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आवरण कथा/किसान लामबंदी/पश्चिम यूपी: बदली फिजा

पश्चिमी यूपी में किसान-आंदोलन ने मिटाई दूरियां, धुर-विरोधी हुए एक; कई दल अपनी खोई जमीन वापस पाने की कोशिश में
मथुरा में महापंचायत को संबोधित करते जयंत चौधरी

शुक्रवार, 29 जनवरी 2021 को मुजफ्फरनगर में हो रही किसानों की महापंचायत में ऐसा दृश्य था, जिसे पिछले 7-8 वर्षों में लोग देखना भूल गए थे। मंच पर भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत के साथ उनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत के बेहद करीबी रहे गुलाम मोहम्मद जौला मौजूद थे। यह ऐसा पल था जिसे इलाके के लोग 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगे के बाद देखना भूल चुके थे। उस वक्त दंगों में 60 लोगों की मौत हुई थी और करीब 50 हजार मुसलमानों को बेघर होना पड़ा था। दंगों के बाद जौला ने भारतीय किसान यूनियन से नाता तोड़ दिया था और अपना अलग 'भारतीय किसान मजदूर मंच' बना लिया था। लेकिन अब तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन ने दूरियों और कड़वाहट को खत्म कर दिया है।

इसी पंचायत में एक और पल आया, जिसकी कल्पना शायद स्थानीय लोगों ने कभी नहीं की थी। नरेश टिकैत और योगराज सिंह की दुश्मनी जगजाहिर है। योगराज सिंह राष्ट्रीय किसान मोर्चा के अध्यक्ष रहे चौधरी जगबीर सिंह के बेटे हैं। जगबीर सिंह एक दौर में महेंद्र सिंह टिकैत के कद के किसान नेता हुआ करते थे। लेकिन 2003 में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, जिसमें नरेश टिकैत आरोपी हैं। इसके बावजूद योगराज सिंह उस महापंचायत में पहुंचे थे।

ये दो घटनाएं पश्चिमी यूपी में बदलते समीकरण की कहानी बताती हैं। उसे और पुख्ता, महापंचायत में मौजूद गुलाम मुहम्मद जौला ने कर दिया, जब उन्होंने किसानों को संबोधित करते हुए कहा “जाटों ने दो गलतियां कर डालीं। एक, चौधरी अजित सिंह को हराया और दूसरा, मुसलमानों पर हमला किया।”

वहां मौजूद एक जाट किसान नेता ने आउटलुक को बताया, “2013 में जो हुआ उससे बहुत खटास आ गई थी। लेकिन किसान आंदोलन ने वह दूरियां मिटा दी हैं। उसका जीता-जागता उदाहरण जौला और योगराज सिंह हैं।” वे कहते हैं, “हमारे यहां कहावत है कि गुस्से में जाट शादी में तो नहीं जाएगा, लेकिन संकट में वह सब भुलाकर आगे लठ्ठ लेकर खड़ा होगा। योगराज सिंह ने भी ऐसा ही किया है। बात अब स्वाभिमान की है।”

उस किसान नेता के अनुसार राकेश टिकैत का रोना लोगों के दिल पर लग गया है। सरकार को यह बात समझ में नहीं आ रही है कि हमने ही उसे दिल्ली की गद्दी पर बिठाया है। वह हमारे साथ ऐसा सलूक कर रही है। किसानों को खालिस्तानी और पाकिस्तानी कह रही है।”

'गन्ना बेल्ट' कहा जाने वाला पश्चिमी उत्तर प्रदेश कभी समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल का मजबूत गढ़ होता था। यहां की राजनीति में हमेशा किसान और उनसे जुड़े मुद्दे ही हावी रहे हैं। लेकिन 2013 के दंगों के बाद यहां की राजनीति पूरी तरह बदल गई और इस इलाके में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का प्रभुत्व बढ़ गया। भाजपा का ऐसा प्रभाव हुआ कि राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजीत सिंह और उपाध्यक्ष जयंत चौधरी को हार का सामना करना पड़ा। यह हार इसलिए भी चौंकाने वाली थी क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 17-20 लोकसभा सीटें और 80-100 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां जाटों का सीधा असर है। फिर भी दोनों जाट नेताओं को हार का सामना करना पड़ा। जौला इसी गलती की बात महापंचायत में कर रहे थे। बदले माहौल में भाजपा को 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनावों में झोली भरकर सीटें मिलीं।

बदलते समीकरण का एक और उदाहरण मुजफ्फरनगर के फतेहपुर गांव का भी है, जहां गाजीपुर बॉर्डर पर बैठे किसानों के समर्थन के लिए चंदा जुटाया जा रहा है। आगामी पंचायत चुनावों के लिए अभी तक सत्ताधारी पार्टी के भरोसे चुनावी नैया पार करने की सोच रहे उम्मीदवारों और उनके सहयोगियों का रुख बदल गया है। वे न केवल चंदा दे रहे हैं, बल्कि दूसरों से कहीं ज्यादा चंदा दे रहे हैं। एक उम्मीदवार ने तो 5,100 रुपये दिए। स्थानीय स्तर पर दो फैक्टर काम कर रहे हैं। एक तो लोगों को यह लग रहा है कि अगर इस समय किसानों का साथ नहीं दिया तो उनकी बहुत बदनामी हो जाएगी और सामाजिक बहिष्कार भी हो सकता है। दूसरा, राजनैतिक स्तर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई दल अब अपनी खोई जमीन वापस लेने की कवायद में लग गए हैं।

इसमें सबसे आगे राष्ट्रीय लोकदल है। पार्टी के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी लगातार महापंचायत कर रहे हैं। उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 11 जिलों में किसान महापंचायत करने का ऐलान किया है। इनमें शामली, अमरोहा, अलीगढ़, बुलंदशहर, फतेहपुरी सीकरी और मथुरा जिले की चार पंचायतें भी शामिल हैं। 2 फरवरी तक वे मुजफ्फरनगर, बागपत, फतेहपुर और मथुरा में एक-एक रैली कर चुके हैं। आंदोलन का चेहरा बन चुके राकेश टिकैत से खुद राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष चौधरी अजीत सिंह, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल बात कर चुके हैं। आम आदमी पार्टी भी इस बार उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है।

आउटलुक से बातचीत में अजीत सिंह ने भविष्य की राजनीति के संकेत भी दे दिए हैं। उन्होंने कहा, “इस समय सबका उद्देश्य इन कठोर कानूनों के खिलाफ लड़ना है। इसके लिए राजनीतिक मतभेदों को दूर करना होगा। पहले क्या हुआ इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम सभी को एक साथ रहना होगा। किसान अपने जीवन में कानूनों के असर को समझते हैं। वे अब पीछे नहीं हटने वाले हैं।” लोगों में गुस्सा इस हद तक है कि जिस तरह हरियाणा में कई खापों ने भाजपा नेताओं का हुक्का-पानी बंद करने की बात कही थी, वैसी ही अपील जयंत चौधरी ने मुजफ्फरनगर पंचायत में लोगों से की है।

खाप नेता और कृषि मामलों के जानकार जितेंद्र सिंह हुड्डा कहते हैं, “आंदोलन की वजह से किसान और खेतिहर मजदूरों के अलावा गांवों में रहने वाले सभी धर्मों और जाति के लोग एकजुट हुए हैं। वे आंदोलनकारियों के पक्ष में हैं। इसके अलावा, ग्रामीण और किसानी पृष्ठभूमि से आने वाले वे लोग जो वर्षों पहले ही शहरों में जाकर बस चुके हैं, वे भी इस आंदोलन से भावनात्मक रूप से जुड़ गए हैं। इसके चलते भाईचारा और सौहार्द मजबूत हुआ है।”

हुड्डा कहते हैं कि इस आंदोलन में लोग धर्म, जाति और व्यवसाय से ऊपर उठकर भावनात्मक रूप से जुड़ रहे हैं। यह भी देखने में आ रहा है कि विपक्षी नेताओं के अलावा गावों में रहने वाले सत्ताधारी पार्टी के कुछ कार्यकर्ता और पदाधिकारी भी इस आंदोलन से प्रभावित होकर पर्दे के पीछे से अपना सहयोग देकर किसानों का मनोबल बढ़ा रहे हैं। सरकार को जिद छोड़कर किसानो की बात मान लेनी चाहिए।

बदलते समीकरण को भारतीय जनता पार्टी भी भांप चुकी है। इसलिए अब उसने भी लोगों को साधने की कवायद शुरू कर दी है। हालांकि स्थानीय नेता किस तरह मजबूर हैं, यह उत्तर प्रदेश सरकार में गन्ना विकास एवं चीनी मिलों के मंत्री सुरेश राणा के बयान से समझा जा सकता है। उन्होंने कहा था, “मैं खुद किसान का बेटा हूं और मैं यही कहूंगा कि परिवार के साथ कभी शक्ति परीक्षण नहीं होता। मेरा केवल इतना कहना है कि यदि किसान संगठन कानून में सुधार या संशोधनों पर बात करेंगे तो निश्चित रूप से वार्ता आगे बढ़ेगी।”

पश्चिमी यूपी में भारतीय जनता पार्टी के एक नेता का कहना है, “स्थानीय स्तर पर स्थितियां काफी तेजी से बदली हैं। 26 जनवरी की घटना और राकेश टिकैत के भावुक होने के बाद काफी कुछ बदल गया है। यहां लोगों ने यह मान लिया है कि सरकार पूरी जाति पर हमला कर रही है। हालांकि मेरा मानना है कि यह प्रतिक्रिया तात्कालिक है, क्योंकि जितना काम मोदी सरकार ने किसानों के लिए किया है, उतना किसी और सरकार ने नहीं किया है।”

जिस दिन गाजीपुर बॉर्डर पर राकेश टिकैत रोए थे, उस दिन लोगों ने घरों में खाना तक नहीं बनाया। इसे लोगों ने अपने स्वाभिमान से जोड़ लिया है। अब इस गुस्से को कम करने के लिए भाजपा भी अपनी तरफ से कोशिश में लग गई है। पार्टी इसी महीने अपने नेताओं को पश्चिमी यूपी के गांव-गांव भेजेगी और चौपाल भी लगाएगी। सूत्रों के अनुसार, पार्टी की कोशिश है कि जाट समुदाय के अलावा गुर्जर, सैनी और सवर्णों को वह अपने साथ जोड़कर रखे। हालांकि यह कवायद कितनी कारगर होगी यह तो 2022 के विधानसभा चुनाव बताएंगे। उसकी थोड़ी झांकी आगामी पंचायत चुनावों में भी मिल सकती है। भाजपा की चुनौती को स्वीकारते हुए एक जाट नेता कहते हैं, “भाजपा ने यहां बूथ मैनेजमेंट कर काफी पकड़ बना ली है। किसान आंदोलन से बूथ स्तर पर भी पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा है। ऐसे में हमारी यही कोशिश है कि अगर सरकार अपने रुख पर अड़ी रही तो किसी भी हालत में यह आंदोलन खत्म न होने पाए। दूसरी बात, आंदोलन चाहे जितने दिन चले, उसे हिंसक नहीं होने देना है।”

साफ है कि किसान आंदोलन ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश की फिजा ही बदल दी है। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह बड़ी चुनौती बन गई है। इस बात का अहसास भाजपा के कम से कम स्थानीय नेताओं को तो हो गया है।

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