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7 जुलाई 2025 · JUL 07 , 2025

प्रथम दृष्टिः फौरन रुके जंग

अगर इजरायल और ईरान का युद्ध लंबा चलता है तो उसका खामियाजा सिर्फ उन्हीं दोनों देशों को नहीं भुगतना पड़ेगा, बल्कि पूरी दुनिया पर उसका असर पड़ेगा, जैसे रूस और यूक्रेन की लड़ाई से हुआ
इजरायल का ईरान पर हमला

अस्सी-नब्बे के दशक में शीत युद्ध का अंत, साम्यवाद का घटता प्रभाव, सोवियत संघ का विघटन, इंटरनेट का प्रादुर्भाव और भारत सहित दुनिया भर में वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद जो भी दूरगामी परिणाम या दुष्परिणाम सामने आए हों, इन वर्षों में एक उम्मीद की लौ जरूर जली रही कि सामरिक और आर्थिक दृष्टि से संपन्न देश भविष्य में बीसवीं सदी की युद्धवादी नीतियों से सबक लेकर अमन की राह पर चलेंगे। डिजिटल क्रांति ने उस उम्मीद को और रोशन कर दुनिया भर में विकास की असीम संभावनाओं के दरवाजे खोले। इससे यही साबित हुआ कि अगर विज्ञान और तकनीक का प्रयोग मानव कल्याण के लिए हो तो प्रगति की रफ्तार कई गुना तेज हो सकती है। इसका दूसरा पहलू भी रहा, अगर विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल युद्ध के लिए किया जाए तो उसका खामियाजा आने वाली कई पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है।

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हिरोशिमा और नगासाकी में परमाणु बम गिराए जाने के बाद हुए विध्वंस से उबरने में जापान जैसे जीवट भरे लोगों के देश को भी कई दशक लगे। उसके बाद वैश्विक स्तर पर हुक्मरानों को यह अहसास हो गया कि परमाणु युद्ध का अंजाम भयावह हो सकता है, लेकिन किसी भी देश ने परमाणु शक्ति विकसित करने से परहेज करने की पहल नहीं की।   

उस दौर में कुछ ही बड़े देश परमाणु शक्तियों से लैस थे, लेकिन उनके बीच एटमी पॉवर बनने की होड़ हमेशा रही। यही नहीं, वैश्विक स्तर पर सामरिक दबदबा बढ़ाने के लिए उन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कई ऐसे छोटे और गरीब मुल्कों को भी परमाणु शक्तियां विकसित करने में मदद की, जो अपनी अवाम को रोटी, कपड़ा और मकान जैसी आधारभूत जरूरतें भी मुहैया कराने में असमर्थ थे। नतीजतन, पाकिस्तान जैसे आर्थिक समस्याओं से जूझते छोटे मुल्क परमाणु शक्ति बन बैठे। दरअसल न्युक्लियर पॉवर बनने की चाहत ने विश्व के सामने ऐसी विकराल समस्या खड़ी की, जिससे निजात पाना अब आसान नहीं दिखता। पिछली सदी के अंतिम दशकों में परमाणु युद्घ की आशंका वक्त-बेवक्त सामने आती रही।

नई सहस्त्राब्दी में बड़े मुल्कों ने भी आर्थिक उन्नति को जंग से ज्यादा तरजीह दी। वर्षों एक-दूसरे के दुश्मन रहे मुल्क दोस्तों की तरह पेश आने लगे। बाजार नया युद्ध का मैदान बना। चीन ने दुनिया भर के बाजारों में अपने सस्ते उत्पादों से पैठ बना ली। आर्थिक ताकत सामरिक ताकत से ज्यादा अहम समझी गई। बाजारवाद के युग में किसी दूसरे मुल्क को अपने उत्पादों से पाट देना भी किसी सामरिक रणनीति से कम न था। इसके लिए किसी दिलेर फील्ड मार्शल, गोले-बारूद या परमाणु बम की जरूरत नहीं थी। जरूरत थी नए बिजनेस आइडिया की, कारोबार को सरहदों पार ले जाने की इच्छाशक्ति और अभिनव प्रयोगों की।

नए आर्थिक दौर के सिपाहसालार कहीं एलॉन मस्क और जेफ बेजोस के रूप में सामने आए, तो कहीं जैक मा के रूप में। इस दौरान लगा कि दो मुल्कों के बीच किसी पुराने मसले के कारण जंग के मैदान में जाना ऐसा आइडिया है, जिसकी एक्सपायरी डेट खत्म हो चुकी है। लेकिन हाल की घटनाओं ने यह भ्रम तोड़ दिया। सीमा पार से आए आतंकवादियों ने पहलगाम में 26 निर्दोष लोगों की हत्या की और भारत ने पाकिस्तान स्थित आतंकवदियों के ठिकानों पर हमले किए, तो दो पड़ोसी मुल्कों के बीच जंग के हालात बन गए। रूस और यूक्रेन के बीच महीनों से जारी युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा है। अब इजराइल और ईरान के बीच शुरू हुई लड़ाई के कारण फिर वही पुराने मंजर दिखने लगे हैं, जिससे वर्षों तक दुनिया खौफजदा रही।

ऐसी आशंकाएं होने लगी हैं कि यह संघर्ष दुनिया को एटमी युद्ध के मुहाने पर लाकर छोड़ देगा। कनाडा में जी-7 शिखर सम्मलेन के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का ईरान और इजरायल के बीच युद्ध विराम की कोशिश से इनकार करने और तेहरान के लोगों से शहर खाली करने की राय देने से निराशा हुई है। हालांकि भारत-पाकिस्तान के बीच ट्रम्प ने ‘दो एटमी ताकतों’ को कथित रूप से ट्रेड यानी तिजारत की ताकत के बल पर युद्ध विराम के लिए राजी करवाने का श्रेय लेने में कोई देरी नहीं की थी।

जाहिर है, अगर इजरायल और ईरान का युद्ध लंबा चलता है तो उसका खामियाजा सिर्फ उन्हीं दोनों देशों को नहीं भुगतना पड़ेगा, बल्कि पूरी दुनिया पर उसका असर पड़ेगा, जैसे रूस और यूक्रेन की लड़ाई से हुआ। आज युद्ध लड़ने के लिए नई तकनीकें आ गई हैं, जिसके कारण पारंपरिक तरीके आउटडेटेड हो गए हैं। जिस तकनीक पर दुनिया ने पिछले दो-तीन दशकों में अमन-चैन के साथ आर्थिक प्रगति हासिल की है, इससे पहले कि उसी तकनीक से वह सब कुछ गवां दे, दुनिया भर के प्रभावशाली देशों विशेषकर अमेरिका को वहां युद्ध विराम कराने की अविलंब पहल करनी ही चाहिए।

 

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