पिछले वर्ष जब द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली, तो यह देश के इतिहास में अविस्मरणीय क्षण के रूप में दर्ज हो गया। यह पहला मौका था, जब जनजातीय समाज से आने वाली किसी महिला को यह सम्मान हासिल हुआ। यह महज प्रतीकात्मक घटना नहीं थी। ओडिशा के अति पिछड़े इलाके से निकल कर राष्ट्रपति भवन तक की उनकी संघर्ष भरी यात्रा अभूतपूर्व रही। आजादी के 75 वर्षों के बाद किसी आदिवासी महिला का राष्ट्र के सर्वोच्च संवैधानिक पद को हासिल करना अपने आप में चर्चा का विषय बना रहा। इसलिए नहीं कि उनकी काबिलियत पर किसी को संदेह था, बल्कि इसलिए कि वह जिस समाज से ताल्लुक रखती हैं वह हमेशा देश के विकास के सबसे निचले पायदान पर रहा है।
आधुनिक विकास का जो भी पैमाना बनाया गया हो, उस पैमाने पर जनजातीय समाज अब भी समाज के अन्य तबके से मीलों पीछे है, चाहे स्वास्थ्य का क्षेत्र हो या शिक्षा का। इसमें दो राय नहीं होनी चाहिए कि बुनियादी सुविधाओं का अभाव आज भी सबसे ज्यादा जनजातीय समाज में ही देखने को मिलता है। किसी आदिवासी महिला के राष्ट्रपति बनने से पहले इस समाज के कई लोग मुख्यमंत्री और राज्यपाल से लेकर केंद्रीय मंत्री तक बने लेकिन जिस स्तर पर इस उपेक्षित समाज को मुख्यधारा से जोड़ने का काम होना चाहिए था, वह अब भी होना शेष है। अधिकतर क्षेत्रों में इस समाज का प्रतिनिधित्व अब भी गौण है। निजी क्षेत्रों में तो यह बिलकुल नगण्य है। जिस समावेशी समाज की परिकल्पना संविधान निर्माताओं ने की, उसे शायद इसलिए हासिल नहीं किया जा सका क्योंकि हर जाति, जनजाति और वर्ग को समान रूप से तमाम संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद आगे बढ़ने का समुचित मौका नहीं मिला। जो समाज में पहले से अगुआ थे, वे आगे बढ़ते चले गए और जो हाशिये पर खड़े थे, वे वहीं रह गए। जनजातीय समाज तो बिलकुल ही पीछे रह गया, उस अंतिम आदमी की तरह जिसके विकास की बात गांधी ने कभी की थी।
इसके कारण क्या रहे? क्या आजादी के बाद सत्ता में रहने वाले तमाम दल जनजातियों के सर्वांगीण विकास के प्रति उदासीन रहे? क्या उनके द्वारा ऐसे प्रयास ईमानदारी से नहीं किए, जिनसे उन्हें समाज की मुख्यधारा में जोड़ने में अपेक्षित सफलता मिलती? या देश की विकास योजनाओं को बनाते समय भुला दिया गया? यह तो नहीं कहा जा सकता कि आदिवासियों के उत्थान के लिए सरकारों के स्तर पर प्रयास नहीं किए गए। संसद और विधानसभाओं में समुचित प्रतिनिधित्व के लिए उनके लिए सीट अरक्षित की गईं, सरकारी संस्थाओं और सेवाओं में उनके लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया, कई विशेष योजनाएं लागू की गईं। कई ऐसे कानून भी बनाए गए जिनसे उनके खिलाफ अत्याचार, उत्पीड़न की घटनाओं पर रोक लगाई जा सके। इन प्रयासों का कुछ हद तक असर भी हुआ, लेकिन जिस बदलाव की उम्मीद थी वह अब भी कोसों दूर है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भी यही बताते रहे हैं कि जनजातियों के खिलाफ आपराधिक घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है। आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि उस समाज की स्त्रियों के खिलाफ हिंसा में कोई कमी नहीं दिख रही, चाहे वह मणिपुर की घटनाएं हों या किसी अन्य प्रदेश की। झारखंड जैसे राज्यों में महिलाओं को डायन बताकर उनके उत्पीड़न की घटनाएं दिनोदिन बढ़ रही हैं। वैसे तो हर समाज में, जिसमें आज का कथित आधुनिक पढ़ा-लिखा वर्ग भी शामिल है, महिलाएं ही क्रूरतम अपराधों की मुख्य शिकार होती हैं। जनजातीय समाज में भी कुछ अलग नहीं है, लेकिन बलात्कार, यौन उत्पीड़न और मानव तस्करी से जितना इस समाज की स्त्रियों को जूझना पड़ता है, शायद किसी और समाज की आधी आबादी को नहीं। यह भी सही है कि जनजातीय स्त्रियों के खिलाफ अपराध के जितने मामले दर्ज होते हैं उससे कहीं ज्यादा की रपट पुलिस थानों में या तो पहुंचती नहीं है या पहुंचने पर लिखी नहीं जाती है। जिस देश के अधिकतर पुलिस स्टेशन में मोबाइल चोरी और छीना-झपटी की घटनाओं को मोबाइल खो जाने की रिपोर्ट के रूप दर्ज कराने की ‘सलाह’ थानेदार अपना रिकॉर्ड दुरुस्त रखने के लिए देते हों, वहां दुरूह इलाकों में रहने वाले किसी निर्धन, अशिक्षित और अपने जायज कानूनी हक के प्रति जागरूक नहीं रहने वाले परिवार की शिकायत को कितनी संजीदगी और संवेदनशीलता से लिया जाता होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है। कुछ मामले दर्ज होते हैं, कुछ में आरोपियों को सजा भी मिलती है, लेकिन अपराधियों के मंसूबे कम नहीं होते। आदिवासी मामलों के जानकार इसका बड़ा कारण पितृसत्तात्मक समाज और उसमें सैकड़ों साल से रची-बसी सामंती सोच को मानते हैं, जिससे सभ्य समाज को अब तक निजात नहीं मिल सकी है। जैसे कि हमारी आवरण कथा में वर्णित घटनाओं से स्पष्ट है, शायद यह एक कड़वा सच है क्योंकि सिर्फ कड़े कानून बनाने से सामाजिक परिवर्तन आता, तो अब तक समाज की हर बुराई खत्म हो गई होती। सरकारी और सामाजिक दोनों स्तर पर इस मानसिकता को बदलना सबसे बड़ी चुनौती है।