पाकिस्तान की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि वहां की हुकूमत की बागडोर अधिकतर फौज के हाथों में रही है। कहने को तो समय-समय पर वहां जम्हूरियत के नाम पर चुनाव होते रहे हैं, लेकिन जनता द्वारा चुनी गई सरकार के प्रधानमंत्री से कहीं अधिक शक्तिशाली वहां का फौज प्रमुख होता है। जनता के प्रतिनिधि होने के बावजूद वहां किसी सियासी हुक्मरान के लिए यह मुमकिन नहीं है कि वह आर्मी चीफ की मुखालफत कर सके। अगर किसी ने कभी दुस्साहस किया तो उसे सूली पर चढ़ा दिया गया, या जेल में डाल दिया गया, या मुल्क से बाहर निर्वासित कर दिया गया। आश्चर्य नहीं कि वहां के फौजी जनरल आने-जाने वाली सरकारों को कठपुतलियों की तरह नचाते रहते हैं।
पाकिस्तान को वजूद में आए 78 वर्ष हो चुके हैं, लेकिन वहां आज भी स्थितियां जस की तस हैं। आज भी पाकिस्तान के आर्मी जनरल आसिम मुनीर वहां के वजीर-ए-आजम शहबाज शरीफ से ज्यादा शक्तिशाली हैं, भले ही आधिकारिक तौर पर वहां फौज का शासन नहीं है। यह अतिश्योक्ति नहीं कि पाकिस्तान में नेशनल असेंबली नहीं, आर्मी सर्वोपरि है। अभी आर्मी के सर्वेसर्वा मुनीर साहब हैं, जिन्हें हाल में भारत के ऑपरेशन सिंदूर के दौरान मुंह की खाने के बावजूद फील्ड मार्शल के ओहदे से नवाजा गया है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह बात छिपी नहीं है। अगर ऐसा न होता तो हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को मिलने के लिए बुलाते, मुनीर को नहीं। क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी राष्ट्राध्यक्ष या राष्ट्र प्रमुख ने भारत के किसी सेनाध्यक्ष को बातचीत के लिए बुलाया हो? पाकिस्तान के संदर्भ में यह बात अटपटी नहीं लगती। यही वजह है कि मुनीर का हौसला ट्रम्प के साथ रोटियां तोड़ने के बाद बुलंद हो गया है। वे उसे पाकिस्तान को अमेरिका के खुले समर्थन के रूप में देख रहे हैं। ट्रम्प द्वारा भारत पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाए जाने की घोषणा के बाद उन्हें शायद यह भी लगता है कि अब भारत को सबक सिखाने का मौका आ गया है। इसलिए वह अमेरिका की सरजमीं से भी भारत के खिलाफ परमाणु युद्ध की धमकियां देने से बाज नहीं आ रहे हैं। वे आधी दुनिया की तबाही की बात भी कर रहे हैं। उन्होंने फ्लोरिडा में रह रहे पाकिस्तानियों के एक समूह से कहा कि भविष्य में भारत के साथ युद्ध में उनके देश के अस्तित्व पर खतरा होता है तो वे परमाणु बम के इस्तेमाल से परहेज नहीं करेंगे, भले ही आधी दुनिया को उसकी कीमत चुकानी पड़े। उनके बयान के मायने निकाले जा रहे हैं कि बिना ट्रम्प की शह के वे ऐसा नहीं कह सकते, खासकर जब वे अमेरिका में मौजूद हों।
जो भी हो, मुनीर आज के दौर में तेजी से बदलते वैश्विक परिस्थितियों से नावाकिफ लगते हैं। वे शायद इस मुगालते में हैं कि अगर भारत के साथ पाकिस्तान का भविष्य में कभी युद्ध होता है, तो अमेरिका उनकी खुले तौर पर मदद करेगा, जैसा कभी निक्सन के दौर में हुआ था। लेकिन, दुनिया शीत युद्घ के उस दौर से बहुत आगे निकल चुकी है, जब वह मुख्य रूप से दो भागों में बंटी हुई थी। वैसे तो जंग को किसी मसले के समाधान का बेहतर जरिया पहले भी नहीं समझा जाता था लेकिन आज के परिदृश्य में यह बिलकुल बेमानी हो गया है। अगर किसी मसले का समाधान किसी देश की सामरिक शक्ति के आधार पर होता, तो रूस बनाम यूक्रेन और ईरान बनाम इज्राएल युद्ध का फैसला कुछ ही दिन में सामने आ जाता।
दरअसल आज के दौर की लड़ाइयां आर्थिक मोर्चे पर होनी है। बाजारवाद के बढ़ते दौर में दुनिया भर के बाजार नए रणक्षेत्र बन गए हैं। जिसका आधिपत्य जितने बड़े बाजार पर है, वह उतना ही बड़ा सुपर पॉवर है। ट्रम्प द्वारा भारत, चीन या ब्रिक्स के अन्य देशों के खिलाफ शुरू किया गया ‘टैरिफ वॉर’ शायद उसी रणनीति का हिस्सा है, जिसका समाधान सामरिक हस्तक्षेप से नहीं, दो देशों के बीच की व्यापारिक नीतियों से होना है। ट्रम्प भले ही भारतीय अर्थव्यवस्था को मृत घोषित कर चुके हों, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत आज आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर चुका है।
जाहिर है, वैश्विक बाजार में पहले ब्रिक्स के गठन और फिर चीन और भारत जैसे देशों की निरंतर बेहतर होती अर्थव्यवस्था भविष्य के लिए अमेरिका जैसे सुपर पॉवर को गवारा नहीं हो सकता। इसलिए ट्रम्प के लिए अपने मन-मुताबिक ट्रेड डील की नीति ही हर मर्ज की दवा है। उनकी सारी हालिया कवायद भारत को अपनी शर्तों पर ट्रेड डील के लिए राजी करना है। उनके लिए भारत-पाकिस्तान के बीच पुराने मसलों के समाधान से कहीं ज्यादा अहम उनकी अपनी अर्थव्यवस्था है। पाकिस्तान के सियासी हुक्मरानों और उनके फौजी आकाओं को यह समझना पड़ेगा कि अब किसी सुपर पॉवर के लिए जंग जीतने के खातिर परमाणु बम से अधिक डॉलर बम मुफीद लगता है। यही नई वैश्विक व्यवस्था की हकीकत है।