उन रंगा-रंग छवियों पर गौर करें, जो तीसरे महीने और लगभग डेढ़ हजार किलोमीटर के सफर के बाद भी भारत जोड़ो यात्रा जैसे विविध रंगों, भावों, संवेदनाओं को बटोरती चल रही है। हर दिन उसमें कुछ जोड़ता, उसकी कुछ भव्यता में इजाफा करता जाता है। अलग-अलग भावों, संवेदना, रंगों के साथ बच्चे-बच्चियों, स्त्री-पुरुषों का हुजूम बतियाता, इशारे करता, चहलकदमी करता, कई बार दौड़ता चलता है। जैसे मेले में हर रोज कोई नया हुनर पेश करने वाला जुड़ता जाए और उसका आकर्षण और आकार विशाल करता जाए। कहीं नुक्कड़ नाटक सड़क पर खेला जाता है, कहीं नृत्य, कहीं पारंपरिक वेश-भूषा में देशज कलाओं के वाहक अपने ऊपर कोड़े बरसाते हैं। बेशक, कुछ दुखों को साझा करने की छवियां भी उभरती हैं। लेकिन, तमिलनाडु में कन्याकुमारी से शुरू होकर केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना से होकर अब महाराष्ट्र की धरती पर पांव रख चुकी इस यात्रा में जैसे हर प्रदेश के अलग-अलग रंगों, विविध लोगों-लोकाचार को अपने में समाहित करने का जोश दिलचस्पी जगाता है। बढ़ता हुजूम जैसे विभिन्न रंग-रुचियों को अभिव्यक्त करने की, अपनी दबी-ढंकी भावनाओं को उजागर करने का मौका पा गया हो। जाहिर है, यह सब यात्रा के नायक, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष तथा नेहरू-गांधी खानदान के वारिस राहुल गांधी के इर्द-गिर्द ही होता है और वे भी ऐसे पेश आते हैं, जैसे हर रंग में घुल जाना चाहते हों, हर संवेदना, भाव को अपने अंदर समेट लेना चाहते हों।
यह स्नेह ही राहुल गांधी की यात्रा का हासिल है
सफर बढ़ता जाता है और मेले-ठेले जैसा माहौल निखरता जाता है। संभव है, कुछेक का आयोजन भी किया जाता हो क्योंकि आजादी के पहले संघर्ष और उसके बाद के वर्षों में सत्ता में रही कांग्रेस के लिए यह सब नामुमकिन भी नहीं होना चाहिए। लेकिन आयोजन ज्यादातर एकांगी होकर रह जाते हैं। उनमें विविधता नहीं होती, या होती भी है तो ऊबाऊ हो जाती है। मेले का भाव और रंग तो स्वत:स्फूर्त ही उभरता है। तो, क्या यह यात्रा कुछ नई दिलचस्पी जगा रही है? क्या वह कथित तौर पर ‘नफरत छोड़ो, भारत जोड़ो’ और ‘अनेकता में ही भारत का दिल बसता है’ जैसा अपना संदेश देने में कामयाब हो रही है? या फिर कांग्रेस और राहुल गांधी में नया भरोसा जगा रही है? कहना जल्दबाजी भी है और मुश्किल भी।
अक्सर कहा जाता है कि भारत उत्सवधर्मी लोगों का देश है और यहां के लोग उत्सव, मेले-ठेले का कोई मौका गंवाना नहीं चाहते। शायद ज्यादा व्यंजना और थोड़ी अभिधा में कही गई यह वक्रोक्ति है। वैसे, उत्सव मनुष्य-मात्र का बुनियादी स्वभाव है, लेकिन उत्सवधर्मिता का प्रयोग उसे कुछ अगंभीर बताने के लिए होता है। यानी जो उत्सव में दिख रहा है, वह अस्थायी है और स्थायी भाव तो कुछ और है। मगर स्थायी भाव भी देश-काल से मुक्त नहीं होता और अपने ही देश में इसके राजनैतिक फलितार्थ देखे जा चुके हैं। मसलन, भारत जोड़ो यात्रा के आयोजन पर राहुल गांधी हर रोज शाम की सभाओं और पत्रकारों से बातचीत में कहते हैं, ‘‘देश की मूल भावना सबको साथ लेकर चलने, भाईचारे वाली है। महात्मा गांधी की, कांग्रेस की भावना यही है। भाजपा और संघ परिवार की भी एक भावना है, जो इसके उलट है और जो नफरत, बदले पर आधारित है, जाति, धर्म के नाम पर भाईचारे में फूट डालने की है। अभी सत्ता और सभी संस्थाओं पर उसी भावना का कब्जा हो गया है। भारत जोड़ो यात्रा देश की असली भावना का प्रदर्शन कर रही है।’’
वे बार-बार यह भी बता रहे हैं कि ‘‘आज देश में विपक्ष के पास अपनी बात कहने की कोई जगह नहीं बची है। मीडिया में आपकी बात आ नहीं सकती। संसद में आप सवाल करना चाहोगे तो बाहर फेंक दिए जाओगे। संवैधानिक संस्थाओं में आपकी बात सुनी नहीं जाएगी तो अपनी बात पहुंचाने का सड़क ही एक जरिया बचता है।’’ और सड़क पर भी लंबी पैदल यात्रा से बढ़कर कोई असरकारी उपाय नहीं है, जो लोगों को सीधे छुए, उनसे संवाद स्थापित करे, उनकी भावनाओं, उनके दुख-सुख को समझे और उसके अनुसार अपनी राजनीति में तब्दीली करे, बशर्ते ऐसी मंशा हो।
इसी मंशा पर खासकर भारतीय जनता पार्टी के नेता-कार्यकर्ता सवाल उठाते हैं। उनके वाजिब सवाल हैं कि यह आयोजन 2024 के लोकसभा चुनावों के पहले ही क्यों है और ऐसे दौर में क्यों है जब दूसरी, खासकर कई ताकतवर क्षेत्रीय पार्टियां अपने गठबंधन में कांग्रेेस की जगह नहीं देखती हैं? भाजपा के नेता यह भी कहते हैं कि कांग्रेस पहले ही हार मान चुकी है, वरना राहुल की यात्रा विधानसभा चुनाव वाले राज्यों हिमाचल प्रदेश और गुजरात (हिमाचल में 12 नवंबर और गुजरात में 1 तथा 5 दिसंबर को मतदान है और दोनों के नतीजे 8 दिसंबर को आएंगे) में नहीं की जाती, जहां कांग्रेस ही मुख्य मुकाबले में है। यह सवाल कई लोगों के जेहन में है और खासकर पत्रकारों की जिज्ञासा का भी केंद्र बना हुआ है।
हालांकि यात्रा का रूट सोच-समझकर ही तय किया गया लगता है। यानी जहां अभी भी कांग्रेस का आधार और संभावनाएं मजबूत हैं, उसमें और लहर पैदा किया जाए। दक्षिणी राज्यों में भाजपा या उसकी विचारधारा का आकर्षण कम है और कांग्रेस का आधार कायम है, तो उस पर ज्यादा ध्यान दिया गया। तेलंगाना और कर्नाटक में भाजपा कुछ बढ़ी है तो यात्रा सबसे ज्यादा वहीं खिली। उसके बाद महाराष्ट्र और पंजाब में यात्रा लंबे समय तक रहेगी, ताकि अपने आधार में लहर पैदा की जाए। उत्तर और मध्य या पश्चिम के राज्यों में भाजपा का जोर ज्यादा है तो उनमें ज्यादा समय नहीं दिया जाने का फैसला दिखता है। फिर भी, वाजिब सवालों के जवाब पूरे नहीं मिलते।
राजनैतिक या अराजनैतिक
कांग्रेस के नए मीडिया प्रभारी और भारत जोड़ो यात्रा के संयोजक जयराम रमेश के पास इसका जवाब यही है कि ‘‘यह सवाल यात्रा के मूल मकसद से भटकाने के लिए उठाया जा रहा है। इसका चुनावी राजनीति से संबंध नहीं है, बल्कि देश में नफरत का माहौल खत्म करना और बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी, महंगाई, बेरोजगारी के खिलाफ आवाज उठाना यात्रा का मूल लक्ष्य है।’’ राहुल भी इन सवालों पर ऐसा ही कुछ कहते हैं। तो, क्या इस यात्रा का वाकई व्यावहारिक राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है? राहुल का जवाब है, ‘‘बिल्कुल लेना-देना है। यात्रा राजनैतिक, विशुद्ध राजनैतिक है, लेकिन यह राजनीति देश में भाजपा और संघ परिवार की फैलाई नफरत तथा आर्थिक लूट की हिंसा के बदले देश की असली भावना के प्रदर्शन की है। और इसे आम लोगों से बेहतर कोई नहीं कर सकता, जो इस यात्रा में दिख रहा है।’’
बेशक, मुद्दों को उठाने और लोगों को बहस में भागीदार बनाने का यह तरीका हो सकता है। जैसा कि राहुल कहते भी हैं, “हम लोगों की सुनते ज्यादा हैं, दिन भर सुनते हैं और अपनी बात सिर्फ शाम को 10-15 मिनट ही कहते हैं।’’ लेकिन राजनैतिक दल का काम अपना आधार कायम करना, संगठन खड़ा करना और चुनावों में जीतकर सत्ता हासिल करना भी होता है, बशर्ते वह सत्ता-सुख में सुध-बुध न खो बैठे। हालांकि ज्यादातर देखा यही जाता है कि सत्ता में पहुंचने पर सारे विचार धरे रह जाते हैं और सत्ता को बनाए रखने की साजिशों के सूत्र खुलने लगते हैं। मान भी लें कि राहुल या मौजूदा कांग्रेस का यह इरादा नहीं है तो उसके संगठन और चुनावी तैयारियों पर सवाल तो उठते ही हैं।
पार्टी ग्राफ और मनोबल
इन्हीं सवालों पर कांग्रेस की कोई तैयारी नजर नहीं आती है। 2014 और उसके बाद लोकसभा और विधानसभा के कई चुनाव हार कर पार्टी अपना काफी कुछ गंवा बैठी। उसकी सीटें घटीं, वोट हिस्सेदारी गिरती गई। वह असम, कई पूर्वोत्तर राज्यों, महाराष्ट्र, हरियाणा वगैरह में काफी घट गई, जहां भाजपा किसी भी कीमत पर उसकी बराबरी के लायक नहीं थी। कांग्रेस के नेता भाजपा की ओर टूटकर जाते गए। हालांकि 2015 में भूमि अधिग्रहण संशोधन के अध्यादेश के विरोध से फिर कांग्रेस में कुछ जान लौटी। राहुल ने भी संसद में ‘सूट-बूट की सरकार’ का नारा उछालकर खुद अपने और अपनी पार्टी के लिए कुछ उत्सुकता जगाई। सत्तारूढ़ भाजपा और उसके सहयोगियों के खिलाफ सरकार-विरोधी भावनाएं परवान चढ़ने लगीं तो पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में पार्टी जीती, कर्नाटक में जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बनाई और गुजरात, हरियाणा में वह कुछ ही सीटों से पीछे रह गई। इसी दौर में राहुल ने पार्टी अध्यक्ष पद की कमान संभाली। गुजरात में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, अल्पेश ठाकोर जैसे आंदोलनकारी युवा नेताओं को जोड़ने की राहुल की पहल का अच्छा लाभ मिला। यह अलग बात है कि कर्नाटक और मध्य प्रदेश में ऑपरेशन लोटस चला और कांग्रेस में टूट करवाकर सरकारें भाजपा की हो गईं।
2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पिछले चुनाव में 44 सीटों के मुकाबले 55 सीटें ही हासिल कर पाई। उसका वोट प्रतिशत तो लगभग 19 फीसदी के आसपास ही रहा मगर हार की जिम्मेदारी लेकर राहुल के अध्यक्ष पद से इस्तीफे के बाद जैसे कांग्रेस में अफरातफरी मच गई। सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभालती रहीं, लेकिन पार्टी में असली कमान राहुल और प्रियंका गांधी की जोड़ी के जिम्मे ही बनी रही। सोनिया गांधी के राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल की कोविड-19 महामारी के दौरान मौत के बाद पुराने कांग्रेसी नेताओं से जैसे आलाकमान का संपर्क ही टूट गया। राहुल और प्रियंका की फेहरिस्त में पुराने नेता बस वे ही बने रहे, जो नेहरू-गांधी परिवार के लिए वफादार थे। इन्हीं नेताओं ने गुलाम नबी आजाद की अगुआई में पार्टी अध्यक्ष और संगठन के चुनाव कराने के लिए जुलाई 2021 में चिट्ठी लिखी। यह गुट जी-23 कहलाया।
भाई-बहन की जोड़ी की पहल से कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान पंजाब में झेलना पड़ा, जहां चुनाव के ऐन पहले नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष और फिर कैप्टन अमरिंदर सिंह के बदले चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला भारी पराजय का सबब बना। उसका नतीजा यह भी हुआ कि आम आदमी पार्टी (आप) की भारी बहुमत से पंजाब में सरकार बन गई। इससे उत्साहित आप अब हिमाचल प्रदेश और गुजरात में तीसरा कोण बनाने की कोशिश कर रही है और कांग्रेस के वोटों में सेंध लगाने की मंशा पाले हुए है। गुजरात में अल्पेश ठाकोर तो पहले ही भाजपा के पाले में जाकर मंत्री बन गए। कांग्रेस में प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए हार्दिक पटेल भी भाजपा की ओर चले गए। अब केवल जिग्नेश बचे रह गए हैं।
संपर्क का संकट
अभी तक राहुल गांधी और पार्टी की कार्यशैली पार्टी का मनोबल उठाने में नाकाम रही है। कांग्रेस को लंबे समय से कवर करती रहीं वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, “राहुल और उनकी बहन प्रियंका की भी दिक्कत यह है कि वे पुराने नेताओं के सामने सहज नहीं हो पाते और जिन युवाओं या नए नेताओें को खड़ा करते हैं, उनमें पूरा जज्बा पैदा नहीं कर पाते। हालांकि असली समस्या अनुभवहीनता से भी बढ़कर निरंतर संपर्क में न रहने की है। मुद्दों की पहचान और व्यावहारिक राजनैतिक समझ निरंतर संपर्कों से तैयार होती है।’’
तो, क्या भारत जोड़ो यात्रा मुद्दों की पहचान और संपर्कों को व्यापक करने में कामयाब हो रही है? सूत्रों के मुताबिक, राहुल के साथ चल रही करीब 100 युवा कांग्रेसियों की टोली में नए नेता तैयार हो रहे हैं। जगह-जगह कार्यकर्ताओं को भी जोड़ने के बारे में जयराम रमेश की टीम बात कर रही है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि नए कार्यकर्ताओं और सदस्यों को जोड़ने का कोई अभियान चल भी रहा है या नहीं। दरअसल आजादी के पहले पदयात्राओं और आंदोलनों के दौर में महात्मा गांधी की टीम बाकायदा नए सदस्य बनाती चलती थी और उनसे सीधे संपर्क में रहती थी। बाकी पार्टियां और राजनैतिक धाराएं अपने राजनैतिक कामों के दौरान काडर तैयार करने का यह तरीका अपनाती रही है। संभव है, इस यात्रा के दौरान भी यह हो रहा हो।
पार्टी का नया नेतृत्व
खैर! अब कांग्रेस में सांगठनिक चुनाव के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे नए अध्यक्ष हैं और लंबे समय बाद गांधी परिवार से इतर कोई पार्टी प्रमुख बना है। उसके पहले राजीव गांधी की मृत्यु के बाद सोनिया की सहमति से पी.वी. नरसिंह राव पार्टी अध्यक्ष और बाद में प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने गांधी परिवार की उपेक्षा शुरू कर दी थी। 1996 के आम चुनावों में हार के बाद सीताराम केसरी भी अध्यक्ष बने तो सोनिया गांधी को उनसे जबरन अध्यक्ष पद हथियाना पड़ा था। उसके बाद पार्टी में कभी चुनाव नहीं हुए। कांग्रेस कार्यकारिणी का आखिरी बार चुनाव 1992-93 में ही हुआ था। इस बार भी शशि थरूर की चुनौती को तोड़ने के लिए आखिरी मौके पर खड़गे को लाया गया। 82 वर्ष के खड़गे छात्र जीवन से ही कांग्रेस की राजनीति कर रहे हैं और 2019 का लोकसभा चुनाव छोड़कर लगातार जीतते रहे हैं। फिर, वे दलित जाति के भी हैं। तो, क्या खड़गे अपने फैसलों में गांधी परिवार की सहमति के बिना कुछ करेंगे? यह सवाल भविष्य के गर्भ में है, लेकिन फिलहाल ऐसे कोई संकेत नहीं हैं। उन्होंने हाल में पार्टी के फैसले के लिए जो स्टीयरिंग कमेटी बनाई, उसमें ऐसे किसी नेता को जगह मुश्किल ही मिली है जिसका कहीं कोई जनाधार है। वही चेहरे हैं, जो गांधी परिवार से अपनी चमक पाते रहे हैं। जी-23 के नेताओं में शामिल हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा आउटलुक से कहते हैं, नए अध्यक्ष अनुभवी हैं, अभी उन्हें कुछ समय देना चाहिए।
इस जमात में राहुल भी हुए शामिल
मुद्दों का मामला
बहरहाल, जहां तक मुद्दों की बात है तो भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल इसकी कुछ विस्तार से व्याख्या भी करते हैं और बताते हैं, “आरएसएस और संघ परिवार स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू, भगत सिंह, डॉ. भीमराव आंबेडकर जैसे महापुरुषों के विचारों से निकले भारत विचार, जो इस देश का मूल विचार भी है, को अपनी नफरत के विचार से पलटना चाहता है। और सरकार में नरेंद्र मोदी देश का, जनता का पैसा लूटकर अपने एक-दो दोस्त पूंजीपतियों के हवाले कर रहे हैं। इसके लिए वे देश की संपत्तियों को बेचने और लोगों पर महंगाई तथा गब्बर सिंह टैक्स (जीएसटी) का बोझ डालकर पैसा अपने दोस्तों के हवाले कर रहे हैं।“ स्थानीय मुद्दों पर भी वे मुखर हैं। जैसे, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में वे भाजपा के साथ जगनमोहन रेड्डी की वाइएसआर कांग्रेस और के. चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस पर भी हमलावर रहे। उन्होंने व्यापक विपक्षी एकता के बारे में बस इतना कहा कि यह फैसला तो पार्टी को लेना है।
संभव है, और कुछ हलकों में यह अंदाज भी लगाया जा रहा है कि राहुल का अंदाज एक नई राजनैतिक संस्कृति खड़ा करने का हो सकता है। मसलन, गुजरात के मोरबी में पुल के बैठ जाने से तकरीबन 150 लोगों की मौत की घटना पर उन्होंने कुछ भी बोलने से इनकार दिया। इस सवाल पर वे बोले, मैं इस घटना का राजनीतिकरण नहीं करना चाहता।
पार्टी में सत्ता का खेल
कांग्रेस के झमेले इतने ही नहीं हैं। अपने बूते पार्टी की दो राज्यों छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ही सरकार बची है, जहां अगले साल मध्य प्रदेश, तेलंगाना जैसे राज्यों के साथ चुनाव होने हैं। दोनों ही राज्यों में कलह और टकराहटें कायम हैं। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और वरिष्ठ नेता टी.एस. सिंहदेव के बीच पचड़ा फंसा है। राजस्थान में तो अशोक गहलोत ने गजब की जादूगरी दिखाकर सचिन पायलट को दोबारा नेता पद हासिल करने के मौके से वंचित कर दिया, जो शायद आलाकमान की चाहत थी। इस तरह उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बदले मुख्यमंत्री बने रहने का विकल्प चुना। गहलोत ने राजस्थान में अडाणी समूह को न्यौता देकर राहुल के याराना पूंजीवाद पर हमले में एक नया राग छेड़ने पर मजबूर कर दिया। हाल में राजस्थान-गुजरात सीमा पर आदिवासी स्मारक स्थल पर उनकी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुलाकात भी चर्चा में रही।
छवि का सवाल
यानी भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस में तो कोई खास फर्क या उत्साह के कोई संकेत अभी तक नहीं मिल रहे हैं। इतना जरूर है कि यात्रा और राहुल पर भाजपा के वार में अब धार नहीं दिख रही है। भाजपा आइटी सेल की कुछ कारगुजारियां भी वैसा असर नहीं पैदा कर पा रही हैं। तो, क्या राहुल एक नई छवि तैयार कर सकेंगे? और खासकर गांधी परिवार के ऐसे नेता बन पाएंगे, जो देश भर में अपनी अपील कायम कर सके और पार्टी उम्मीदवारों के चुनाव जीतने में मददगार बन सके। दरअसल यह भी एक वजह है कि कांग्रेस से नेता टूटते जा रहे हैं। उन्हें दरअसल भरोसा नहीं रह गया है कि गांधी परिवार का कोई जितवा सकता है। राहुल अगर वह करिश्मा पैदा कर लेते हैं तो वाकई बड़ी सफलता होगी।
राहुल के प्रति संवेदना या सहानुभूति की झलक यात्रा में भी मिलती है। थोड़ी देर के लिए यात्रा में शामिल हुए वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने उन्हें नेक आदमी बताया। राहुल ने यह कई बार कहा कि यात्रा में सब एक-दूसरे के सहयोगी हैं, कोई गिरता है तो सैकड़ों हाथ उसे उठाने को दौड़ पड़ते हैं। शुरू से यात्रा में शामिल सेवा दल के वरिष्ठ साथी 75 वर्षीय कृष्ण कुमार पांडेय का 8 नवंबर को महाराष्ट्र के नांदेड़ के पास दिल के दौरे से निधन हो गया तो यात्रा रोक दी गई। जाहिर है, ऐसी भावनाएं शायद लोगों को भी छू रही होंगी और राहुल को भी बदल रही होंगी। अब राहुल कितने बदलते हैं, उनके सोच-समझ में कितना परिष्कार होता है और लोगों में वे कैसी छवि बना पाते हैं, इसकी परीक्षा जल्दी ही होगी, यकीनन 2024 के आम चुनावों में।
मिलना, जुड़ना, चलना: भारत जोड़ो यात्रा के कुछ प्रेरक प्रसंग
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बारे में इतने निजी प्रसंग सामने आ रहे हैं कि इन सबको समेटना संभव नहीं है। इस यात्रा की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की यात्रा के साथ की जा रही है। यह कोई संयोग नहीं है। समाज की स्मृतियां बरसों बरस जीवित रहती हैं, केरल के एर्नाकुलम की रोजलिन इसका जीता जागता उदाहरण हैं।
एर्नाकुलम से अरूर के रास्ते में जनता दल का बैनर लिए कुछ लोग खड़े थे। बैनर पर चंद्रशेखर और जेपी की फोटो थी। उन्हें जब पता चला कि उत्तर प्रदेश के बलिया से भी कांग्रेस जन यात्रा में आए हैं उनमें से जो पुराने थे, वे बलिया से आए कार्यकर्ताओं से गले मिले। इनमें एक नेल्सन थे, जो जनता दल के जिला महासचिव हैं। उन्होंने बलिया के कांग्रेस नेता शाहनवाज आलम को अपनी बहन रोजलिन के बारे में बताया कि वे भी चंद्रशेखर के प्रचार में बलिया जाती थीं। रात को रोजलिन का फोन आया। वे 1983 में चंद्रशेखर के कन्याकुमारी से दिल्ली तक की पदयात्रा में अकेली महिला पदयात्री थीं। अगले दिन रोजलिन भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हुईं।
रोजलिन चंद्रशेखर की पदयात्रा से जुड़े कई दस्तावेज, चंद्रशेखर द्वारा इनको लिखे गए पत्र और पुराने अखबार लाई थीं। जब तक चंद्रशेखर जिंदा रहे, वे उनके चुनावों में बलिया आती रहीं। उनका कहना था कि हजारों किताबें पढ़ कर भी वह ज्ञान नहीं मिलता जो ऐसी पदयात्राओं से मिलता है। शाहनवाज आलम ने उनका एक वीडियो इंटरव्यू अपने फेसबुक पर डाला है।
यात्रा आगे बढ़ी तो कर्नाटक के एक गांव से गुजरते हुए अचानक एक महिला हाथ में दो खीरे लिए राहुल गांधी से मिलने के लिए आई। दरअसल, यात्रा में पैदल चलते हुए राहुल गांधी ने गौर किया कि एक बुजुर्ग महिला सड़क के किनारे हाथ में दो खीरे लिए खड़ी है और शायद कुछ कहना चाह रही है। राहुल ने महिला को पास बुलाया और पूछा कि क्या मामला है। वृद्धा ने दोनों खीरा राहुल गांधी को थमा दिया और कहा कि ये मैंने अपने उस खेत में उगाए हैं जो मुझे इंदिरा गांधी की वजह से मिला था। उन्होंने बताया कि जब इंदिरा प्रधानमंत्री थीं तब उन्होंने भूमि सुधार लागू किया था, जिसके चलते वह खेत इस दलित महिला को मिला था। आज वही खेत उसके परिवार का सबसे बड़ा सहारा और जमा पूंजी है। महिला बोली- ये खीरे उसी खेत के हैं, आपको देने के लिए मेरे पास यही सबसे कीमती तोहफा है!
यह कहते हुए उसकी आंख भर आईं। माहौल गमगीन हो गया। राहुल गांधी भी भावुक हुए और महिला को गले लगा लिया। इस प्रसंग का जिक्र पत्रकार कृष्णकांत ने किया है।
आंध्र प्रदेश में यात्रा के प्रवेश करने के बाद थोड़ा सांस लेने के लिए कुछ दिन यात्री रुके तो राहुल गांधी ने लोगों से बैठ कर फुरसत से बात की। यहां एक महिला ने राहुल गांधी से कहा कि लोगों की मांग है कि वे यात्रा के दौरान अपनी दाढ़ी न बनवाएं। सबकी तरफ से यह मांग लेकर वे राहुल के पास आई हैं। राहुल गांधी ने पूछा, बिलकुल भी नहीं? महिला ने कहा, हां। राहुल मुस्कुरा दिए। उसके बाद से राहुल गांधी ने दाढ़ी नहीं कटवाई।
यात्रा थोड़ा और आगे बढ़ी तो राहुल गांधी के साथ एक ऐसा व्यक्ति दिखा जिसकी एक टांग नकली थी। यह युवक कभी एक बेहतरीन कबड्डी खिलाड़ी हुआ करता था लेकिन एक दुर्घटना के कारण उसकी एक टांग काटने की नौबत आ गई थी जिसका खर्च उठाना इसके वश की बात नहीं थी। युवक ने इस बारे में राहुल गांधी को एक चिट्ठी लिखी। राहुल ने उसके इलाज का पूरा खर्चा उठाया। यह व्यक्ति 7 अक्टूबर को अपनी नकली टांग के सहारे भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हुआ और राहुल के साथ चला। ये दोनों कहानियां हमें साध्वी मीनू जैन के पास से मिलीं।
सिर्फ गरीब-गुरबा, दलित, नौजवान ही नहीं बल्कि वे लोग भी राहुल गांधी से मिलने पहुंच रहे हैं जिन्हें इस समाज के विवेक का पहरेदार माना जाता है। इन्हीं में एक शख्स थे फिल्मकार सईद अख्तर मिर्जा, जो अस्सी साल की उम्र के बावजूद भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हुए। उनका वीडियो पत्रकार अन्ना वेट्टिकाड ने इंस्टाग्राम पर डाला है। सईद अख्तर मिर्जा को सबसे ज्यादा ‘सलीम लंगड़े पे मत रो’ के लिए जाना जाता है लेकिन उन्होंने खुद राहुल को अपनी बनाई फिल्म ‘नसीम’ देखने की सलाह दी। वीडियो में मिर्जा कहते हैं कि राहुल गांधी बहुत समझदार और पढ़े-लिखे इंसान हैं और उन्हें यह लगता है कि देश में जैसी नफरत बढ़ रही है, उन्हें पैदल यात्रा पर निकलना ही था। मिर्जा ने राहुल को ‘नसीम’ की कहानी सुनाई और बताया कि यह फिल्म भी नफरत के बढ़ते ज्वार के इर्द गिर्द रची गई है। राहुल गांधी ने उनसे ‘नसीम’ देखने का वादा किया है।
वरिष्ठ समाजवादी चंचल ने जिस वाकये का जिक्र अपने फेसबुक पर किया है उससे भारत के असल चरित्र को समझने में मदद मिल सकती है। वे लिखते हैं: पदयात्रियों का जन सैलाब, उनके उत्साहित चेहरे, “वाइड ऐंगल“ में हैं। “लॉंग शॉट“ में फुटपाथों पर थके बैठे पदयात्री, इंसान की बनाई तमाम जंजीरों को तोड़ कर एक दूसरे से बतिया रहे हैं। झुर्रियों से भरा एक हाथ आगे बढ़ता है: ‘नी तन्नीर कुलिपाया?’
पंजाब मुस्कुराया। पानी के लिए पूछ रही है। ‘हो मासी!’ बोलते हुए सरदार ने मासी को अपनी दोनों बांहों में ले लिया। एक बूढ़ी काया सरदार से चिपट गई। मिठाई का डिब्बा खुल गया। हिंदी, उर्दू, तमिल, पंजाबी एक डिब्बे में। झुर्रियों वाले हाथ ने ‘तन्नीर’ बांट दिया। सरदार को एक शब्द मिला है, वह उसे सहेज रहा है- ‘तन्नीर माने जल।’
‘मासी?’ तमिल महिला उलझ गयी। सरदार की बाहों ने अनुवाद किया ‘आ.. अम्मा।’
चंचल लिखते हैं- पदयात्रा केवल डगर नहीं नापती। एक जुड़ाव होता है। अपनापन निकल आता है। रंग, जाति, मजहब, लिंग, औकात, उम्र की सारी दीवारें भसक गयी हैं।