एक यक्ष प्रश्न हमारे समक्ष हमेशा मुंह बाए खड़ा रहता है, अंग्रेजी में जिसे कहते हैं, ‘हैज एनिबॉडी डाइड फ्रॉम हार्ड वर्क?” जाहिर है, जवाब में ‘नो’ (नहीं) के अलावा कुछ और सुनने की उम्मीद नहीं की जाती। कुछ विनोदी यह जरूर कहते हैं, बात ठीक है, ‘बट व्हाई टेक द रिस्क’ (लेकिन भला खतरा मोल क्यों लें?” काम हालांकि हास-परिहास से इतर संजीदा विषय है। हार्ड वर्क यानी कड़ी मेहनत की बात और भी गंभीर है। आज के कॉर्पोरेट दौर में जब गलाकाट स्पर्धा का अलग ही स्तर देखा जा रहा है, तब यह सवाल बार-बार उभर कर आ रहा है कि किसी कर्मचारी को रोज कितने घंटे काम करना चाहिए। हमारे समाज में ‘वर्क इज वर्शिप’ यानी काम ही पूजा है की अवधारणा प्रचलित रही है। आजादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ‘आराम हराम है’ का नारा नए राष्ट्र निर्माण के संकल्प के लिए दिया था। पिछले दिनों इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने देश की प्रगति के लिए युवाओं को हर सप्ताह सत्तर घंटे पसीने बहाने का आह्वान किया। लार्सन ऐंड टुर्बो के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक एस.एन. सुब्रह्मण्यन ने सात दिनों में 90 घंटे काम करने की पुरजोर वकालत की।
आजकल अधिकतर निजी संस्थानों में 40 से 48 घंटे काम करने की रवायत है। समाजशास्त्री बेहतर वर्क-लाइफ बैलेंस यानी कामकाजी और निजी जिंदगी के बीच अच्छे तालमेल के लिए अधिकतम 40 घंटे प्रति सप्ताह काम करने की वकालत करते हैं। उनका मानना है कि इससे अधिक काम का असर न सिर्फ उनके दफ्तर में, बल्कि उनके घरेलू जीवन पर भी पड़ता है। पाश्चात्य देशों में अधिकतम 40 घंटे प्रति सप्ताह काम करने का चलन रहा है। वहां सप्ताहांत मजे से बिताने का रिवाज है। वहां मानना है कि लोगों को सप्ताह के पांच दिन कड़ी मेहनत करनी चाहिए और दो दिन मौज-मस्ती के लिए रखने चाहिए। उनकी कार्य संस्कृति का मूल मंत्र है ‘वर्क हार्ड, पार्टी हार्डर’ यानी पांच दिन कड़ी मेहनत करो और दो दिन ‘चिलआउट’ करो।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अपने कायदे-कानून होते हैं। वहां इंटरनेट युग में काम करने के लिए निर्धारित अवधि से काम के नतीजे पर ज्यादा जोर दिया जाता है। वहां आप अगर हर हफ्ते सौ घंटे काम करके भी निर्धारित लक्ष्य से पीछे रह जाते हैं तो आपकी मेहनत का कोई मोल नहीं है। इसके विपरीत अगर कोई प्रति सप्ताह 30 घंटे काम करके ही कंपनी के निर्धारित टारगेट को पूरा कर लेता है तो उसकी वाहवाही होती है। इसलिए कई कंपनियां अपने कर्मचारियों तो यह छूट भी देती हैं कि वे दफ्तर आकर अपने काम निपटाएं या घर बैठकर ही करें। मानव संसाधन विभाग वहां के कर्मचारियों को समय-समय पर छुट्टियों पर जाने को प्रेरित करता है, ताकि उन्हें काम करने की नई ऊर्जा मिल सके। जाहिर है, वहां ‘वर्कोहॉलिक’ यानी काम का कीड़ा होना अच्छा नहीं समझा जाता है। वैसे भी पाश्चात्य संस्कृति में ‘आल वर्क ऐंड नो प्ले मेक्स जैक ए डल बॉय’ यानी सिर्फ और सिर्फ काम में जुटे रहने वाले को भोंदू समझा जाता है। अपने देश में ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम दास मलूका कह गए सबसे दाता राम’ जैसी लोकोक्ति प्रचलित रही है तो दूसरी ओर ‘कल करे सो आज कर आज करे सो अब’ को सफलता का मूलमंत्र समझा जाता है। हालांकि ऐसों की भी कमी नहीं है जो कहते नहीं थकते कि ‘आज करे सो कल कर, जल्दी क्या है जीना है वर्षों!’
खबरों के अनुसार पिछले दिनों अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने एनिमल के निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा की अगली फिल्म इसलिए छोड़ दी क्योंकि वे प्रतिदिन छह से आठ घंटे की शिफ्ट से ज्यादा काम नहीं करना चाहती थीं ताकि अपने परिवार के साथ ज्यादा वक्त बिता सकें। दीपिका बॉलीवुड की शीर्ष अभिनेत्रियों में हैं, इसलिए वे ऐसा कर सकीं, वरना फिल्म इंडस्ट्री में अमूमन काम करने की कोई निर्धारित अवधि नहीं होती है। टेलीविजन इंडस्ट्री में तो स्थिति और भी विकट है, जहां निर्माता एक ही दिन में तीन-चार शिफ्ट की शूटिंग संपन्न करना चाहते हैं। इस इंडस्ट्री में वैसे कलाकारों की भी कमी नहीं है, जो प्रतिदिन सोलह घंटे काम करने को तैयार हैं लेकिन यहां भी वही सवाल उठता है कि कार्य अवधि महत्वपूर्ण है या काबिलियत? बॉलीवुड ने परदे पर तो एक तरफ अधिक काम करने वालों के खिलाफ हर समय प्रासंगिक रहने वाली ‘सुबह और शाम, काम ही काम, क्यों नहीं लेते पिया प्यार का नाम’ जैसे गीतों की रचना की है, तो कामचोर लोगों में ‘जीवन चलने का नाम चलते रहो सुबहो-शाम’ जैसे नगमों से जोश भरा है, लेकिन निजी जिंदगी में कलाकारों को भी वर्क-लाइफ बैलेंस की उतनी ही जरूरत है, जितनी किसी भी संगठित और असंगठित क्षेत्र के आम कर्मचारी को।
भारत में सरकारों ने काम करने की अवधि निर्धारित करने हेतु कड़े श्रम कानून बनाए हैं, लेकिन निजी और असंगठित क्षेत्रों में उनका पालन कम ही देखा गया है। जहां तक सरकारी दफ्तरों का सवाल है, उनके बारे में यहां जितना कम कहा या लिखा जाए, उतना बेहतर!