एक डॉक्टर के क्लिनिक में पिछले दिनों मेरी नजर वहां चस्पा एक नोटिस पर पड़ी। लिखा था, कृपया गूगल से मिला अपना ज्ञान यहां न लाएं, मेरे पास मेडिकल कॉलेज से मिली एक डिग्री है। उक्त चिकित्सक को यह नोटिस लगाने की जरूरत शायद इसलिए पड़ी होगी कि हाल के वर्षों में उन्हें कई ऐसे मरीजों का सामना करना पड़ा होगा, जो इंटरनेट से ढेर सारा ज्ञान अर्जित कर उनके पास आते होंगे। उनमें से कई तो खुद को हर वक्त अपडेट करते रहते होंगे। द लैंसेट के ताजा अंक में मधुमेह पर ताजातरीन रिसर्च क्या है या अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ काॅर्डियोलॉजी के दिल की बीमारियों पर नए आंकड़े क्या हैं, उनसे शायद ही कुछ छुपा रहता होगा। जाहिर है, ऐसे जागरूक मरीज और उनके परिजन अक्सर डॉक्टरों के लिए परेशानी का सबब बनते होंगे, खासकर जब उन्हें यह ज्ञान व्हाट्सएप फॉरवर्ड या यू-ट्यूब पर अपलोड सामग्री से मिला हो।
इन माध्यमों से मिली अधिकतर जानकारियों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता। इसके बावजूद लोग उन्हें विश्वसनीय समझते हैं। लोग वॉट्सऐप और यू-टयूब जैसे माध्यमों पर बताई-दिखाई गई सूचनाओं के आधार पर अपना और दूसरों का इलाज तक करते हैं और इसका खमियाजा भी भुगतते हैं। हाल में प्रकाशित एक मेडिकल जर्नल की रिपोर्ट में लिवर की बढ़ती समस्याओं के पीछे लोगों का खुद से दवाइयों खाना बताया गया।
इंटरनेट की दुनिया में ऐसे नीम हकीमों की कमी नहीं, जो न सिर्फ एलोपैथी बल्कि होम्योपैथी और आयुर्वेद की दवाइयाें से असाध्य रोगों के शर्तिया इलाज का दावा करते हैं, जिन पर किसी नियामक संस्था का कोई नियंत्रण नहीं है। उनमें और उन नीम हकीमों में कोई अंतर नहीं है जो इंटरनेट के आने के पहले सड़क किनारे अपनी दुकान चलाते थे। इसमें शक नहीं है कि डिजिटल युग में चिकित्सा क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई है लेकिन यह भी सच है कि इसी दौर में झोलाछाप नीम हकीमों के बड़े बाजार की समानांतर दुनिया विकसित हुई है। आज इंटरनेट पर ऐसे छद्म डॉक्टरों की कमी नहीं जो मरीजों के कथित इलाज के नाम पर उनका दोहन करते हैं।
पिछले कुछ साल में फेक न्यूज यानी फर्जी खबरों को लेकर मीडिया से लेकर न्यायालयों तक में चिंता व्यक्त की गई है। भ्रामक खबरों का खंडन करने वाले लोग और संस्थाएं भी रात-दिन काम कर रही हैं लेकिन डिजिटल माध्यमों पर असत्य, अश्लील और बेसिरपैर के कार्यक्रमों को रोकने का कोई प्रभावी प्रयास नहीं देखा जा रहा है।
इसी वर्ष बिहार के एक यू-टयूबर मनीष कश्यप को तमिलनाडु में बिहारी मजदूरों पर हिंसा का कथित रूप से एक फर्जी वीडियो दिखाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। तमिलनाडु में उसे राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत हिरासत में रखा गया। कई महीने बीत जाने के बाद भी वह फिलहाल पटना की जेल में बंद है। मनीष उस नए मीडिया का नुमाइंदा है जिसका प्रचार-प्रसार पिछले कुछ वर्षों में अप्रत्याशित तरीके से बढ़ा है। इंटरनेट के प्रादुर्भाव के बाद यू-टयूब, वॉट्सऐप और अन्य डिजिटल माध्यमों से एक ऐसी ब्रांड न्यू मीडिया का जन्म हुआ है जिसके लिए न किसी प्रिंटिंग प्रेस की जरूरत है, न ही किसी सैटेलाइट चैनल के लाइसेंस की। जरूरत है तो बस अपने-अपने यू-टयूब चैनल पर वीडियो अपलोड करने की। अपने आप को रातोरात स्थापित करने की होड़ में इस मीडिया के पास न तो खबरों की पुष्टि का साधन है, न ही सब्र और मंशा। किसी जमाने में अखबारों में रिपोर्टर द्वारा लिखी खबरों को प्रूफ रीडर और उपसंपादक से लेकर डेस्क प्रमुख और संपादक तक प्रकाशित होने के पूर्व कई स्तर पर जांचा-परखा जाता था। पाश्चात्य देशों के मीडिया संस्थानों में तो ‘फैक्ट चेकर’ भी नियुक्त किए जाते थे, लेकिन नए दौर में इतनी जहमत कौन उठाए? जितनी देर में चार लोग महज एक रिपोर्ट की सच्चाई पर माथापच्ची करेंगे, उतनी देर में नए दौर का मीडियाकर्मी दस रिपोर्ट अपलोड कर देगा। इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा में अगर कोई भूल-चूक होती भी है, तो उसे हटाने का तकनीकी विकल्प तो मौजूद है ही।
इस नए मीडिया का एकमात्र ध्येय ज्यादा से ज्यादा ‘हिट्स’ और ‘लाइक्स’ बटोरना है। जिसका वीडियो जितना देखा गया, उसका उतना ही रसूख। भले ही पारंपरिक मीडिया वाले उन्हें यू-टयूबर कह कर उनके बढ़ते प्रभाव को नजरअंदाज करते हों, इससे इनकार करना कि यह नई कौम मीडिया का हिस्सा नहीं है, बदलते वक्त की हकीकत से मुंह फेरने जैसा होगा। इस नए, बेसब्र मीडिया की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह है कि यह कमाई का आज नायाब जरिया भी बन गया है। इन माध्यमों से भरपूर पैसे और शोहरत दोनों मिलने के कारण हजारों लोगों ने उसकी ओर रुख किया है। भले ही उनमें से चंद लोग ही सफल होते हैं लेकिन इसकी लोकप्रियता दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है। आज सिर्फ समाचार ही नहीं, मनोरंजन, शिक्षा, स्वास्थ्य सहित हर क्षेत्र के कथित विशेषज्ञ अपने-अपने चैनल के माध्यम से लाखों लोगों तक पहुंच रहे हैं। उनमें से कितने लोग खबरों या सूचनाओं को अपलोड करने के पहले उनकी सत्यता की जांच करते हैं, यह कहना मुश्किल नहीं है। सबसे पहले दिखने-सुनने की आपधापी में अक्सर सच्चाई पीछे छूट जाती है।