गांदरबल, बडगाम से नसीर गनईक श्मीर के चुनावी मैदान में सियासी दलों का झंडा नहीं, टोपी प्रतीक बन चुकी है। जब कोई नेता अपनी टोपी हाथ में लेकर लोगों से वोट मांगने लगे, तब समझा जा सकता है कि मामला इतना आसान नहीं है। कश्मीर में पिछले दिनों ऐसा ही कुछ देखा गया। पूरे चुनावी विमर्श के केंद्र में अब टोपी आ चुकी है। घटना 4 सितंबर की है जब उमर अब्दुल्ला ने गांदरबल सीट से अपना नामांकन दाखिल किया। उसके बाद उन्होंने अपने समर्थकों को संबोधित करते वक्त उर्दू में कहा, “मैं आपको एक बात बता देना चाहता हूं।” इसके बाद वे कश्मीरी बोलने लगे, जिसमें उनका हाथ थोड़ा तंग है।
वे लड़खड़ाते स्वर में बोले, “मेरी टोपी, मेरी इज्जत।” और ऐसा कहते हुए उन्होंने सिर पर रखी अपनी कश्मीरी टोपी हाथ में ले ली। दोनों हाथों में उसे थामे उन्होंने भीड़ को टोपी दिखाई। उसके बाद भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा। कुछ समर्थक आंसू बहाने लगे और उनके लिए अपनी जान देने की कसमें खाने लगे। अब्दुल्ला ठहरे, उन्होंने भीड़ पर निगाह डाली, फिर टोपी को हवा में उठाते हुए बोले, “अब यह आपके हाथ में है। मेरी पगड़ी बचा लीजिए। मेरी इज्जत बचा लीजिए। मुझे एक मौका और दीजिए।”
चुनौती बड़ीः बडगाम में उमर अब्दुल्ला
हाथ जोड़कर उन्होंने लोगों से एक और मौका मांगा, फिर टोपी को अपने सिर के हवाले कर दिया। उसके बाद वे बोले कि उनके पास इस वक्त और कुछ राजनीतिक बात कहने को नहीं है। खुद को संभालते हुए उमर वापस उर्दू पर लौटे, ऊपरवाले को याद किया और बोले कि अगर वे मिलकर काम करें तो जीत उनकी होगी।
जब उमर अब्दुल्ला की हैसियत का कोई नेता वोट मांगने के लिए अपनी पगड़ी उतार दे, तो यह कश्मीर के सियासी इतिहास में एक दुर्लभ क्षण बन जाता है। यह मौजूदा सियासी माहौल के जबरदस्त दबाव का संकेत होता है। गांदरबल बेशक अब्दुल्ला परिवार का गढ़ रहा है जहां से खुद शेख अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला और उमर तीनों लड़ चुके हैं। बावजूद इसके उमर यहां से परचा भरते समय बेचैन दिख रहे थे। उनकी पार्टी के एक समर्थक ने उमर की मुद्रा के बारे में बहुत शिद्दत से कहा, “हमारी पार्टी और उसके नेताओं पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस खतरे में है।” नेशनल कॉन्फ्रेंस के बारे में लोगों की आम राय यही है।
अगले दिन उमर अब्दुल्ला बडगाम पहुंचे। यहां से उन्होंने दूसरा परचा भरा। उनके साथ पार्टी के सांसद रुहुल्ला मेहदी थे। परचा भरने के बाद रुहुल्ला ने वहां जुटे लोगों से कहा कि बडगाम के लोग उमर को गांदरबल से ज्यादा वोट देंगे। मेहदी ने लोगों को आश्वस्त किया कि एक बार उमर असेंबली में पहुंच जाएं, तो वे उसी संकल्प के साथ वहां बोलेंगे जैसी मजबूती एनसी के सांसदों ने संसद में दिखाई है। उन्होंने यह भी कहा कि उमर महज एक विधायक की भूमिका में नहीं होंगे, बल्कि वे जम्मू और कश्मीर के नए मुख्यमंत्री का कार्यभार भी संभालेंगे।
उमर उस दौरान अपने बेटे के साथ मेहदी के बगल में खड़े रहे। यहां उनके सिर पर टोपी नहीं थी। रुहुल्ला ने पार्टी के सामने मौजूद चुनौतियों के बारे में अपनी बात रखी और सत्ता में आने के बाद पार्टी की योजनाओं का एक खाका लोगों के सामने पेश किया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि मुख्यमंत्री के बतौर उमर अब्दुल्ला का नेतृत्व 5 अगस्त 2019 के बाद लिए गए सारे फैसलों को खारिज कर देगा और सभी जेलों में कैद लोगों को रिहा किया जाएगा।
बडगाम में उमर अब्दुल्ला शांत ही रहे, हालांकि टोपी और इज्जत प्रतिष्ठा पर उन्होंने यहां भी जोर दिया। वे बोले, “उन्होंने हमारी जो नौकरियां छीनी हैं, उसे हम वापस लेंगे। उन्होंने अगर हमारे ठेकेदार हटाए हैं तो हम उन्हें ले आएंगे। उन्होंने अगर हमारे अस्पतालों पर कब्जा किया है तो हम अस्पताल बनवाएंगे। अगर हमारे बच्चों की शिक्षा पर असर पड़ा है, तो हम उस पर भी हल ढूढेंगे। लेकिन अगर हमारी इज्जत हमसे छीन ली गई तब तो कुछ भी मायने नहीं रखेगा।” उर्दू में उन्होंने कहा कि टोपी और प्रतिष्ठा सबसे ऊपर है, “हमारी जो प्रतिष्ठा हमसे छीनी गई है, उसे बहाल करना हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है।”
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के अनुसार यह उमर की कमजोरी को दर्शाता है। पीडीपी के नेता नईम अख्तर कहते हैं, “पहले उन्होंने कसम खाई कि केंद्र शासित प्रदेश रहते हुए वे चुनाव नहीं लड़ेंगे, अब दो सीटों से उन्होंने नामांकन भरा है। एनसी का शीर्ष नेतृत्व बार-बार कहता रहा कि वह किसी से गठबंधन नहीं करेगा, फिर उसने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर डाला। इससे साबित होता है कि एनसी का कोई वैचारिक आधार नहीं है और कोई सियासी लक्ष्य नहीं है, सिवाय अब्दुल्ला परिवार के हितों को साधने के।”
पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती
अख्तर की कठोर आलोचना को एक ओर रख दें, तो ऐसा लगता है कि उमर अब्दुल्ला बीते आम चुनावों में जेल में बंद अवामी इत्तेहाद पार्टी (एआइपी) के सांसद इंजीनियर राशिद के हाथों हुई अपनी हार से हिले हुए हैं। आम चुनावों में राशिद को जितने वोट मिले, वे अब्दुल्ला और सज्जाद लोन के वोटों को जोड़ कर भी ज्यादा थे। राशिद अब भी जेल में हैं लेकिन उनके 23 साल के बेटे अबरार घाटी में चुनाव प्रचार की कमान थामे हुए हैं, हालांकि राशिद की संभावित रिहाई को लेकर अफवाहों का बाजार गर्म है। राशिद के खेमे में इसके चलते असंतोष बढ़ रहा है। कई समर्थकों को ऐसा लग रहा है कि पार्टी ने अपनी खास पहचान खो दी है। इसलिए राशिद के साथ जुड़े कई बड़े चेहरे उन्हें छोड़ गए हैं। उनका दावा है कि यह पार्टी भी स्थापित सियासी दलों का ही एक संस्करण बनती जा रही है।
राशिद के भाई खुर्शीद अहमद शेख असेंबली चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं। जम्मू और कश्मीर की सरकार ने उन्हें स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की मंजूरी दे दी है। उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ने को अपने बलिदान के रूप में पेश किया है। उधर नेशनल कॉन्फ्रेंस में यह मान्यता घर करती जा रही है कि राशिद की पार्टी दिल्ली की सत्ता का एक औजार बनती जा रही है जिसके सहारे परंपरागत दलों, खासकर एनसी को दबाया जा रहा है। अबरार अपने पिता के बचाव में कहते हैं, “मेरे पिता अगर अगले दस साल भी जेल में रहे, तब भी वे समझौता नहीं करेंगे।”
भले ही तिहाड़ जेल में रहकर इंजीनियर राशिद ने उमर अब्दुल्ला को संसदीय चुनाव में हरा दिया था, लेकिन इस बार उनकी पार्टी एआइपी वैसा भावनात्मक माहौल खड़ा करने में कठिनाई महसूस कर रही है। परंपरागत नेताओं को साथ लेने का एआइपी का निर्णय उसके समर्थकों को नागवार गुजरा है। पार्टी इस बार कोई घोषणापत्र लेकर भी नहीं आई है। इस बारे में पार्टी के प्रवक्ता ईनाम-उल-नबी कहते हैं, “हमारा घोषणापत्र दीवार पर लिखी इबारत है।”
एआइपी ने कश्मीर चैम्बर ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्रीज (केसीसीआइ) के पूर्व अध्यक्ष शेख आशिक को खड़ा किया है जबकि पीडीपी ने बशीर अहमद मीर को उतारा है। एनसी को भरोसा है कि वह दोनों दलों के चुनाव प्रचार अभियान का सामना कर लेगी, लेकिन इस बारे में अभी अनिश्चय है कि कश्मीर के मतदाताओं का रुझान क्या रहेगा।
गांदरबल के एक दुकानदार ने हालात को कुछ ऐसे बयां किया, “यह चुनाव 1987 के चुनाव जैसा है। लोग बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। पिछले तीस साल के दौरान परंपरागत दलों की अपील उनके कोर समर्थकों में ही रही थी, लेकिन इस बार आम लोग भी बड़ी संख्या में अपने वोट देंगे। कोई नहीं बता सकता कि वे किसकी ओर जाएंगे। यह सभी सियासी दलों के लिए 1987 वाला पल है।”
इस चुनावी जंग में एक चेहरा अलगाववादी सरजन बरकाती भी हैं, जो आजादी के नारों के लिए जाने जाते हैं। दक्षिण कश्मीर के जैनापुरा से उनका परचा 28 अगस्त को खारिज हो गया था, लेकिन अब वे गांदरबल में उमर अब्दुल्ला को चुनौती दे रहे हैं। उनकी बेटी 17 वर्षीय सुगरा बरकाती ने अपने कैद पिता की ओर से परचे के लिए जरूरी कागजात जमा करवाए, नामांकन करवाया और उनकी रिहाई के लिए लोगों से अपील की।
हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकवादी बुरहान वानी की हत्या के बाद 2016 में दक्षिण कश्मीर में कई रैलियां हुई थीं। बरकाती उन्हीं रैलियों में लगाए अपने नारों से रोशनी में आए थे और लोग उन्हें “आजादी चचा” के नाम से पुकारने लगे थे। बरकाती के कुछ नारे थे- “ये पैलेट बुलेट ना भाई ना, ये पावा शावा ना भाई ना, ये पीएसए सरकार ना भाई ना!” इन नारों को दक्षिण कश्मीर में काफी लोकप्रियता मिली थी। इन्हीं रैलियों के चक्कर में बरकाती के ऊपर तीस से अधिक मुकदमे कायम हुए और सार्वजनिक सुरक्षा कानून (पीसए) के तहत उन्हें अक्टूबर 2016 में गिरफ्तार किया गया।
जम्मू में जितेंद्र सिंह और अमित शाह
दो साल बाद उन्हें छोड़ दिया गया था, लेकिन एक बार फिर पीएसए में उन्हें कैद कर लिया गया। इसके बाद उन्हें नवंबर 2022 में छोड़ा गया, फिर पिछले साल अगस्त में कैद कर लिया गया। उनकी गिरफ्तारी के करीब तीन महीने बाद उनकी पत्नी शबरोजा बरकाती को भी उसी केस में गिरफ्तार किया गया। इस साल फरवरी में राज्य की जांच एजेंसी एसआइए ने बरकाती, उनकी पत्नी और हिज्बुल मुजाहिदीन के सक्रिय आतंकी अब्दुल हामिद लोन उर्फ हामिद मवार के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल कर दिया। उनके ऊपर गैरकानूनी गतिविधियों और आतंक के लिए फंडिंग का आरोप लगा था। इसकी सुनवाई अब भी शुरू नहीं हुई है। बरकाती के चुनावी मैदान में उतरने से पहले ही उनके नारे मुख्यधारा की राजनीति में जगह पा गए। इस साल पीडीपी और एआइपी दोनों ने उनके नारों का इस्तेमाल विपक्षी दलों के खिलाफ किया। एआइपी ने उसे बदलकर नारा बनाया- “पीडीपी-एनसी ना भाई ना” जबकि पीडीपी ने नारा दिया, “एनसी ना भाई ना, पीएसए ना भाई ना, पीडीपी हां भाई हां!”
बरकाती की बेटी सुगरा ने उनका परचा दाखिल करते वक्त मतदाताओं से भावनात्मक अपील की, “हमने अब परचा दाखिल कर दिया है। एक ओर वे लोग हैं जिन्हें सत्ता चाहिए। दूसरी ओर कैद मां-बापों के अनाथ बच्चे हैं।”
इस बीच उमर अब्दुल्ला ने एक बयान देकर चुनावी सियासत को गरम कर डाला है। उन्होंने समाचार एजेंसी एएनआइ से बातचीत में कह दिया कि 2001 में संसद पर हमले के लिए जिम्मेदार अफजल गुरु की फांसी से कुछ भी हासिल नहीं हुआ है और जम्मू-कश्मीर की तत्कालीन सरकार कभी ऐसा फैसला नहीं लेती। इस बयान पर भाजपा के बड़े नेताओं की तीखी प्रतिक्रिया आई है जिससे घाटी का माहौल गरम हो गया है। केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने रामबन की एक चुनावी सभा में कहा, "उमर अब्दुल्ला की ऐसी टिप्पणी दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर अफजल गुरु को लटकाया नहीं जाता तो हम क्या करते? क्या हम सरेआम उसे माला पहनाते?" इस आरोप-प्रत्यारोप के बीच अफजल गुरु के भाई एजाज अहमद गुरु ने सोपोर से निर्दलीय चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। उन्होंने कहा है िक अब तक तमाम दलों ने जनता का केवल धोखा दिया है।
तिहाड़ में बंद इंजीनियर राशिद से बीती गर्मियों में हारने के बाद उमर अब्दुल्ला के लिए अब कोट बलवल जेल में बंद बरकाती की नई चुनौती खड़ी हो गई है। नतीजा किसी को नहीं मालूम क्या होगा, शायद इसीलिए उमर को अपनी टोपी अबकी जनता के दरबार में फेंकनी पड़ी है।