सब कुछ बड़ा-बड़ा करने वाले हिंदी उद्योग की दुनिया क्या वाकई खाली-खाली लगने लगी है। नया चाहिए, तो दक्षिण का रुख करना होगा। दक्षिण के फिल्म निर्माता अपने सितारों के साथ अच्छा काम करते दिख रहे हैं। ऑरमैक्स मीडिया के जुटाए आंकड़े तो यही बोल रहे हैं। कोई चाहे तो इसका खंडन कर सकता है। जनवरी से मार्च 2025 में होली और ईद तक देश में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली एकमात्र हिंदी फिल्म छावा थी। उस समय तक उसकी कमाई कमाई 691 करोड़ रुपये की थी। मराठा गौरव दिखाने वाली यह हिंदी फिल्म ऐतिहासिक तथ्यों के मामले में थोड़ी संदिग्ध है, लेकिन उसकी कहानी में कसावट थी। छावा के बाद, शीर्ष दस की कमाई में सिर्फ दो ही हिंदी फिल्में (मार्च तक) रहीं, स्काई फोर्स (130 करोड़ रुपये) और सिकंदर (122 करोड़ रुपये)। उनके अलावा कोई भी फिल्म टिकट खिड़की पर खरी नहीं उतरी। हालांकि अक्षय कुमार की स्काई फोर्स और सलमान खान की सिकंदर बड़े बजट की फिल्में थीं। सिकंदर का बजट 200 करोड़ रुपये के आसपास होने की अफवाह थी, लकिन उसकी कमाई सिर्फ 122 करोड़ रुपये ही हुई। ईद पर रीलीज हुई सिकंदर के बारे में हिंदुस्तान टाइम्स की 7 अप्रैल की रिपोर्ट में कहा गया, ‘‘सिकंदर ईद पर सलमान की सबसे कम कमाई वाली फिल्म तो नहीं, मगर निचले पायदान के करीब रही। अब बॉक्स ऑफिस पर उसकी कमाई घटकर एक अंक में आ गई है। सप्ताहांत के अलावा सिनेमाघर सिर्फ 8-9 प्रतिशत तक ही भरते हैं।’’
छावा में विकी कौशल
कमाई के लिहाज से बाकी सभी फिल्में दक्षिण भारत की रहीं, जिसमें तेलुगु की फिल्में ज्यादा थीं। संक्रांतिकी वस्तुनम, गेम चेंजर, डाकू महाराज और थंडेल कमाई में सबसे ऊपर रहीं। उनके बीच सिर्फ इकलौती मलयाली फिल्म एल2 : एमपुराण पहुंची। एल2: एमपुराण की कमाई 129 करोड़ रुपये हुई। यह अब तक की सबसे अधिक कमाई करने वाली मलयालम फिल्म है। सेंसर बोर्ड की कैंची चलने के बाद भी उसे दर्शकों की कमी नहीं रही। दो तमिल फिल्मों ड्रैगन और विदामुयार्ची ने भी इस सूची में जगह बनाई।
इन तथ्यों से लगता है, मुख्यधारा की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री फिलहाल अपने बनाए झमेले में ही उलझ कर रह गई है। लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। अब सुपरस्टार जोखिम उठाने से बचते हैं। फिल्म निर्माता बॉक्स-ऑफिस के हालात देख कर बजट बढ़ाने, फिल्मों को बेचने और वितरण के माकूल खेल की फिराक में सितारों की तलाश करते हैं। संक्षेप में, प्रचार और मार्केटिंग अहम हो गई है, यानी जो दिखता है, वही बिकता है। बेशक, कुछ अपवाद तो होते ही हैं। इस दलदल से दूर, ओटीटी की दुनिया है। ओटीटी में और भी बहुत कुछ है। छोटी फिल्में, अच्छे धारावाहिक, सीरीज। यहां नामचीन फिल्म निर्माताओं के अलावा भी बहुतों को जगह मिलती है। उसका एक दर्शक वर्ग है। वहां ऐसे लोग हैं, जो इन फिल्मों के लिए थिएटर में पैसे खर्च नहीं कर सकते हैं, लेकिन उन्हें घर पर देखकर खुश होते हैं।
एल2ः एमपुराण
2014 के बाद से हिंदी सिनेमा के पास सबसे बड़ा आइडिया हिंदुत्व और राष्ट्रवाद रहा है, घर में घुस के मारेंगे वगैरह-वगैरह। मुख्य रूप से अक्षय कुमार और विक्की कौशल ने यही बेचकर अपना करियर बनाया है। हालांकि वे अकेले नहीं हैं। उनमें कुछ की फिल्में चलती हैं, कुछ नहीं। छावा ऐसी ही फिल्म का उदाहरण है, जिसने अच्छी कमाई की। जैसा कि तानाजी-द अनसंग वॉरियर (2020) ने किया था, जो मराठा गौरव पर एक और फिल्म है जिसमें तथ्यात्मक गलतियां भरपूर हैं।
वितरण का खेल भी खास है। बड़े खिलाड़ी हमेशा ज्यादा से ज्यादा दायरे को घेरने और ‘छोटी’ फिल्मों को बाहर रखने की कोशिश करते हैं। छोटी फिल्मों को किनारे करने का मकसद न भी हो, तो यह खुद-ब-खुद हो जाता है। बड़े निर्माता तय करते हैं कि उनकी ही फिल्में लोगों को देखने के लिए उपलब्ध हों, जिससे बॉक्स-ऑफिस पर कमाई करने का अच्छा मौका मिले। यही वजह है कि ऐसी कहानियां आती हैं कि छोटी या ज्यादा बड़ी फिल्में न बनाने वाले निर्माता अपनी फिल्मों को तब रिलीज करने से बचते हैं जब बड़े सितारों की फिल्में शेड्यूल होती हैं।
दूसरा चमकदार नया आइडिया बासी या बिल्कुल भी नया नहीं है, यानी बड़े खलनायक की तलाश। वह खासकर पाकिस्तानी या अमूमन मुसलमान होता है। या फिर भारत विरोधी गतिविधि में लिप्त कोई भारतीय व्यापारी या नेता या कोई और। शायद जल्द ही चीन की ओर नजर घूम जाए, लेकिन उससे शायद “हिंदुस्तान की तबाही” कहलवाना थोड़ा मुश्किल हो।
दुर्भाग्य यह है कि फिल्मों का वक्त की (राजनैतिक) धारा के साथ चलने का यह चलन नया नहीं है। अपने दौर के नेहरूवादी समाजवाद के सपनों से जुड़ी राज कपूर और दिलीप कुमार की फिल्मों से लेकर, देव आनंद की अंडरवर्ल्ड से पहले की बड़े-शहरों की अपराध दुनिया, अमिताभ बच्चन की आजादी के वादे की नाकामी पर नाराजगी, उदारीकरण के बाद दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे से लेकर कुछ कुछ होता है तक, हमेशा ही फिल्में अपने राजनैतिक दौर का आईना रही हैं। आज, देश के सत्ता-प्रतिष्ठान में अति राष्ट्रवादी की धूम है, और पाकिस्तान नफरत का पर्याय है। हाल की घटनाओं के साथ लग रहा है कि यह जल्दी नहीं बदलेगा।
शाहरुख खान की पठान और जवान में भी भारत विरोधी इरादे वाले लोग खलनायक की भूमिका में थे। हमें जिस चीज की जरूरत है, वह है बदलाव। यह कोई अहमक ही सोचेगा कि निर्माता वितरण का खेल खेलना बंद कर देंगे या सितारे जोखिम लेना शुरू कर देंगे। बेशक, शाहरुख खान और आमिर खान ने ऐसा किया है, और ऐसा करना जारी रखते हैं, लेकिन उन्होंने भी कोई संकेत नहीं दिया है कि वे मलयालम सुपरस्टार ममूटी जैसे आगे बढ़ेंगे। यह ऐसा बदलाव होना चाहिए जो ओटीटी जैसे नए प्लेटफॉर्म से आगे का हो, जिसे 2021 के आइटी नियमों ने पर्याप्त नियंत्रित किया है। वह क्या है, कोई बता सकता है।
तानाजी- द अनसंग वारियर
मलयालम और तमिल सिनेमा ने खुद को फिर से गढ़ा है। इसलिए, जो फिल्में पूरी तरह फॉर्मूला वाली नहीं हैं, वे मुख्यधारा की हिट फिल्में बन गई हैं, जैसे कुंबलंगी नाइट्स, मिन्नल मुरली और मंजुम्मेल बॉयज। या फॉर्मूला वाली फिल्में डबल शिफ्ट करने के लिए बनाई जाती हैं, जैसे पा रंजीत की सरपट्टा परंबराई या वेत्रिमारन की असुरन। सबसे बड़ी तेलुगु और कन्नड़ फिल्मों ने फॉर्मूला को ऐसे तरीके से पेश किया है, जिस पर बॉलीवुड सिर्फ नकल कर सकता है, या उसमें भी फिसड्डी साबित हो सकता है।
इसके विपरीत, हमें दिनेश विजान की ओर देखना चाहिए, जो आज इंडस्ट्री में सबसे सफल निर्माता हैं। वे हर काम को बखूबी अंजाम देते हैं। वे छावा, स्त्री 2, मुंज्या लेकर आते हैं; वे बड़े सितारों और अपेक्षाकृत अज्ञात लोगों के साथ काम करते हैं, और कामयाब होते हैं। बॉलीवुड हंगामा के साथ एक इंटरव्यू में वे कहते हैं, “मुझे नहीं लगता कि दक्षिणी सिनेमा का ‘बोलबाला’ है। महामारी के बाद से, हिंदी फिल्म उद्योग ने काफी कामयाबी दिखाई है।” हमें उन्हें गंभीरता से लेना चाहिए। वे यह भी कहते हैं कि, ‘‘असल में मायने यही रखता है कि हम दर्शकों को कुछ नया और अनोखा क्या दे रहे हैं, ठीक वैसा ही जैसा इन फिल्मों ने दिया है। दक्षिणी फिल्मों और हिंदी फिल्मों को अलग-अलग देखने के बजाय, हमें उन्हें भारतीय फिल्म उद्योग के हिस्से के रूप में देखना चाहिए।’’ विजान कहते हैं कि, ‘‘महत्वपूर्ण यह है कि ऐसी कहानियां गढ़ी जाएं, जो विविध और व्यापक दर्शकों को पसंद आएं।’’
डाकू महाराजा
अंत में, सब कुछ अच्छी कहानी कहने पर निर्भर करता है। कांतारा के बारे में सोचिए। एक गैर-स्टार, गैर-हिंदी ब्लॉकबस्टर। या फहाद फासिल की आवेश जैसी स्टार फिल्म। या विजय सेतुपति की तमिल ब्लॉकबस्टर। विजय ऐसे अभिनेता हैं, जिसे हिंदी फिल्म निर्माता पसंद कर रहे हैं, भले ही वह टूटी-फूटी हिंदी बोलते हों। हिंदी फिल्म उद्योग न तो मरा है, न ही खत्म हो रहा है। लेकिन इसमें कुछ नयापन जरूर आना चाहिए।
सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्में जरूरी नहीं कि सबसे ज्यादा सफल हों। मेगा स्टार, खास तौर पर खान तिकड़ी के लिए जो चीज कारगर साबित होती है, वह है इंतजार। उन्होंने अपने प्रशंसकों को अगली रिलीज का इंतजार कराना शुरू कर दिया है- पठान और जवान का एक के बाद एक रिलीज होना अपवाद था, लेकिन यह कारगर रहा। शाहरुख खान ने 2018 में जीरो और 2023 में पठान के बीच सिर्फ स्पेशल अपीयरेंस वाली फिल्में की हैं। डंकी भी 2023 में ही आई है। इस साल के अंत में, हमें हाउसफुल 5, बागी 4, दे दे प्यार दे 2, जॉली एलएलबी 3, लव ऐंड वॉर और बॉर्डर 2 के साथ-साथ आमिर खान की सितारे जमीं पर का भी इंतजार है। शाहरुख खान की अगली फिल्म किंग है। पठान 2 भी जल्द ही रिलीज होने वाली है। सलमान खान की अगली फिल्में दबंग 4, टाइगर बनाम पठान और किक 2 हैं।
अंतहीन सीक्वल और फ्रैंचाइजी फिल्मों पर यह निर्भरता सुनने में काफी सुरक्षित लगता है। है न? तो, नया क्या है? लगता है सब खाली-खाली है।
(सम्या दासगुप्ता ने ऋत्विक घटक एन एंथोलॉजी ऑफ एसेज का संपादन और संयोजन किया है। विचार निजी हैं)