आम आदमी भी उसे बता सकता है। विडंबना यह है कि यह सब उन शहरों में हो रहा जहां बदलते मौसमों की खूबसूरती के कारण कई सभ्यताएं पनपीं। उनमें मेरा शहर भी है।
लेकिन, क्या हमने कुछ सबक सीखा? साल दर साल लोग लू से मर रहे हैं, शीतलहरी का शिकार हो रहे हैं और बाढ़ और सूखे से त्रस्त हो रहे हैं। यह सब बढ़ रहा है, लेकिन हमारी प्राथमिकताएं नहीं बदल रही हैं। हर दौर में विकास ऐसी प्रक्रिया रही है जिसे रिवर्स गियर में नहीं डाला जा सकता, लेकिन विकास इस कीमत पर नहीं किया जा सकता कि वह प्राकृतिक असंतुलन पैदा करके जन-जीवन ही अस्त-व्यस्त कर दे। नदी किनारे बने पुल ट्रैफिक की समस्या से निजात दिला सकते हैं, लेकिन नदी ही नहीं रहेगी तब क्या?