अभी-अभी संपन्न हुई विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता के सेमीफाइनल के दौरान वेस्ट इंडीज के महान खिलाड़ी विवियन रिचर्ड्स को 1974-1975 में भारत में खेली अपनी पहली टेस्ट सीरीज याद आ गई। कमेंट्री बॉक्स में उस शृंखला में अपने अनुभवों को साझा करते हुए उन्होंने कहा कि उन दिनों उनकी टीम के सभी खिलाड़ी मैच के दौरान लाल गेंद की चमक ज्यादा से ज्यादा बरकरार रखने की कोशिश करते रहते थे, ताकि उनके तेज गेंदबाजों को अपेक्षित गति और स्विंग से मदद मिल सके, लेकिन भारतीय टीम का मामला उलटा था। उन्होंने कहा कि उन दिनों भारत की टीम की तरफ से एकनाथ सोलकर और आबिद अली जैसे मध्यम गति के गेंदबाज शुरुआत के कुछ ओवर महज खानापूरी के लिए फेंकते थे। उसके बाद यहां की प्रसिद्ध स्पिन चौकड़ी गेंद अपने हाथों में ले लेती थी। उसके बाद उनकी टीम मैदान पर हर वह कोशिश करती थी जिससे गेंद की ‘शाइन’ जल्द से जल्द गायब हो जाए और स्पिन गेंदबाजों के लिए मददगार साबित हो।
भारत को छोड़ किसी अन्य क्रिकेट खेलने वाले देश में ऐसा नहीं होता था। इसकी एकमात्र वजह यह थी कि भारतीय टीम में उस समय चार दिग्गज स्पिनर– बिशन सिंह बेदी, इरापल्ली प्रसन्ना, श्रीनिवास वेंकटराघवन और भागवत चंद्रशेखर– का बोलबाला था। विश्व क्रिकेट में उनकी तूती बोलती थी और इस चौकड़ी के बल पर भारतीय टीम ने कई टेस्ट मैचों में शानदार फतह हासिल की थी। यहां की पिच स्पिन गेंदबाजों के लिए उपयुक्त समझी जाती थी। इसके विपरीत तेज गेंदबाजों के लिए यहां की पिचों को ‘ग्रेवयार्ड’ यानी कब्रिस्तान समझा जाता था। इसलिए भारत में कई दशक तक किसी तेज गेंदबाज ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना मुकाम नहीं बनाया। वीनू मांकड़, बापू नादकर्णी और सुभाष गुप्ते जैसे बेहतरीन फिरकी गेंदबाज तो उभरे, लेकिन देश में तेज गेंदबाजों का टोटा लंबे समय तक बना रहा। 1978-79 की पाकिस्तान सीरीज में कपिल देव के आने के बाद पहली बार कोई ऐसा गेंदबाज सामने आया जिसने अपनी तेज गेंदबाजी से असर छोड़ा। उनसे पहले अगर किसी भारतीय तेज गेंदबाज का जिक्र होता था तो वह मोहम्मद निसार और अमर सिंह की जोड़ी थी जिसने अपना जलवा भारत के टेस्ट क्रिकेट के इतिहास की शुरुआत में 1932-33 में दिखाया था। उनके और कपिल के दौर के बीच दशकों तक बस कामचलाऊ मध्यम या धीमी गति के गेंदबाजों से बॉलिंग की शुरुआत की रस्मअदायगी की जाती थी। तेज गेंदबाजों की देश में इतनी कमी थी कि कभी-कभी सुनील गावस्कर जैसे सलामी बल्लेबाज को भी शुरू के एक-दो ओवर फेंकने की जिम्मेदारी दे दी जाती थी। एक बार तो पिच की हालत देखते हुए मध्यम तेज गेंदबाज करसन घावरी से स्पिन बॉलिंग करने को कहा गया। स्पिन बॉलिंग ही भारतीय टीम का ब्रह्मास्त्र समझी जाती थी।
इस संदर्भ में आज की टीम इंडिया के तेज गेंदबाजों को देखना हैरान करता है जिन्हें दुनिया में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। फाइनल में भले ही उनकी टीम ऑस्ट्रेलिया से हार गई हो, लेकिन इस विश्व कप में जिस तरह का प्रदर्शन जसप्रीत बुमराह, मोहम्मद शमी और मोहम्मद सिराज ने किया, वह यह साबित करने के लिए काफी है कि आज के दौर में उनके जैसी तेज गेंदबाजों की तिकड़ी किसी दूसरे टीम के पास नहीं है- वेस्ट इंडीज और ऑस्ट्रेलिया के पास भी नहीं जिन्हें आम तौर पर फास्ट बॉलर की फैक्ट्री समझा जाता रहा है। यहां तक कि पाकिस्तान के पास भी आज भारत जैसे तेज गेंदबाज नहीं हैं। गौरतलब है कि भारत और पाकिस्तान की पिच, जलवायु और अन्य परिस्थितियां एक जैसी रही हैं। इसके बावजूद पाकिस्तान में इमरान खान, वसीम अकरम, वकार यूनुस और शोएब अख्तर जैसे उम्दा तेज गेंदबाज हुए। भारत में कपिल देव के आने के बाद कुछ स्थितियां बदलीं और जवागल श्रीनाथ और वेंकटेश प्रसाद जैसे तेज गति के गेंदबाज सामने आए। पिछले दो दशकों में कई अन्य तेज और मध्यम तेज गति के गेंदबाज भारतीय टीम का हिस्सा बने, लेकिन इस विश्व कप के पहले कभी भी उन्हें वैश्विक स्तर पर कभी उतना धारदार नहीं समझा गया जितना आज समझा जाता है। यह पहला मौका है जब भारतीय तेज गेंदबाजों को दुनिया भर में सर्वश्रेष्ठ आंका जा रहा है।
यह भारतीय क्रिकेट के लिए यकीनन स्वर्णिम घड़ी है क्योंकि जिस देश की पिचों को तेज गेंदबाजों के लिए हमेशा से ‘ग्रेवयार्ड’ समझा जाता था, वहां की पिच पर अब गेंदबाज न सिर्फ 150 किलोमीटर की रफ्तार से गेंद फेंक रहे हैं बल्कि अपनी लय और दिशा नियंत्रण से विकेटों का अंबार भी लगा रहे हैं। इस विश्व कप में भारत की टीम में बेहतर प्रदर्शन किसी ने किया तो वे तेज गेंदबाज ही थे। भले ही फाइनल में ऑस्ट्रेलिया ने आखिरी बाजी अपने नाम कर ली, लेकिन इस वजह से भारतीय तेज गेंदबाजों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। यही कारण है कि वे आउटलुक के इस अंक की आवरण कथा के नायक हैं और इसके वाजिब हकदार भी।