एक ऐसे कालखंड में जब कला और कलाकारों का मूल्यांकन सिर्फ और सिर्फ बाजारवाद की कसौटी पर होता है, क्या कोई ऐसा दिवंगत अभिनेता-फिल्मकार किसी राष्ट्रीय समाचार पत्रिका की आवरण कथा का विषय हो सकता है जिसने अपने करियर के अंतिम तीन दशक में कोई भी हिट फिल्म नहीं बनाई? क्या उसकी जगह इस अंक के कवर पर शाहरुख खान को रखना ज्यादा मौजूं होता, जिन्होंने इस वर्ष पठान और जवान जैसी सुपरहिट फिल्मों से बॉलीवुड के शिखर पर वापसी की? या फिर सनी देओल ज्यादा प्रासंगिक होते जिन्होंने गदर-2 से साबित किया कि उनमें अब भी काफी दमखम बचा हुआ है?
सिर्फ बॉलीवुड में नहीं, समाज में भी ‘जो बिकता है, वही दिखता है’ की लंबी परिपाटी रही है। आज के दौर में सिर्फ फिल्मों के पांच सौ-हजार करोड़ रुपये के व्यवसाय पर बात होती है, भले ही कलात्मक गुणवत्ता की दृष्टिकोण से वे अत्यंत निम्न कोटि की हों। ऐसे माहौल में देव आनंद को जिस तरह से उनकी जन्मशती पर याद किया जा रहा है, वह हैरत में डालता है। वे ऐसे कलाकार थे जिन्होंने बाजार की शर्तों को ताउम्र धता बताकर फिल्में बनाईं। उनमें कुछ कालजयी सिद्ध हुईं, कुछ दर्शकों द्वारा सिरे से नकार दी गईं, लेकिन वे बेफिक्र होकर वही करते रहे जो उन्हें पसंद था।
बॉक्स ऑफिस की दृष्टि से तो उनकी आखिरी सफल फिल्म देस परदेस (1978) थी, जो मिलेनियल पीढ़ी के किसी भी प्रतिनिधि के जन्म के पूर्व प्रदर्शित हुई थी। देव आनंद उसी इंडस्ट्री से ताल्लुक रखते थे जहां हर शुक्रवार को अर्श से फर्श तक और फर्श से अर्श तक की कहानियां दुहराई जाती रही हैं, जहां बड़े से बड़ा चमकता सितारा एक बड़ी फ्लॉप फिल्म के बाद गुमनामी के अंधेरे में खो जाता है। उसके बंगले तक नीलाम हो जाते हैं। अगर कोई किसी तरह ऐसी स्थिति से उबरता भी है तो वह भविष्य में फिल्म निर्माण से तौबा कर लेता है। भगवान दादा और भारत भूषण से लेकर राजेश खन्ना और ऋषि कपूर तक ऐसे कई नामचीन कलाकार हुए जिन्होंने अपनी बनाई फिल्मों के फ्लॉप होने पर हौसला खो दिया। देव आनंद दूसरी मिट्टी के बने थे। उनके लिए अभिनय करना और फिल्में बनाना एक फनकार का जुनून था। वह अपनी कला के प्रति पूरी तरह समर्पित थे। उनके लिए फिल्मों का हिट या फ्लॉप होना बेमानी था। मृत्यु के कुछ महीनों पूर्व अपने जीवन के 88वें वर्ष में भी उन्होंने स्वयं को केंद्र में रखकर एक फिल्म बनाई, भले वह नहीं चली। इसके बावजूद, लंदन में जब उनका अंत आया तो उनके जेहन में अपनी अगली फिल्म बनाने का ही खयाल था।
ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो उन्हें राय देते थे कि वे फिल्में बनाना बंद कर दें। उनमें उनके छोटे भाई विजय आनंद भी शामिल थे जिनके साथ उन्होंने गाइड, ज्वेल थीफ और जॉनी मेरा नाम जैसी बेहतरीन फिल्में बनाईं। वे चाहते थे कि देव आनंद को उनकी पिछली कालजयी फिल्मों के लिए याद किया जाए, लेकिन देव साहब सबको अनसुना कर अपनी धुन में आखिरी दम तक फिल्में बनाते रहे। उनकी हर फिल्म के प्रदर्शन के पूर्व उनकी अगली फिल्म की घोषणा की जाती थी। वह इस बात का इंतजार नहीं करते थे कि उनकी नई फिल्म का बॉक्स ऑफिस पर क्या हश्र होगा। इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। मिलेनियल युग में देव आनंद की फिल्मों से लेकर उनके युवा दिखने की चाहत पर कई मीम बने। इस पीढ़ी के लिए लिए देव आनंद महज गुजरे जमाने के सुपरस्टार थे जो बदलते वक्त के साथ बदलने को तैयार नहीं थे। उनके मुताबिक देव आनंद उसी दौर में मौजूद थे जो कब का बीत चुका था, जबकि हकीकत इससे जुदा थी। बीते दिनों में रहना तो दूर, वे तो उसे याद भी नहीं करते थे जब तक कोई उन्हें उसकी याद नहीं दिलाता था। यही वह खूबी थी जिसने देव आनंद को देव आनंद बनाया।
गाइड के बाद जब फिल्म इंडस्ट्री और उसके बाहर यह आम धारणा बन गई कि वे उससे बेहतर फिल्म का भविष्य में हिस्सा नहीं बन सकते हैं, तब भी देव आनंद यही कहते रहे कि उनकी सबसे अच्छी कृति का प्रदर्शन होना अभी शेष है। ऐसी राय उन्होंने अपनी अंतिम फिल्म चार्जशीट तक बरकरार रखी। कुछ लोगों ने इसे उनकी वास्तविकता से नावाकिफ होने का फितूर बताया, लेकिन उनके लिए यह जीवन जीने की कला थी। उनके किसी समकालीन महान कलाकार या फिल्मकार में ऐसा जज्बा नहीं दिखा।
अनिश्चय से भरे फिल्म उद्योग में वे आशावाद की बेमिसाल प्रतिमूर्ति थे, जिन्हें व्यक्तिगत या व्यावसायिक जीवन के उतार-चढ़ाव से फर्क नहीं पड़ता था। निराशा उनके शब्दकोश का हिस्सा कभी नहीं रही। चाहे सुरैया के साथ रिश्ते के अंत होने का समय हो या विजय आनंद द्वारा निर्देशित उनकी आखिरी फिल्म जाना न मुझसे दूर का प्रदर्शित न होना हो, वह हर परिस्थिति में आगे बढ़ते गए। एक कलाकार-फिल्मकार के रूप में उनकी फिल्मों का मूल्यांकन भविष्य में भी होता रहेगा, लेकिन परदे से इतर उनकी शख्सियत की यही खूबी उन्हें हर दौर में प्रासंगिक बनाए रखेगी, जिसे नई पीढ़ी के कलाकरों और फिल्मकारों को आत्मसात करने की जरूरत है।