अगर उन्नीसवीं सदी में दुनिया के सबसे बड़े विचारक कार्ल मार्क्स हुए तो बीसवीं सदी के सबसे बड़े विचारक महात्मा गांधी माने गए। यह संयोग है कि इस वर्ष मार्क्स की दो सौवीं जयंती मनाई जा रही है तो महात्मा गांधी की 150वीं जयंती भी मनाई जा रही है। इन दोनों विचारकों ने दुनिया के तमाम लेखकों-कलाकारों को प्रभावित किया। साहित्य से लेकर फिल्म, चित्रकला और नाटकों में भी उनके जीवन को चित्रित किया गया।
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हर लेखक कहीं न कहीं गांधी से प्रभावित रहा और पूरे भारतीय साहित्य पर गांधी का असर देखा जा सकता है। लेकिन समय बीतने के साथ दुनिया के हालात जिस तरह बदले, उससे विश्व राजनीति में गांधीवाद और मार्क्सवाद दोनों की प्रासंगिकता को लेकर सवाल खड़े हो गए। शासक वर्ग ने भले ही दोनों नायकों को केवल पूजने भर का काम किया लेकिन हकीकत में उनके मूल्यों के विरुद्ध चलने का काम किया। अपने देश में गांधी की शारीरिक हत्या से लेकर वैचारिक हत्याएं की जाती रहीं, लेकिन साहित्यकार, कलाकार बार-बार गांधी से प्रेरणा प्राप्त करते रहे।
करीब चालीस साल पहले रिचर्ड एटनबरो ने गांधी पर ऐतिहासिक फिल्म बनाकर यही संदेश दिया। उसके बाद गांधी पर अनेक फिल्में बनीं। एटनबरो की फिल्म की तरह अंतरराष्ट्रीय ख्याति तो उन्हें नहीं मिली लेकिन हर फिल्म में गांधी के विभिन्न पहलुओं और प्रसंगों को लिया गया।
तीन दशक पहले नाटककारों ने गांधी के जीवन को रंगमंच पर उतारने की कोशिश की और हर नाटककार ने गांधी को अपनी दृष्टि से देखा। प्रसिद्ध नाटककार प्रसन्ना ने बाबरी मस्जिद की घटना के बाद बापू नाटक लिखा। उसके बाद उन्होंने हिंद स्वराज पर भी नाटक लिखा। इसके लिखने के क्रम में प्रसिद्ध समाजवादी नेता मधु लिमये और दार्शनिक रामू (रामचंद्र) गांधी जैसे लोगों ने दिलचस्पी दिखाई थी। रामू गांधी तो रिहर्सल देखने भी आते थे। प्रसन्ना का कहना है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना ने उन्हें इतना व्यथित किया कि उन्होंने गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को युवा पीढी में फैलाने के लिए यह नाटक लिखा। मराठी में 1997 में प्रदीप दलवी के नाटक मैं नाथूराम गोडसे बोल रहा हूं और प्रसिद्ध गुजराती लेखक दिनकर जोशी के उपन्यास पर आधारित महात्मा बनाम गांधी जैसे नाटकों ने धूम मचा दी और कई तरह के विवाद भी खड़े कर दिए।
हाल के वर्षों में अपनी विशिष्ठ पहचान बनाने वाले राजेश कुमार ने गांधी के जीवन-प्रसंगों को लेकर चार नाटक लिखे। इनमें गांधी और सांप्रदायिकता को लेकर गांधी ने कहा था तो ब्रह्मचर्य को लेकर मार पराजय नाटक लिखा, तो गांधी और वर्णाश्रम को लेकर आंबेडकर और गांधी और हिंद स्वराज के प्रकाशन के सौ साल होने पर एक नाटक हिंद स्वराज भी लिखा।
राजेश कुमार का कहना है कि प्रदीप दलवी ने अपने नाटक में गोडसे का जिस तरह महिमामंडन किया, उसका जवाब देने के लिए मुझे 1999 में गांधी ने कहा था नाटक लिखना पड़ा, क्योंकि सांप्रदायिकता के खिलाफ जिस तरह गांधी को लड़ना पड़ा, वैसी लड़ाई राष्ट्रीय आंदोलन के किसी नायक ने नहीं लड़ी। 2002 में हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और नाटककार नंदकिशोर आचार्य ने एक सोलो नाटक बापू लिखा, जिसका निर्देशन जाने-माने निर्देशक भानु भारती ने किया था। यह नाटक इतना चर्चित हुआ कि भानु भारती ने इसे अंग्रेजी में भी मंचित किया। असगर वजाहत ने दस साल पहले गांधी पर एक नाटक लिखा, गोडसे @गांधी.काम। इसमें टॉम आल्टर ने खुद भूमिका निभाई और यह इतना चर्चित हुआ कि इसे कन्नड़ में भी मंचित किया गया।
नंदकिशोर आचार्य का कहना है कि गांधी के जीवन के इतने आयाम हैं कि उन्हें किसी एक नाटक में नहीं बांधा जा सकता है। “मैंने गांधी के जीवन के अंतिम दिनों को अपने नाटक का आधार बनाया जब गांधी बिलकुल अकेले हो गए थे और उन्हें विभाजन की गहरी तकलीफ झेलनी पड़ी।”
असगर वजाहत का कहना है कि मैंने गांधी और गोडसे के अंतर्संघर्ष को दिखाया है लेकिन मेरे नाटक में दोनों के बीच पतली-सी धार है और अगर निर्देशक उसे संतुलित नहीं कर पाया तो गोडसे के पक्ष में नाटक दिखाई पड़ सकता है। पिछले दिनों इलाहाबाद में इस नाटक को लेकर विवाद हो गया और कई लोगों ने शिकायत की कि इस नाटक में कांग्रेस की निंदा की गई और गोडसे को नायक बनाने का प्रयास किया गया है, लेकिन यह नाटक वास्तव में सांप्रदायिकता और विभाजन को लेकर गांधी और गोडसे के बीच वैचारिक संघर्ष को चित्रित करता है।
हर नाटककार के अपने-अपने गांधी हैं। प्रसिद्ध नाटककार एम.के. रैना ने भी गांधी पर तीन नाटक किए, जिनमें एक नाटक तो गांधी और टैगोर को लेकर है। रैना का कहना है कि गांधी और टैगोर के बीच पत्राचारों को लेकर यह नाटक मैंने अंग्रेजी में तैयार किया था। इसके अलावा हत्या एक आकार की का मंचन अक्तूबर में किया, जो ललित सहगल के हिंदी में लिखे नाटक पर है।
पिछले सप्ताह रैना का नाटक बावला और बापू @साबरमती.काम और पत्रकार रंगमंच समीक्षक रवींद्र त्रिपाठी का पहला सत्याग्रही चर्चा में रहा। रैना का नाटक इस दृष्टि से अनूठा और दिलचस्प है कि उसमें बच्चों की दृष्टि से गांधी को देखा गया है। रैना का कहना है कि यह नाटक नारायण देसाई की गुजराती में लिखी गई संस्मरणात्मक किताब बापू की गोद में पर आधारित है। इस पर तो आज तक किसी का ध्यान ही नहीं गया कि बच्चों की दृष्टि से भी गांधी को देखा और जाना जा सकता है। नारायण देसाई खुद गांधी की गोद में पले-बढे़। इस नाटक को एनएसडी की संस्कार रंग टोली ने तैयार किया है।
इस तरह देखा जाए तो नाटकों की दुनिया में गांधी को लेकर विमर्श तेज हो गया है और गांधी को किस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, यह सवाल खड़ा हो गया है। रवींद्र त्रिपाठी का कहना है कि मैंने तुलसी के राम की तरह इस नाटक में गांधी को पेश किया है यानी गांधी जैसे हैं उसी रूप में। लेकिन यह प्रश्न उठता है कि क्या तुलसी के राम वही हैं जो रामचंद्र शुक्ल के राम थे या राम की शक्ति पूजा में निराला के राम थे या निराला की राम की शक्ति पूजा की व्याख्या में रामविलास शर्मा के राम थे। दरअसल, सबके अपने राम की तरह सबके अपने गांधी भी हैं। सुरेश शर्मा निर्देशित पहला सत्याग्रही में गांधी के साथ न तो नेहरू, न आंबेडकर, न पटेल, न मौलाना आजाद, न राजेंद्र प्रसाद और न भगत सिंह को दिखाया गया है।
यह नाटक दरअसल प्यारेलाल और महादेव देसाई की दृष्टि से देखे गए गांधी की कहानी है। यह नाटक मोहनदास के गांधी बनने की प्रक्रिया की कथा है। इसलिए यह नाटक डाक्यूमेंट्री-ड्रामा अधिक है। सुरेश शर्मा ने काफ्का में जो नाटकीय तनाव और शिल्पगत सौंदर्य पैदा किया था, वह इसमें कम दिखाई देता है। लेकिन नई पीढ़ी को ये दोनों नाटक जरूर देखने चाहिए ताकि गांधी को जिस तरह सांप्रदायिक ताकतें गलत पेश कर रही हैं, उसे समझा जा सके।
संस्कार रंग टोली के प्रमुख अब्दुल लतीफ खटाना स्कूलों में रैना के नाटक को दिखा रहे हैं। सुरेश शर्मा का भी कहना है कि वे इस नाटक को अन्य शहरों में करेंगे। क्या महात्मा गांधी के 150वीं जयंती वर्ष में इन नाटकों से नई पीढ़ी उस गांधी का साक्षत्कार करेगी, जिन्हें हमारी चुनावी राजनीति आज भी कुचल रही है। लगता है, अब भारतीय लोकतंत्र को बचाने के लिए चुनाव में खड़े गांधी नाटक लिखने की जरूरत है जिसे शम्भु मित्र, इब्राहम अलकाजी, हबीब तनवीर जैसा कोई बड़ा नाटककार मंचित करे, तो अधिक बड़ा संदेश समाज में जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, कवि और समीक्षक हैं)