हिंदू सांप्रदायिकता, जिसे इन दिनों हिंदू राष्ट्रवाद के नाम से पुकारा जाने लगा है, महात्मा गांधी से हमेशा घृणा करती रही है। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में इसने संगठित होना शुरू किया और अपना लक्ष्य ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों की गुलामी से मुक्ति पाने के बजाय हिंदू समाज को संगठित करना रखा, ताकि मुस्लिम समुदाय के खिलाफ शक्ति संचय की जा सके। उन दिनों मुस्लिम सांप्रदायिकता भी शक्ल लेने लगी थी और उसके उभार तथा ब्रिटिश-विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन से दूरी बनाए रखने की प्रवृत्ति के मद्देनजर हिंदू सांप्रदायिकता को भी अपना औचित्य सिद्ध करने का आधार मिल गया। ‘हिंदुत्व’ की अवधारणा के जनक विनायक दामोदर सावरकर ने इसी शीर्षक की अपनी पुस्तिका में स्पष्ट शब्दों में लिखा कि हिंदुत्व पूर्णतः राजनीतिक अवधारणा है, धार्मिक नहीं और इसका संबंध ‘हिंदूपन’ से है, हिंदू धर्म से नहीं। यूं भी सावरकर स्वघोषित नास्तिक थे और किसी भी धर्म के रीति-रिवाजों का पालन नहीं करते थे। सावरकर का आरंभिक जीवन क्रांतिकारी का था। 1857 के सैनिक विद्रोह पर लिखी उनकी पुस्तक ब्रिटिश सरकार ने जब्त की थी और इसमें उन्होंने इस महान घटनाक्रम को भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी थी, जबकि अंग्रेज इसे गदर कहा करते थे। ऐसा करने वाले वे पहले व्यक्ति थे और अब कोई भी 1857 के विद्रोह को गदर नहीं कहता। उसे अब भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम ही कहा जाता है। सावरकर ने इसमें हिंदुओं और मुसलमानों के एक साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने की प्रशंसा की थी।
क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए सावरकर को कालापानी भेजा गया जहां के यातनामय जीवन ने शीघ्र ही उनका मनोबल तोड़ दिया और वे अपनी रिहाई के लिए अंग्रेज सरकार को माफीनामे लिखने लगे। अंततः ब्रिटिश राज के प्रति भक्ति की शपथ लेकर वे रिहा हुए। इसके बाद का उनका जीवन हिंदू सांप्रदायिकता के सिद्धांतकार और हिंदू महासभा के शीर्षस्थ नेता के रूप में बीता। यह सर्वविदित है कि नाथूराम गोडसे को महात्मा गांधी की हत्या के लिए प्रेरित करने में उनकी सबसे महत्वपूर्ण और केंद्रीय भूमिका थी। इस हत्याकांड में गोडसे के साथ वे भी एक अभियुक्त थे। उन्हें केवल इस तकनीकी आधार पर छोड़ा गया था कि सरकारी गवाह, जिसकी गवाहियां अन्य अभियुक्तों के मामले में विश्वसनीय पाई गई थीं, की उनके बारे में दी गई गवाही की स्वतंत्र रूप से पुष्टि नहीं की जा सकी और केवल उस गवाह के बयान के आधार पर उन्हें सजा नहीं दी जा सकती थी।
आज यह देखकर आश्चर्य होता है कि जिस सांप्रदायिक द्वेष की विषबेल सावरकर और उनके सहयोगी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लगाई और पुष्पित-पल्लवित की, वह आज इतनी बढ़ गई है कि उनके अनुयायी महारानी विक्टोरिया की पुण्यतिथि इसलिए मनाने लगे हैं क्योंकि उन्होंने भारत को “इस्लामी हमलावरों” से मुक्ति दिलाई। जिस 1857 के सैनिक विद्रोह को सावरकर ने भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा, आज उनके अनुयायी उसी को इस तरह व्याख्यायित कर रहे हैं।
पिछले साढ़े चार सालों से देश में राष्ट्रवाद के नाम पर उन्माद पैदा किया जा रहा है। लेकिन इस तथाकथित हिंदू राष्ट्रवाद को ऐसी गतिविधियां राष्ट्रविरोधी नहीं लगतीं। न इनके खिलाफ पुलिस में कोई शिकायत दर्ज होती है और न ही जागरूक राष्ट्रप्रेमी बुद्धिजीवियों पर राजद्रोह का आरोप लगाने के लिए बेताब पुलिस खुद कोई कार्रवाई करती है।
साजिश करके किसी भी व्यक्ति की हत्या करना एक अपराध है। और अगर वह व्यक्ति महात्मा गांधी हो तो इस अपराध की जघन्यता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन अब एक तथाकथित साध्वी, जिसके भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं के साथ खींचे गए चित्र समाचार माध्यमों में छाए हुए हैं, उन्हीं महात्मा गांधी के पुतले को गोली मारकर गर्व के साथ उसका वीडियो बनवाकर प्रसारित करती है। महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना सरकार की पुलिस सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को धता बताकर सुबह के तीन बजे दलित बुद्धिजीवी प्रोफेसर आनंद तेलतुम्बड़े को हवाई अड्डे पर ही दबोच लेती है, लेकिन उसी भाजपा की सरकार उत्तर प्रदेश में इस साध्वी को नहीं ढूंढ़ पाती। क्या देश के राष्ट्रपिता के हत्यारे की पूजा करना और राष्ट्रपिता के पुतले को गोली मारने का नाटक करना राष्ट्रविरोधी कृत्य नहीं है? किसी बड़े भाजपा नेता ने इस तरह के कार्यों की कभी किसी भी किस्म की निंदा की है? उलटे अक्सर भाजपा के नेता तो यह सवाल उठाते रहते हैं कि हजारों वर्षों से जो भारत राष्ट्र चला आ रहा है, महात्मा गांधी उसके पिता कैसे कहे जा सकते हैं?
महात्मा गांधी के प्रति उनकी घृणा का सबसे बड़ा कारण यह है कि गांधी एक धार्मिक व्यक्ति थे, लेकिन सांप्रदायिक नहीं। उन्होंने जिस भारत की कल्पना की थी, उसमें सभी धर्मों और समुदायों को बराबरी का स्थान दिया गया था। वे मुस्लिम पाकिस्तान के जवाब में हिंदू पाकिस्तान बनाए जाने के सख्त खिलाफ थे। इसीलिए स्वाधीन भारत ने धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार किया और इसी कारण शेख अब्दुल्ला ने भी कश्मीर में बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम होने के बावजूद भारत में मिलना बेहतर समझा। मोहनदास करमचंद गांधी को ‘महात्मा’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा और ‘राष्ट्रपिता’ सुभाष चंद्र बोस ने। उनकी हत्या के बाद अल्बर्ट आइंस्टाइन ने लिखा कि आने वाली पीढ़ियां विश्वास नहीं कर पाएंगी कि पृथ्वी पर कभी महात्मा गांधी जैसा व्यक्ति भी चलता-फिरता था। मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेलसन मंडेला जैसे अश्वेत नेताओं ने उनसे प्रेरणा ग्रहण की और हो ची मिन्ह जैसे कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों ने भी। आज उन्हीं गांधी के हत्यारों का महिमामंडन हो रहा है और तथाकथित राष्ट्रवादी इन सब घटनाओं को गर्व के साथ निहार रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)