राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के राज्यसभा सदस्य तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर मनोज झा विपक्ष के एक प्रमुख चेहरे और विपक्षी एकता के बड़े पैरोकार हैं। जाति जनगणना, ओबीसी राजनीति, चुनावी संभावनाओं, भाजपा की चुनौतियां जैसे तमाम मुद्दों और मसलों पर हरिमोहन मिश्र ने उनसे बातचीत की। मुख्य अंश:
जाति जनगणना का अर्थ क्या यह है कि मंडल-2 की राजनीति शुरू हो गई है?
मैं इस शब्दावली से इत्तेफाक नहीं रखता कि यह मंडल-2 की राजनीति की शुरुआत है। यह सीधे तौर पर सामाजिक न्याय और उसकी अवधारणा को मुकम्मल अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश है, जो लोकतंत्र का अभिन्न अंग है। मैं इसलिए कह रहा हूं कि मंडल कमीशन जब आया तो उसके पास आधार आंकड़े 1931 की जनगणना के थे। उसके बाद 1990 में जब वह रिपोर्ट (मंडल कमीशन की) लागू हुई, तब तक पाकिस्तान और बांग्लादेश नाम के दो मुल्क उसी 1931 की जनगणना के आधार पर अलग बन गए थे। हमारे आंकड़े जाहिरा तौर पर वैज्ञानिक नहीं थे। फिर भी जो संकलित आंकड़ा था, वह 52 प्रतिशत तक पहुंचा। फिर तय हुआ कि सुप्रीम कोर्ट की इंदिरा साहनी जजमेंट में एक सीलिंग है कि आरक्षण 50 प्रतिशत को पार नहीं कर सकता। अब यह सीलिंग भी हट गई हालिया जजमेंट के बाद। इसलिए सामाजिक न्याय के आधार को मजबूत करने के लिए, उसको तार्किक विस्तार देने के लिए यह आवश्यक है कि जातिगत जनगणना हो, ताकि जाना जा सके कि पेशे के साथ जाति का क्या ताल्लुक है। निचले से ठीक ऊपर के पायदान पर कौन लोग हैं, जमीन की मिल्कियत और जाति का क्या, उद्योग और जाति का क्या ताल्लुक है, सर्विसेज में किस जाति के लोग कितने हैं? इसी प्रकार निम्न आय वर्ग के लोग, चाहे शहरों या गांवों में रहते हों, उनकी जातिगत पृष्ठभूमि क्या है? किसी भी सरकार के पास ये आंकड़े होंगे तो ये वैज्ञानिक होंगे और उनके सापेक्ष फोकस्ड नीतियां बनानी संभव होंगी।
बिहार वाली जाति जनगणना कब तक पूरी हो जाएगी?
लगता है, छह से आठ महीने में डेटा पूरा आ जाएगा। अब उसकी समीक्षा वगैरह में जो वक्त लगे। हालांकि बिहार की इस प्रक्रिया में जनगणना शब्द नहीं है। हम उसे जातिगत सर्वेक्षण कह रहे हैं, क्योंकि जनगणना से उसकी खास प्रक्रिया जुड़ी होती है। लेकिन मुझे खुशी है कि जिस ऑल पार्टी बैठक में हमने ये निर्णय लिया, उसमें भाजपा के लोगों ने भी समर्थन किया। केंद्र में भले वे ढुलमुल रवैया अपनाएं, लेकिन बिहार में जो जन-दबाव है, उसको उन्होंने महसूस किया और केंद्र की भाजपा के विपरीत उन्होंने हमारे साथ आने का निर्णय किया।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि जाति के आंकड़े आ जाते हैं तो पिछड़ा पॉलिटिक्स में नई ताकत आ सकती है, अगर आंकड़े ठीक से नहीं आ पाते हैं तो वैसा दम नहीं आ सकता है।
उन विशेषज्ञों या आपके सवाल में भी जो एक राजनैतिक दृष्टिकोण है न, मैं उसको आवश्यक मानता हूं। लेकिन राजनैतिक दृष्टिकोण ही जातिगत सर्वेक्षण या जनगणना को देखने का समग्र दृष्टिकोण नहीं है। यह सिर्फ पिछड़ों की ताकत का मामला नहीं है, यह मामला है कि संविधान में जो गारंटी है या जो वादे किए गए हैं फंडामेटल राइट के तहत या डाइरेक्टिव प्रींसिपल्स में उस पर अमल हो। मसलन, आर्टिकिल 39 में ही देखिए, वह कहता है कि संपत्ति के संकेंद्रन (को रोकने) की दिशा में हमने क्या किया? हम इसे सिर्फ पिछड़ा समाज या मंडल-2 कहकर एक कैटेगरी में डालते हैं तो इसे रिड्यूस कर देते हैं। मेरा अपना आशय है कि तकरीबन 70 से 72 प्रतिशत आबादी के लिए, अनुसूचित जाति-जनजाति को छोड़ देता हूं, एक खुला पैराडाइम नहीं है तो यह सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा भी है। जिस राष्ट्र की नींव 1947 में रखी गई, उसकी अवधारणा के साथ भी नाइंसाफी है।
क्या इससे मौजूदा दौर में संपत्ति-धन बहुत थोड़े से लोगों के हाथ में केंद्रित होने का सवाल भी तीखा होता है?
बेशक, जाति जनगणना से नए सवाल पैदा होंगे।
सवाल यह है कि आप तो राजनीति में हैं इसलिए राजनैतिक परिदृश्य और मुद्दों की ओर भी देख रहे होंगे। मसलन, मंडल आयोग के बाद भाजपा कुछेक कोशिशों से कई पिछड़ी जातियों को अपने पाले में ले आई है। क्या जाति जनगणना की पहल से उन जातियों के पिछड़ा राजनीति के पाले में वापस लौटने की संभावना है?
राजनीति को अगर लोकनीति और सार्वजनिक जीवन के सरोकारों से दूर करके देखते हैं तो इलेक्टोरल डेमोक्रेसी का एक कुरूप चेहरा दिखता है। मैं समझता हूं कि भाजपा ने उस कुरूप चेहरे को खूब पोषित किया है। हमें उस कुरूप चेहरे वाली राजनीति नहीं करनी है। हमने साफ तौर कहा है कि भाजपा की राजनीति विध्वंस की राजनीति रही है, उसने निर्माण के बदले विध्वंस किया है। आज समाज में धार्मिक तानेबाने का हाल देख लीजिए। हमारी राजनीति समावेशी राजनीति होगी। ऐसा नहीं है कि पिछड़ों का आंकड़ा आ जाएगा तो अगड़ों की आबादी के खिलाफ युद्ध घोषित हो जाएगा। न, न। डॉ. लोहिया, जेपी, कर्पूरी जी को देखिए, यहां तक कि लालू जी को देखिए, लोग लाख कह लें, लेकिन कोई एक पेपर कटिंग भी नहीं दे पाया कि वे ऐसा-वैसा बोलते थे। हमारा सिर्फ यह कहना है कि ये आंकड़े आएंगे न, तो हर दल के समक्ष एक अवसर होगा, एक चुनौती होगी। उस अवसर, चुनौती को सामाजिक न्याय को विस्तार देने में इस्तेमाल किया जाता है तो देश के लिए अच्छा होगा। हमारी समग्र सोच के लिए अच्छा होगा।
यह तो ठीक है मगर भाजपा तो सोशल इंजीनियरिंग पर जोर देती है...
मैं आपको यहां बता दूं कि हमारे देश में बहुत-से लोग सोशल इंजीनियरिंग शब्द का इस्तेमाल करते हैं और गलत इस्तेमाल करते हैं। इस शब्द का इस्तेमाल एडॉल्फ हिटलर ने किया था अपनी नीतियों के लिए। हम एडॉल्फ हिटलर या किसी भी फासीवादी ताकत द्वारा प्रयुक्त परिभाषा के पक्ष में कतई नहीं खड़े हो सकते हैं। भाजपा जो कर रही है, वह समाज के ढांचे को ही चोटिल करने की कोशिश कर रही है और कर चुकी है, कम से कम धर्म के आधार पर। उन्होंने आज देश को ऐसा बना दिया है कि पाकिस्तान 1947 में बना, और हमने काफी तरक्की की ’47 के बाद। लेकिन आज हमारे देश को हिंदू पाकिस्तान बनाने की कोशिश हो रही है। जो यात्रा हमने ’47 में स्वीकार नहीं की, आज उस यात्रा को भाजपा हमारे सिर पर लाद रही है।
समाजवादी चिंतक किशन पटनायक को शुरुआत में मंडल की राजनीति में मंदिर और भूमंडलीकरण की राजनीति की काट की संभावना दिखती थी। लेकिन बाद के दौर में मंडल राजनीति में तरह-तरह के बिखराव आए, जिसका फायदा शायद मंदिर की राजनीति को मिला। इसी के साथ यह भी हुआ कि मंडल और मंदिर दोनों को भूमंडलीकरण पचा गया। पिछड़ा नेता भी वैसे ही विकास की बोली बोलने लगे। क्या अब कुछ सोच बदली है?
भूमंडलीकरण का लचीलापन यह रहा कि उसने सांप्रदायिकता को अपने अंदर समाविष्ट कर लिया। ये जो आज अक्सर हम सुनते हैं कि क्रोनी कैपटलिज्म ऐंड कम्युनलिज्म तो यह उसी का एक रूप है। देखिए पूंजी को अपना विस्तार चाहिए। उसका विस्तार अगर लाशों पर होता है तो उससे उसे परहेज नहीं है। वैश्विक पूंजी का चरित्र मूलत: गिद्ध वाला है। हमारे समक्ष चुनौती आज यह है कि भूमंडलीकरण से भी लड़ें और सांप्रदायिकता के इस चेहरे से भी लड़ें। इसमें मैं आपकी बात से सहमत हूं कि अगर न्याय की अवधारणा के इर्द-गिर्द अस्सी फीसदी आबादी इसकी हो जाती है तो विजय उसकी होगी, भले शॉर्ट टर्म में लगे कि इमिडिएट गोल नहीं हुआ, पेनॉल्टी से गोल नहीं हुआ। लेकिन किसी देश में न्याय का इतिहास पांच-दस-पंद्रह वर्षों में न तो लिखा जाता है, न उसका मृत्यु-आलेख लिखा जाता है। इसलिए मैं इसके अंदर संभावनाएं देखता हूं। ये संभावनाएं हिंदुस्तान को एक न्यायप्रिय गणतंत्र में तब्दील करेंगी।
लेकिन अभी भी पिछड़ा नेतृत्व में कई तरह की फांक दिख रही है। जैसे बिहार में ही उपेंद्र कुशवाहा फिर चले गए दूसरे पाले में। इसे कैसे देखते हैं?
मैं इमानदारी से कहूं तो समाज का जब खंडित चरित्र उभरता है तो राजनीति में भी वह खंडित चरित्र परिलक्षित होता है। लेकिन मैं आपको यकीन के साथ बताऊं, हम फिर बात करेंगे, कि उपेंद्र कुशवाहा जी के पास कितनी पूंजी है, उस पूंजी के पीछे किसकी पूंजी है, उस पूंजी को रखने वालों का मनसा वाचा कर्मणा क्या है, वह भी स्पष्ट हो जाएगा। आप एक पिछड़ी जाति का नेता बनने की कोशिश करें तो जरूरी नहीं है कि सामाजिक न्याय के प्रति आपकी प्रतिबद्धता है। और वह संवैधानिक प्रतिबद्धता है। कई दफा आप बेसिक किस्म के अवसरवाद के भी शिकार होते हैं। ऐसे लोग बेमानी हो जाएंगे। किसी भी देश का इतिहास एक चुनाव से निर्धारित नहीं होता।
नीतीश कुमार जी के बारे में राय क्या है?
मैं भविष्यवक्ता नहीं हूं, लेकिन इतना कह सकता हूं कि नीतीश जी और उनकी पार्टी ने बहुत सोच-समझ कर ऐतिहासिक निर्णय लिया। ऐतिहासिक कालखंड में निर्णय लिया। उनको निर्णय लेने की कोई मजबूरी नहीं थी। सबसे बड़ा जो संबल मिला, वह लालू जी और तेजस्वी जी के बिना शर्त समर्थन से मिला। कोई शर्त नहीं। जब रिश्ते इस बुनियाद पर बनते हैं तो लोग इस बात को नहीं देखते हैं। मीडिया में कुछ भी परोसा जाता रहे, उनका सोचा-समझा निर्णय है। उन्होंने यह जरूर तय किया है कि इतिहास के इस कालखंड में उनका निर्णय इस धारा को मजबूत करे।
तेजस्वी को 2025 में राज्य का नेतृत्व देने की गारंटी की बात क्या है?
उन्होंने मीडिया से एक बातचीत में कहा कि ’25 का चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ेंगे। अब इसकी व्याख्या कौन क्या करता है, यह वह जाने।
विभिन्न पिछड़ा या दलित बिरादरी के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं या अवसरवाद का लाभ लेकर ही भाजपा ने उत्तर प्रदेश या बिहार में खुद को खड़ा किया है...
लालू जी का एक फेमस मुहावरा है कि ‘काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती।’
जाति जनगणना वाली राजनीति का असर उत्तर प्रदेश, बिहार के अलावा और किन राज्यों में दिख सकता है?
नवीन पटनायक करवा रहे हैं, तेलंगाना में हो रहा है। आंध्र प्रदेश में मांग हो रही है। तमिलनाडु में जरूरत नहीं है। उत्तर प्रदेश में मांग हो रही है। एक बात कह दूं कि भाजपा के कई नेता इसके पक्ष में हैं। राज्यसभा में जब-जब मैंने जाति जनगणना की बात उठाई है, भाजपा के कम से कम दो दर्जन सांसदों ने आकर मुझसे कहा कि यह बहुत जरूरी है। ये बातें एक अथॉरिटेरियन पार्टी, जहां बोलने की आजादी नहीं है, के लोग कह रहे हैं तो यह उनके मानस का हिस्सा है, यह किसी भी दिन प्रकट हो सकता है।
विपक्षी खेमे में नीतीश, लालू, तेजस्वी, अखिलेश, भूपेश बघेल, अशोक गहलोत, सिद्धरमैया तमाम बड़े पिछड़े वर्ग के नेता हैं, ये एक साथ मुहिम चलाएं तो राजनीति की फिजा बदल सकती है, क्या यह संभव है?
इंतजार करिए दो-चार महीने। सब संभव है।
उत्तर प्रदेश में अखिलेश के साथ कांग्रेस का जाना संभव है?
मैं उसका चरित्र क्या होगा, नहीं जानता। अखिलेश जी की अपनी पार्टी है, कांग्रेस का अपना आधार है। मैं तीसरी पार्टी का सदस्य हूं। लेकिन मुझे यह पता है कि लोग चाहते हैं कि सब इकट्ठा हों। यह 1977 वाला मोमेंट है। जेपी को नींद नहीं आती थी रात को। फलां नहीं आ रहा है, फलां यह कह रहा है। लेकिन हवा बदली, फिजा बदली, सब साथ आए। प्रयोग हुआ और सफल हुआ।
आपको लगता है 2024 में मामला बदलेगा कुछ?
मैं हवा में नहीं, पूरे कॉन्फिडेंस से कह रहा हूं कि भाजपा अपने बूते सरकार नहीं बना पाएगी। इतने नंबर कम होंगे कि उनके लिए नंबर जुटाना मुश्किल होगा। हर दल, चाहे उनके मित्र ही क्यों न दिख रहे हों, वे समर्थ हैं इसलिए अभी मित्र दिख रहे हैं, जिस दिन सामर्थ्य में कमी आई, वे मित्र भी इधर आएंगे।