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धर्म की राजनीति का अंत हो

मंदिर-मस्जिद की दीवारों को तोड़ आर्थिक उन्नति के नए संकल्प का सूत्रपात ही अयोध्या का बड़ा सबक
अयोध्या में राम मंदिर का प्रस्तावित मॉडल

वह जून 1989 का दौर था। इस दौर में जब हिमाचल के पालमपुर में भाजपा ने अपनी पार्टी की कार्यकारिणी में अयोध्या विवाद को एजेंडे में लिया तो शायद भाजपा नेताओं को भी भरोसा नहीं रहा होगा कि पांच सौ साल का यह विवाद उनकी पार्टी को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बना देगा। अयोध्या हिंदू पुर्नरूत्थान का केंद्र बना जाएगा। 5 अगस्त को अयोध्या में सिर्फ राम मंदिर का शिलान्यास ही नहीं, बल्कि दुनिया के नक्शे पर वेटिकन, मक्का जैसे एक शहर की नींव पड़ेगी। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों की टीम ने काम करना शुरू भी कर दिया है।

मंदिर निर्माण की शुरुआत से अयोध्या कांड ने समय का एक चक्र पूरा कर लिया है। ऐसा हो सकता है मंदिर निर्माण के साथ धर्म की राजनीति का अंत हो, शताब्दियों से भारतीय जनमानस को मथते इस मुद्दे का दम निकले। पर प्रश्न यह है कि क्या दो सभ्यताओं के इस चिरंतन संघर्ष का घाव भी भरा जा सकेगा? अयोध्या आजादी के बाद आस्था और विभाजन की पीड़ा से फूटा हुआ एक घाव है। ऐसे घाव बहुत मुश्किल से भरते हैं। वर्तमान को बदलना फिर भी आसान होता है मगर इससे इतिहास नहीं बदलता।

दरअसल अयोध्या सही मायनों में धर्म की राजनीति से मुक्ति का अहसास है। भारतीय राजनीति में ध्रुवीकरण की प्रक्रिया अयोध्या से ही शुरू हुई थी। मंडल के जवाब में कमंडल आया था। वह कामयाब भी रहा। देश की राजनीति और समाज को उसने सीधे तौर पर बांटा। देश की राजनीति मंदिर और मस्जिद के र्गिर्द घूमती रही। भारतीय जनता पार्टी को इससे फायदा भी हुआ। वह दो सीटों से बढ़ती-बढ़ती 303 सीटों तक पहुंच गई। इस मुद्दे पर हमेशा से दुविधा में फंसी कांग्रेस 415 सीटों से नीचे आते-आते 52 पर आ गई। 1985 के बाद हर चुनाव में यह बोतल का जिन्न बाहर आता और चुनाव बाद बोतल में वापस चला जाता रहा। अब तो मंदिर वहीं बन रहा है। इसलिए आने वाले चुनावों में यह मुद्दा न रहे। धार्मिक ध्रुवीकरण खत्म हो। यह बात मुसलमानों को भी समझ में आ रही थी कि इस ध्रुवीकरण ने संसद में लगातार मुस्लिम प्रतिनिधित्व को घटाया है। इस विवाद से पहले 1980 में जहां लोकसभा में 49 मुस्लिम सांसद चुने जाते रहे, वहीं 2019 आते-आते इनकी संख्या घटकर 27 हो गई।

लंबी और थका देने वाली लड़ाई से दोनों पक्ष यह समझने भी लगे थे कि यह मुद्दा अब कारगर नहीं रहा। फैसले के बाद दोनों तरफ की प्रतिक्रिया से यही सिद्ध होता है कि आज की नई पीढ़ी को वैसे भी इस विवाद में कोई रुचि नहीं रही। आज कुल आबादी का 38 प्रतिशत उन लोगों का है जो 1992 के ध्वंस के बाद पैदा हुए हैं। जो मंदिर-मस्जिद के इस विवाद के बारे में ठीक से जानते भी नहीं। उन्हें सिर्फ यह पता है कि कोई राष्ट्र या समाज नफरत की बुनियाद पर ज्यादा दिन नहीं चल सकता। इसीलिए उसने अतीत से आगे बढ़ने का अदालती रास्ता पा लिया है। इतिहास का मतलब है स्मृतियां और स्मृति के घाव आसानी से नही भरते। फिर अयोध्या का घाव तो उस चेतन-अचेतन धड़कन का प्रतिनिधि है, जिससे धर्म, सभ्यता और मान-सम्मान के तमाम पहलू बंधे हुए हैं। बाबर ने तलवार के बूते जिस आस्था का ध्वंस चाहा, वह आस्था साढ़े चार सौ साल बाद भी इतिहास के इस घाव को नहीं भुला सकी। यह आस्था हर कालखंड में हर कीमत पर मंदिर वहीं बनवाने के लिए संकल्पबद्ध रही। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा समाधान निकाला जिससे यह ध्वनि निकले कि न कोई जीता, न कोई हारा। इस फैसले ने दोनों ही समुदाय को मौका दिया कि वे अपने गिले-शिकवे भुलाकर नए भारत के निर्माण के लिए काम करें। 

सभ्यताओं का संघर्ष मरता नहीं है। वह अचेतन में निरंतर चलता रहता है। अयोध्या हो या येरूशलम, सभ्यताओं के ये कुछ चिरंतन घाव हैं, जिनके संघर्ष पर विराम आसान नहीं है। ये घाव लगातार खून बहाते हैं। नए लक्ष्य देते हैं और सतत संघर्ष की धुरी बने रहते हैं। मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद मीर बाकी ने साल 1528 में बनवाई थी। तबसे 491 साल हो गए। हिंदू आस्था पर की गई यह चोट इस बीच हमेशा हरी रही। मुकदमों का दौर चला। मुकदमों के भी 161 साल हो गए। दोनों ओर से आशा और धीरज जवाब देने लगा। राष्ट्र का संयम और धैर्य खो रहा था। इस अधीरता के चरम पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया।

अयोध्या का मतलब है, जिसे जीता न जा सके। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इसे एक बार फिर साबित कर दिया कि अयोध्या अजेय है। उसे जीता नहीं जा सकता। इसके साथ ही कुछ जटिल प्रश्न भी हमेशा के लिए तय हो गए। यानी राम जन्मभूमि वहीं है जहां आज रामलला विराजमान हैं। उस जमीन का बंटवारा नहीं हो सकता। अयोध्या ने मंदिर और मस्जिद दोनों मंजूर किया। सरयू ने माना कि उसका पानी पूजा और वजू दोनों के लिए है। राम की मर्यादा रामराज्य से है और रामराज्य की असली तस्वीर मर्यादा, सद्भाव और संवाद से है। हमें इस सिद्धांत में भरोसा करना होगा। इसकी मर्यादा का मान रखना होगा, तभी अयोध्या के सदियों पुराने घाव का वर्तमान की सुखद स्मृतियों में रूपांतरण होगा। फिर न कोई टीस बचेगी और न ही कोई कसक। अयोध्या एक स्वर्णिम अवसर की तरह है। ये अवसर इस देश की राष्ट्रीय एकता का मिशन बन सकता है। सामाजिक कटुता और वैमनस्य की विष बेलों को सद्भाव और भाईचारे के स्थायी समाधान में बदल सकता है। मंदिर-मस्जिद की दीवारों को तोड़ देश की आर्थिक उन्नति के नए संकल्प का सूत्रपात कर सकता है। जीवन, समाज और राष्ट्र के लिए जरूरी मुद्दों की मुख्यधारा में वापसी का मानक बन सकता है। हमें इस अवसर को किसी भी सूरत में नहीं गवाना चाहिए। ये इतिहास की अग्नि परीक्षा है। ये काल का यक्ष प्रश्न है। हमें पूरी ईमानदारी और सदभावना के साथ इस प्रश्न का सामना करना होगा। यही अयोध्या का सबसे बड़ा सबक है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या पर उनकी पुस्तक चर्चित है)

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