हरियाणा के मशहूर पहलवान महावीर सिंह फोगट के जीवन पर आधारित अभिनेता-निर्माता आमिर खान की बहुप्रशंसित फिल्म दंगल (2016) की टैग लाइन थी, ‘म्हारी छोरियां छोरो से कम हैं के?’ यह लाइन बहुत मशहूर हुई थी। महावीर ने बेटियों, बबिता और गीता को कुश्ती में प्रशिक्षण दिया था, जिसकी बदौलत दोनों ने विश्वस्तरीय कुश्ती प्रतियोगिताओं में देश के लिए कई पदक जीते। उनकी जीत महज दो महिला पहलवानों की जीत नहीं, बल्कि लड़कियों की जिद और जुनून की जीत थी जिन्होंने सदियों से रूढ़ियों में जकड़े पुरुषप्रधान समाज को अपने खेल के माध्यम से चुनौती दी।
हाल के दशकों में देश की लड़कियों ने कई बार साबित किया कि वे लड़कों से किसी भी मामले में कम नहीं हैं। अंतरिक्ष का जोखिम भरा सफर करने से लेकर फाइटर प्लेन उड़ाने तक, लड़कियां अब हर वह काम बखूबी कर रही हैं, जिसके लिए पहले सिर्फ लड़कों को योग्य समझा जाता है। लड़कियों ने दमखम और प्रतिभा की बदौलत दमदार उपस्थिति दर्ज की है। इसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है।
अब उन्होंने आइसीसी एक-दिवसीय महिला क्रिकेट विश्व कप का खिताब जीत कर एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि उन्हें किसी भी खेल में मर्दों से कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। नवी मुंबई में खेले गए फाइनल में टीम इंडिया ने दक्षिणी अफ्रीका को 52 रन से हराकर विश्व की सबसे प्रतिष्ठित ट्रॉफी पहली बार देश के नाम की। भारतीय महिला टीम वर्ष 1978 से ही इस टूर्नामेंट का हिस्सा रही है, लेकिन यह पहला मौका था, जब वह विश्व विजेता बनी। इससे पहले 2005 और 2017 में महिला क्रिकेट टीम फाइनल में पहुंची जरूर थी, लेकिन दोनों मौकों पर उसे हार का सामना करना पड़ा था। अब एक लंबे इंतजार के बाद भारत की लड़कियों ने वह कारनामा कर दिखाया, जो पुरुषों की टीम ने 1983 में लॉर्ड्स में दिखाया था। महिला टीम की इस जीत को किसी भी पैमाने पर 42 वर्ष पूर्व कपिल देव के नेतृत्व वाली भारतीय टीम की ऐतिहासिक विजय से कमतर नहीं समझना चाहिए। इसलिए इस उपलब्धि के लिए महिलाओं की टीम उतनी ही तारीफ की हकदार है जितनी पहला विश्व कप जीतने वाली भारतीय टीम थी। पुरुषों और महिलाओं के क्रिकेट टीम के बीच समानता के दृष्टिकोण से अभी भी बड़ी खाई है। बात चाहे बराबर फीस की हो या कॉन्ट्रैक्ट की, मैचों के टेलीविजन प्रसारण अधिकार की हो या खिलाड़ियों को विज्ञापन की दुनिया में मिलने वाले पारिश्रमिक की, अभी भी दोनों के बीच का फासला साफ झलकता है।
हालांकि यह सच है कि दोनों के बीच की दूरी पहले की तुलना में कम हुई है, लेकिन हर दृष्टिकोण से समानता का लक्ष्य हासिल करने के लिए अभी लंबा इंतजार करना पड़ेगा। स्थितियां धीरे-धीरे बदलनी शुरू तो हो गई हैं। मसलन, इस विश्व कप को जीतने वाली भारतीय महिला टीम को 39.5 करोड़ रुपये पुरस्कार राशि प्राप्त हुई। प्रतियोगिता के इतिहास में यह अब तक की सबसे बड़ी प्राइज मनी है। यह राशि 2023 में खेले गए एक दिवसीय पुरुष क्रिकेट विश्व कप के विजता ऑस्ट्रेलिया को मिली राशि से अधिक है। यह हाल के वर्षों में महिला क्रिकेट में बढ़ी दिलचस्पी को दर्शाता है।
पिछले कुछ वर्षों में भारत की महिला खिलाडियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-अलग प्रतिस्पर्धाओं में बेहतरीन प्रदर्शन किया है, जिसमें सिर्फ क्रिकेट ही नहीं है बल्कि बॉक्सिंग, वेटलिफ्टिंग और कुश्ती जैसे खेल शामिल हैं। लेकिन, क्रिकेट में बेशक हमारी ‘छोरियों’ ने उतनी ही बड़ी लकीर खींच दी है, जैसी हमारे ‘छोरों’ ने 1983 में खींची थी। तब भारतीय टीम से कई गुना मजबूत समझी जाने वाली वेस्टइंडीज टीम को फाइनल में अप्रत्याशित हर का सामना करना पड़ा था।
वैसे तो पूरी दुनिया में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के खेल के प्रति दकियानूसी सोच और पूर्वाग्रहों के कारण एक जैसा नजरिया नहीं है। उसके बावजूद महिलाओं ने निरंतर संघर्ष करते हुए खेल में मैदान में अपना सिक्का जमा लिया है। आज जरूरत है कि खेलों में महिलाओं और पुरुषों में हर मायने में समानता हो, चाहे प्राइज मनी का सवाल हो या कॉर्पोरेट स्पांसरशिप का।
किसी भी खेल में निवेश जितना अधिक होगा उस खेल का भविष्य उतना ही उज्ज्वल होगा। अस्सी के दशक के मध्य तक पुरुष खिलाड़ियों को बमुश्किल कुछेक हजार रुपये की मैच फीस मिलती थी, लेकिन कॉर्पोरेट स्पांसरशिप और टेलीविजन प्रसारण राइट्स मिलने और आइपीएल जैसे टूर्नामेंट की विश्वव्यापी लोकप्रियता के कारण भारतीय क्रिकेट बोर्ड आज दुनिया के सबसे धनाढ्य खेल संस्थानों में शामिल है। इस विश्व कप जीत के कारण उम्मीद की जानी चाहिए कि महिला क्रिकेट का उत्थान भी अब वैसा ही होगा, जैसे पुरुषों की टीम का 1983 के बाद हुआ। महिला क्रिकेट टीम उसकी हकदार भी है।