इस माह 22 जनवरी को अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा समारोह संपन्न होने के बाद एक नए अध्याय की शुरुआत होनी चाहिए। इसके साथ विगत में दशकों तक चले इस मंदिर के निर्माण से जुड़े तमाम विवादों का सदा के लिए पटाक्षेप हो जाना चाहिए। लंबे समय तक चली कानूनी लड़ाई और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद अयोध्या में एक भव्य मंदिर का निर्माण हुआ है। आशा है, इस मंदिर के बनने के बाद तमाम राजनीतिक लड़ाइयां अब इतिहास का हिस्सा हो जाएंगी और यह मंदिर देश की सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक विविधता के एक जीवंत प्रतीक के रूप में उभर कर आएगा, जिस पर भविष्य में किसी भी तरह के विवाद को जन्म देकर राजनैतिक रोटियां नहीं सेंकी जाएंगी। अगर इस मंदिर के बनने के पूर्व के इतिहास, विशेषकर पिछले 35 वर्षों के घटनाक्रम को देखा जाए तो इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि अयोध्या में मंदिर निर्माण एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहा और भारतीय जनता पार्टी की सियासी जमीन तैयार करने में इसकी प्रमुख भूमिका रही। इस दौरान जहां बाकी दलों ने अपने-अपने सियासी कारणों से इस मुद्दे से या तो दूरियां बनाईं या इसके प्रति उदासीन रहे, भाजपा की राजनीति इस मुद्दे के इर्द-गिर्द घूमती रही। विरोधियों, खासकर कांग्रेस ने भाजपा पर बहुसंख्यकवाद और हिंदुत्व की राजनीति करने का आरोप लगाया लेकिन इस मुद्दे पर वह अपने रुख पर कायम रही। यह भाजपा के लिए राजनैतिक रूप से फायदेमंद रहा या नहीं, इसका सही आकलन करना मुश्किल नहीं है।
गौरतलब है, भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहां का संविधान हर धर्म को बराबरी का दर्जा प्रदान करता है। इस देश के हर नागरिक को किसी भी धर्म का मानने का अधिकार है, लेकिन यह भी सही है कि सदियों से यह धर्म-प्रधान देश रहा है। आज भी विभिन्न धर्म में आस्था रखने वाले लोगों की संख्या उन लोगों की तुलना में कई गुना ज्यादा है जो किसी धर्म में विश्वास नहीं रखते। उनमें बहुसंख्यक वे लोग हैं जिनके लिए आस्था के सामने राजनीति का कोई वजूद नहीं है। उनके लिए अयोध्या में मंदिर भाजपा या कांग्रेस से जुड़ा कोई सियासी मुद्दा नहीं है। यह सिर्फ और सिर्फ उनकी निजी आस्था से जुड़ा मुद्दा है। आज जो अयोध्या जाने वाली भीड़ हर शहर में दिख रही है उसके पीछे राजनीति नहीं, बल्कि आस्था है। यह कतई जरूरी नहीं कि मंदिर निर्माण का हर समर्थन करने वाला भाजपा समर्थक हो या हर विरोधी कांग्रेस के पक्ष में वोट करता रहा हो। इस देश में आस्था का दायरा राजनीति की चौहद्दी से कहीं ज्यादा बड़ा रहा है। वैसे तो किसी विकासशील देश में जनहित के आर्थिक-सामाजिक मुद्दों की कोई कमी नहीं होती है। महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दे सुरसा जैसे हमेशा मुंह बाये खड़े रहते हैं, लेकिन इनसे इतर कुछ मुद्दे ऐसे भी होते हैं जिनके सामने ये सारे मुद्दे गौण हो जाते हैं। आस्था से जुड़े मुद्दे ऐसे ही होते हैं।
इस देश के जनमानस के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम सदियों से आराध्य देव रहे हैं और लोगों की आस्था और भावनाएं उनसे जुड़ी रही हैं। भाजपा ने इसीलिए मंदिर निर्माण के मुद्दे को अपनी राजनीति का अहम हिस्सा बनाया। इसके विपरीत कांग्रेस के लिए यह मुद्दा उसके धर्मनिरपेक्ष एजेंडे के मुताबिक नहीं रहा। पार्टी का आरोप है कि भाजपा मंदिर-मस्जिद की राजनीति करके समाज को धर्म के आधार पर बांटने की कोशिश अपने सियासी लाभ के लिए करती रही है। कांग्रेस का यह भी मानना है कि नरेंद्र मोदी सरकार अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा संपन्न कराकर इस वर्ष अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनावों में फायदा उठाना चाहती है। शायद यही वजह है कि पार्टी ने अयोध्या में होने वाले समारोह से अपनी दूरी बना ली है। कांग्रेस के ऐसा करने के पीछे निश्चित रूप से सियासी वजहें होंगी लेकिन क्या सिर्फ मंदिर या मस्जिद का निर्माण करा के चुनाव जीता जा सकता है? क्या कोई हुकूमत सत्ता में अपनी वापसी सिर्फ मंदिर का निर्माण करा के कर सकती है, अगर उसे बाकी मुद्दों पर आम लोगों का समर्थन न प्राप्त हो?
गौरतलब है कि अयोध्या में मंदिर का निर्माण सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद किया गया है। यह किसी पार्टी विशेष के एजेंडे या पहल के कारण नहीं हुआ है। कांग्रेस या कोई अन्य विपक्षी दल इस समारोह में शामिल होकर भी यह संदेश तो दे ही सकता है कि आस्था के सवाल पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। समारोह में शामिल होकर भी भाजपा को अगले आम चुनाव में जनसरोकार से जुड़े रोजमर्रा के मुद्दों पर घेरा जा सकता था।
जहां तक मंदिर बनवाकर चुनाव जीतने का सवाल है, देश में हजारों मंदिर-मस्जिद-चर्च जीर्ण-शीर्ण हालत में हैं। अगर उनका पुनर्निर्माण या पुनरोद्घार करके चुनाव जीते जाते तो हर शहर में उनकी हालत वैसी नहीं होती। चुनाव आम लोगों से जुड़े मुद्दों के आधार पर ही जीते जाते हैं। इस वर्ष होने वाले आम चुनाव में भी लोग उसे ही चुनेंगे जिसे वे अपने हित में काम करने वाला मानेंगे। अगर नरेंद्र मोदी सरकार की सत्ता में वापसी होती है तो उसके कारण अनेक होंगे, सिर्फ एक नहीं।