Advertisement

दस साल निर्भया/इंटरव्यू/आशा सिंह : “वक्त 2012 में ही जैसे ठहर गया है, बल्कि बदतर होता जा रहा है”

16 दिसंबर 2012 की उस काली रात के बाद का वह मंजर याद कीजिए, जब उस बहादुर लड़की ने कई बलात्कारियों से लोहा लिया और अंतत: विदा हो गई।
निर्भया के माता-पिता

आजाद भारत के इतिहास में जैसे वह किसी मील के पत्थर की तरह गड़ गई थी। वह निर्भया, वह ज्योति मिटकर ऐसे प्रज्ज्वलित हुई कि समूचा देश उस रोशनी में नई आजादी की राह तलाशने को उतावला हो उठा। नौजवान लड़के-लड़कियों ने राजपथ पर ऐसे डेरा डाल दिया, मानो सत्ता की चूलें हिलाकर समूची व्यवस्था को एकबारगी बदलकर स्त्री जाति को हर अत्याचार, उत्पीड़न से मुक्त करके, मर्दानगी की परिभाषा उलटकर, स्त्री-पुरुष बराबरी की नई आजादी हासिल कर लेंगे। 16 दिसंबर 2012 की उस काली रात के बाद का वह मंजर याद कीजिए, जब उस बहादुर लड़की ने कई बलात्कारियों से लोहा लिया और अंतत: विदा हो गई। उस घटना ने मानो देश के विवेक, उसकी नियति को एकबारगी झकझोर दिया था। सरकार हिली भी। पूर्व न्यायाधीश जे.एस. वर्मा के नेतृत्व में आयोग के जरिये नए कड़े कानून भी बने, लेकिन न व्यवस्था बदली, न उसकी संस्कृति। उसके बाद पिछले एक दशक में तो ऐसी बर्बर बलात्कार और हत्या की कहानियों की जैसे बाढ़ ही आ गई (आवरण कथा में महिला उत्पीड़न के आंकड़े और ब्यौरे देखें)। उस बहादुर लड़की की मां आशा सिंह के शब्दों में कहें तो, “हालात बदतर होते गए। पहले तो सुनवाई की उम्मीद भी थी। अब तो उम्मीद भी टूट रही है।’’  वे सुप्रीम कोर्ट के पिछले महीने के फैसले का हवाला देती हैं कि छावला कांड के दोषियों को पर्याप्त सबूतों के अभाव में फांसी की सजा से बरी कर दिया गया। ‘‘कोई किस पर भरोसा करे?’’ आशा सिंह और उनके पति बद्रीनारायण सिंह ने अब अपने जीवन का लक्ष्य निर्भया ज्योति ट्रस्ट बनाकर महिला उत्पीड़न के हर मामले की हर संभव मदद करना ही बना लिया है। बद्रीनारायण सिंह तो चुप ही रहते हैं, लेकिन आशा सिंह कहती हैं, ‘‘जिंदगी में एक खालीपन पसर गया है।’’ उनसे आज के हालात, उनके दुख-संताप, व्यवस्था और देश के हालात पर हरिमोहन मिश्र ने विस्तृत बातचीत की। मुख्य अंश: 

 

दस साल होने जा रहे हैं उस घटना को, इस बीच में आप काफी सक्रिय रही हैं। क्या-क्या सक्रियताएं रही हैं?

मेरी सक्रियता तो महिलाओं के संबंध में या रेप विक्टिम को लेकर होती है। कोई भी घटना होती है, हमें पता चलता है, वह मीडिया में आती है या नहीं आती है, हम आवाज उठाने की कोशिश करते हैं। हमारा मानना है कि जो कुछ भी हुआ, हम अपने लिए कुछ नहीं कर पाए, लेकिन हमारी आवाज उठाने से किसी की मदद हो जाती है या किसी को इंसाफ मिल जाता है तो थोड़ा संतोष मिलता है। आवाज उठाने से अगर कुछ होता है, ताकि हमारी बच्चियों के साथ ऐसा न हो, तो बेहतर है।

यह बहुत जरूरी है। आवाज नहीं उठती है तब ही ऐसी घटनाएं समाज में फैलती हैं...

आप देख रहे हैं कि कैसी-कैसी घटनाएं हो रही हैं। एक घटना होती है तो उसी तर्ज पर घटनाएं शुरू हो जाती हैं। लेकिन हमारी जो व्यवस्था है, वह अपने जमीनी स्तर से हिलती ही नहीं है। वह ज्यों की त्यों रेंग रही है। अभी आपने देखा कि श्रद्धा वाली घटना हुई। हमारी घटना से करीब आठ महीने पहले एक घटना हुई थी छावला में। उस केस को हम लोग बहुत अच्छे से जानते हैं। हम लोग उनके मम्मी-पापा से भी मिले, कहां-कहां गए, प्रदर्शन में भी गए। अभी भी वे मिलते हैं। उनके लिए हम लोग यहां द्वारका में हर रात को 7 से 8 बजे तक एक घंटे कैंडल मार्च निकालते हैं। उनके पिता जी भी आते हैं। हमारा यही मानना है कि हाल में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हम विरोध करते हैं। हम सुप्रीम कोर्ट का विरोध नहीं करते, लेकिन सुप्रीम कोर्ट से जो फैसला आया है, उसका विरोध करते हैं।

जी, कुछ विस्तार से बताएं।

छावला की घटना में इसी 7 (नवंबर 2022) तारीख को सुप्रीम कोर्ट (तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश यू.यू. ललित की अगुआई वाली पीठ) ने मुजरिमों को बरी कर दिया, जबकि ट्रायल कोर्ट और हाइकोर्ट से तीन मुजरिमों को फांसी की सजा हो चुकी थी। वह घटना दस साल पहले 2012 में ही हमारी घटना से करीब आठ महीने पहले हुई थी और उस बच्ची के साथ बहुत दर्दनाक हादसा हुआ था। हम लोग इसी फैसले के विरोध में कैंडल मार्च करते हैं। लोगों को बताते हैं कि यह फैसला वापस होना चाहिए। सरकार इसका रिव्यू करवाए। अगर पुलिस ने ठीक से जांच-पड़ताल नहीं की या कोर्ट ने सही से नहीं देखा तो उसकी सजा मां-बाप क्यों भुगतें, जिन्होंने दस साल से इंतजार किया। अगर ठीक से जांच नहीं हुई है तो दोबारा से उसकी जांच हो, कम से कम यह तो हो कि अगर वे मुजरिम हैं, तो उन्हें सजा मिले। अगर वे मुजरिम नहीं हैं तो उस बच्ची का कत्ल किसने किया? अगर उसकी बॉडी मिली दो दिन बाद, आपने उसका पोस्टमार्टम किया, सैंपल लिया तो उसे उस हालत में किसने पहुंचाया? कोई तो होगा? इसलिए हमारी लाइफ का यह एक अहम हिस्सा, एक मकसद बन गया है कि हम बच्चियों के लिए कुछ करें।

किन्हीं संस्थाओं से जुड़ी हुई हैं क्या?

नहीं, मैं खुद अपने से ही करती हूं। जब बेटी की डेथ हुई थी तो 2013 में ही हमने निर्भया ज्योति ट्रस्ट बनाया था। उसी से कई लड़के-लड़कियां जुड़े हैं। उसी के तहत हम काम करते हैं। हम किसी से जुड़े नहीं हैं।

निर्भया फंड से आपको मदद मिली है या सरकार से...

नहीं, मेरे को उससे कोई मतलब नहीं है। उससे हमारा कोई लेना-देना नहीं है।

असल में व्यवस्था तो क्या है, सरकारें क्या कर रही हैं, वह तो दिख रहा है। जैसे अभी बिलकिस बानो वाले मामले में हुआ...

हमने बिलकिस बानो के मामले में भी बहुत आवाज उठाई। हमारे ट्रस्ट की तरफ से बच्चों ने और कई दूसरी संस्थाओं ने सिग्नेचर कैंपेन चलाया कि यह ठीक नहीं है। छावला वाले मामले के लिए भी आवाज उठा रहे हैं। मान लीजिए, किसी एक परिवार का मामला नहीं है न। आज बिलकिस बानो के मुजरिमों को छोड़ दिया, कल और किसी को छोड़ देंगे तो सजा किसको देंगे और क्राइम कैसे रुकेगा।

सरकारों के रवैये को कैसे देखती हैं?

सरकार चाहे जिसकी हो, महिलाओं के मुद्दे पर कोई संवेदनशीलता है ही नहीं। कोर्ट का वही हाल है। आप यह देखिए न कि पुलिस को कौन चलाता है, सरकार चलाती है, कोर्ट चलाती है। लेकिन जब भी कोई घटना होती है तो पुलिस का हवाला देकर केस बंद कर दिया जाता है, छोड़ दिया जाता है मुजरिमों को। तो, आप पुलिस को दंडित क्यों नहीं करते। इसका मतलब तो यही है न कि पुलिस के माध्यम से आप खुद को बचा लेते हो, क्योंकि पुलिस को कोई सजा होती नहीं है।

कई बार तो लगता है कि पुलिस या व्यवस्था भी हिस्सेदार बन जाती है। मसलन, हाथरस वाला जो कांड हुआ था...

उसमें रात के अंधेरे में बच्ची की लाश को जला दिया। कितना घिनौना काम किया। पाप किया। पुलिस से जिस तरह कठपुतली की तरह काम कराते हैं, वैसे पुलिस करती है और उसी माध्यम से सब बच जाते हैं। कोर्ट को भी मेहनत नहीं करनी पड़ती है, लिख देती है कि पुलिस ने तत्परता से जांच नहीं की, इसलिए सबूत नहीं है। सबूत नहीं है, तो पुलिस को दंडित करिए न, पुलिस को नौकरी से हटाइए या पुलिस की ट्रेनिंग कराइए, पुलिस की काउंसलिंग कराइए।

देश में तो कभी-कभी हमें लगता है कि कोई उम्मीद ही नहीं बची है। सुप्रीम कोर्ट से तो कुछ ऐसे फैसले आए हैं, उससे तो लगता है कि किस पर विश्वास करेंगे हम। सुप्रीम कोर्ट के भरोसे पर हमने बिहार के, दिल्ली के मामले सुप्रीम कोर्ट में डाल रखे हैं कि लोगों को इंसाफ मिलेगा। लेकिन इस (छावला) फैसले ने तो हिलाकर रख दिया। लोअर कोर्ट से, हाइकोर्ट से फांसी की सजा सुनाई गई है, उसे बरी कर दिया गया यह कहकर कि पुलिस ने पर्याप्त सबूत नहीं जुटाए।

अभी कितनी अर्जियां आपकी तरफ से सुप्रीम कोर्ट में डाली हुई हैं?

कई अलग-अलग हैं मगर मुख्य बिहार के पूर्णिया की एक घटना के बारे में है। उस मामले में खेत में ले जाकर एक बच्ची के साथ बलात्कार किया गया और उस पर चाकू से कई वार किया, बांस डाल दिया गले में, हत्या कर दी। लोअर कोर्ट से तीन मुजरिमों को फांसी की सजा हुई थी, लेकिन हाइकोर्ट ने उन्हें छोड़ दिया। उनके भाई आए मेरे पास, न्यूज वगैरह से कहीं से मेरा नंबर मिला होगा, तो उसकी अर्जी सुप्रीम कोर्ट में डलवाई है। दिल्ली के एक-दो केस हैं। सारे का ब्यौरा देना अभी संभव नहीं है। किसी-किसी के माध्यम से या अपने आप से आ जाते हैं, तो हम उनकी मदद में जो कुछ कर सकते हैं, करते हैं। मैं झूठ नहीं बोलूंगी, एक दिन की बात नहीं है न कि किसी से कहकर फ्री में करवा सकते हैं क्योंकि केस तो सालोसाल चलते हैं। यह तो वकील पर निर्भर है कि वे कितने की उम्मीद करते हैं। ऐसे दो-तीन केस दिल्ली के भी हैं। वह भी लड़कियों के ही हैं। वह भी मर्डर के, बलात्कार के ही हैं। कुछ लोअर कोर्ट में मामले चल रहे हैं। किसी को पुलिस में दिक्कत है तो उसमें हेल्प कर दिए।

आपका तो बहुत सारा समय जाता होगा इन सबमें...

बहुत, बहुत। कई बार तो घंटों फोन पर ही समझाना पड़ता है, काउंसलिंग करनी पड़ती है। लेकिन मैंने और मेरे परिवार ने तो अपने जीवन का यही मकसद बना लिया है। या यूं कहिए कि यही हमारी लाइफ की वजह बन गई है।

आपके बेटे भी तो हैं। अभी पढ़ रहे हैं या नौकरी कर रहे हैं?

अब तो नौकरी करता है, लेकिन घर में, हमारे जीवन में जैसे एक खालीपन पसरा हुआ है। हम ज्यादा देर एक-दूसरे से बात नहीं कर पाते। (गला भर आता है)

घटना के बाद पिछली सरकार से तो कुछ आपको मदद मिली थी।

जी, हमारे बेटे की पढ़ाई के मद में मदद मिली थी। पिछली सरकार का रवैया कुछ संवेदनशील था। तब माहौल भी दूसरा था। इतने लोग खड़े हो गए थे। बड़े प्रदर्शन हुए थे। तब लगा था कि हम अकेले नहीं हैं। हमारे साथ, हमारी बच्ची के साथ जो हुआ, उसे तो कोई बांट नहीं सकता, लेकिन तब उम्मीद थी कि कुछ इंसाफ होगा, आगे कुछ बदलेगा। उसी की वजह से मुजरिमों को सजा सुनाई जा सकी। फास्ट ट्रैक कोर्ट बने। पूर्व न्यायाधीश जे.एस. वर्मा की अगुआई में आयोग बना। नया कानून आया। लेकिन उसके बाद हालात बुरे ही होते गए।

अब क्या फर्क लगता है?

तब लगता था कि कुछ सुनवाई होगी। अब लगता है कि कोई सुनवाई ही नहीं है। ऐसा लगता है कि 2012 में ही हम खड़े हैं, बल्कि यूं कहिए कि समय ढलान पर लुढ़कता जा रहा है। हालात बदतर होते जा रहे हैं। लगता है, जैसे हारने लगे हैं। अब डर लगने लगा है।

किसी राजनैतिक पार्टी या किसी नेता से आप लोगों का साबका रहता है या मदद मिलती है?

नहीं, किसी पार्टी से हम लोगों का संबंध नहीं है, न किसी पार्टी से हम मदद मांगते है। हर पार्टी, हर नेता का रवैया एक जैसा है। बोलने को सब बोलते हैं पर करने की बारी आती है तो सब कमोबेश एक जैसे दिखने लगते हैं। आप सोचिए, अगर नेता जो बोलते हैं, उसका असर समाज पर पड़ता या समाज को बदलने की कोशिश की जाती तो आज ऐसी वीभत्स घटनाएं क्या होतीं? नेताओं और पार्टियों को ही तो व्यवस्था बदलनी थी, लेकिन लगता है कि उनका स्वार्थ इसी में है कि व्यवस्था और क्रूर, जुल्मी होती जाए।

आप लोग गांव जाते हैं? वहां और शहर के समाज में क्या फर्क दिखता है?

हां, हां, गांव जाते हैं न। पहले ज्यादा जाते थे। अब कुछ कम हो गया है। गांव भी अब पहले जैसे नहीं रह गए। पहले गांव में सांप-बिच्छू का ही डर लगता था, बाकी कोई डर नहीं होता था। शहर तब भी डराता था। कोई बाहर जाए तो चिंता लगी रहती थी। लेकिन अब गांव का माहौल भी डराने लगा है। लोग एक-दूसरे की कम परवाह करने लगे हैं। राजनीति ने सबको बांट दिया है।

क्या आपको लगता है कि राजनीति की वजह से देश के हालात बिगड़ते जा रहे हैं?

बिलकुल, आप जितने मामले देख लीजिए, हाल के मामले देख लीजिए। बिलकिस बानो, हाथरस, उन्नाव, बिहार के पूर्णिया जैसी तमाम घटनाओं में राजनीति या कहिए व्यवस्था की नाकामियां ही तो उजागर होती हैं। लगता है कि सब राजनीति प्रेरित है। छोटे-छोटे फायदों के लिए समाज को नीचे ले जाया जा रहा है।

आपको पिछले दौर की कोई खास बात या ऐसा पल जो बार-बार याद आता हो?

बच्ची चली गई...(गला भर आता है...थोड़ी देर मौन के बाद), वह क्या याद करना या कहिए कि उसी याद के सहारे या इस उम्मीद में जिंदा हैं कि एक भी बच्ची को बचा सकें, इंसाफ दिलवा सकें तो...मुझसे ज्यादा तो उसके पिता...चुप रहते हैं।

खैर! समाज में आप कैसा बदलाव चाहती हैं?

लड़कियों, औरतों को इंसान समझा जाए। लड़के, मर्द उनके वजूद को समझें। उन्हें सम्मान मिले। मर्द मर्दानगी मां-बहनों या हर स्त्री की रक्षा में दिखाएं। लेकिन इस सब के लिए लड़के-लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई जरूरी है। लेकिन पढ़ाई का हाल तो देख ही रहे हैं। जिसके पास आमदनी कम है, वह अपने बच्चों को पढ़ा ही नहीं सकता है। ऐसी व्यवस्था बनाई जा रही है कि बिना अच्छी कमाई के जिंदगी का कोई मतलब ही नहीं है। दूसरी बात यह है कि सिर्फ कानून बनाने या कुछेक मामले में सजा हो जाने से भी कुछ नहीं बदलेगा, जब तक व्यवस्था न बदले, समाज में लोगों के विचार न बदलें। इसके लिए व्यापक पहल करनी होगी। इसके लिए राजनीति को बदलना होगा।

आपको नहीं लगता कि हमारे समाज में स्त्रियों को पहले से ही दबा कर रखा गया है, जिससे आज भी वे पराधीन हैं?

यह तो है। कभी-कभी तो लगता है कि लड़कियां पढ़-लिखकर कुछ बराबर खड़ी होती दिखती हैं तो वह भी उन पर अत्याचार का कारण बनता है। अब इंतहा हो गई है। कुछ उम्मीद दिखनी चाहिए।

Advertisement
Advertisement
Advertisement