दार्जिलिंग के हाल के घटनाक्रम बहुत कुछ संकेत कर रहे हैं। साल भर से कम वक्त के भीतर अस्तित्व में आए दो राजनीतिक दलों ने प्रशासन पर अपना नियंत्रण कर लिया है। पर्यवेक्षकों का मानना है कि यह कोलकाता और दार्जिलिंग के बीच सहयोग के नए चरण का आगाज करेगा और पहाड़ों में भी अब बहुदलीय राजनीति फल-फूल सकेगी। अहम बात यह है कि दोनों दलों ने गोरखालैंड राज्य की मांग का सवाल नहीं उठाया, जबकि 1980 के दशक के मध्य से ही यहां अलग राज्य की मांग करने वाले दलों को ही समर्थन मिलता रहा है। इस राजनीति की प्रतिनिधि हामरो पार्टी (एचपी) है, जो पिछले नवंबर अस्तित्व में आई। मार्च में इस पार्टी ने दार्जिलिंग नगर पालिका के चुनाव में 32 में से 18 सीटों पर जीत हासिल की। नौ सीटें पिछले सितंबर में बनी पार्टी भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा (बीजीपीएम) के खाते में गईं। बची हुई पांच सीटों में तीन, बिमल गुरुंग की पार्टी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने जीतीं। 2011 में इस पार्टी ने सभी 32 सीटों पर निर्विरोध कब्जा किया था। 2017 में उसके सामने तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) थी लेकिन 32 में से 31 सीटें जीत कर वह दोबारा सत्ता में आई। पिछले साल दार्जिलिंग और कुर्सियांग असेंबली की सीटें जीतने वाले भाजपा-गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) का इस बार खाता भी नहीं खुला।
उसके बाद जून में भाजपा, जीएनएलएफ और जीजेएम ने अर्धस्वायत्त गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) के चुनाव का कई कारणों से बहिष्कार किया, तब बीजीपीएम ने 45 में से 27 सीट जीती और आठ सीटों के साथ हामरो पार्टी दूसरे स्थान पर रही। टीएमसी के खाते में पांच सीटें आईं। पांच सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों को गईं। यहां नगर निकाय चुनाव के मुकाबले जीटीए के चुनाव ज्यादा अहमियत रखते हैं क्योंकि सिलिगुड़ी उपप्रखंड की कुछ सीटों के अलावा इसमें पूरा कलिमपोंग जिला और दार्जिलिंग जिले के दोनों उपप्रखंड दार्जिलिंग और कुर्सियांग शामिल हैं।
महज तीन महीने के भीतर दो ऐसे नए राजनीतिक दल केंद्र में आ चुके हैं, जिनका वादा है कि वे राज्य सरकार के साथ सहयोग कर इस क्षेत्र का विकास करेंगे। करीब तीन दशक से इन पहाड़ों पर केवल दो दलों का कब्जा रहा है। जीएनएलएफ के सुभाष घीसिंग और बिमल गुरुंग।
कलिमपोंग में रहने वाले एक नेपाली कवि और पत्रकार मनोज बोगाती कहते हैं, “भाजपा-जीएनएलएफ-जीजेएम का गठजोड़ 2019 के लोकसभा और असेंबली उपचुनावों में दार्जिलिंग के लिए स्थाई समाधान का वादा कर जीता था, लेकिन तबसे उसने कुछ नहीं किया। किसी स्थाई राजनीतिक समाधान की ओर जब तक केंद्र सरकार कदम नहीं बढ़ाती, तब तक दोनों नए दल, बीजीपीएम और एचपी ही पहाड़ों पर राज करेंगे।”
भाजपा ने ‘स्थायी राजनीतिक समाधान’ को कभी भी ‘पूर्ण राज्य’ के रूप में परिभाषित नहीं किया। उसे पता है कि पश्चिम बंगाल को दो हिस्से में तोड़ना बाकी राज्य में उसकी सियासी किस्मत को प्रभावित कर सकता है। पार्टी से उम्मीद की गई थी कि जीटीए के राज के मुकाबले इस क्षेत्र को वह ज्यादा स्वायत्तता प्रदान करे। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अक्टूबर 2020 में जीजेएम के गुरुंग ने भाजपा छोड़ टीएमसी का दामन थाम लिया। उनका आरोप था कि भाजपा अपने वादे निभाने के लिए कुछ नहीं कर रही।
जीटीए के चुनाव में जीत के बाद बीजीपीएम के प्रमुख अनित थापा ने कहा, “राज्य सरकार से टकराव मोल लेकर कोई फायदा नहीं। हमें स्थानीय विकास की जरूरतों को केंद्र में लाना होगा।” हामरो पार्टी के मुखिया अजॉय एडवर्ड्स ने स्पष्ट किया कि अलग राज्य उनका दीर्घकालिक लक्ष्य है लेकिन शांतिपूर्ण तरीके से।
जटिल राजनीतिक इतिहास
स्वर्गीय सुभाष घीसिंग की जीएनएलएफ ने अस्सी के दशक के मध्य से दार्जिलिंग की पहाड़ियों और आस-पड़ोस पर मजबूती से राज किया। गोरखालैंड के लिए चले हिंसक आंदोलन के बाद घीसिंग ने 1988 में बने अर्ध स्वायत्त दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) को चलाया। यह सिलसिला तब टूटा जब बिमल गुरुंग ने 2007 में अपने गुरु घीसिंग पर राज्य सरकार से समझौता करने का आरोप लगाकर बगावत कर दी।
गुरुंग की बगावत ने जीजेएम को जन्म दिया। उसने जीएनएलएफ की जगह ले ली और दार्जिलिंग की पहाड़ियों में सबसे प्रमुख और इकलौती राजनीतिक ताकत बनकर उभरा। टीएमसी के 34 साल पुरानी वाम मोर्चा सरकार को सत्ताच्युत करने के बाद जीटीए का गठन राज्य सरकार, केंद्र और जीजेएम के बीच त्रिपक्षीय समझौते के बाद हुआ। गुरुंग के समर्थन से भाजपा ने 2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव में दार्जिलिंग की सीट आसानी से जीत ली। पांच साल जीटीए को चलाने के बाद गुरुंग की जीजेएम ने 2017 में स्वायत्तता के अभाव के नाम पर उसे खारिज कर दिया और अलग राज्य की मांग करते हुए हिंसक आंदोलन चलाया। इसके कारण 105 दिन पहाड़ बंद रहा। इस बंद के चलते जीजेएम में दो फाड़ हुए। अनित थापा और बिनॉय तमांग के विरोधी धड़े ने अपना संगठन बनाकर शांति और विकास के लिए राज्य सरकार के साथ सहयोग की बात कही। उसने जीजेएम को कमजोर कर दिया और उसका फायदा उठाकर जीएनएलएफ ने सुभाष के बेटे मान घीसिंग की अगुआई में वापसी की।
विधानसभा चुनाव 2021 से पहले एक दिलचस्प घटनाक्रम में गुरुंग अक्टू्बर 2020 में बाहर आए और टीएमसी का हाथ थाम लिया। यूएपीए के तहत लगाए गए मुकदमे के बाद 2017 से ही भूमिगत थे। इस असेंबली चुनाव में पहली बार एक पार्टी के वर्चस्व के टूटने की आहट मिली। चुनाव से पहले भाजपा में गए गुरुंग धड़े के पूर्व प्रवक्ता बीपी बजगाईं कुर्सियांग से जीत गए। जीएनएलएफ के नीरज जिम्बा भाजपा के टिकट पर दार्जिलिंग की सीट बचा ले गए और थापा-तमांग धड़े के रुदेन लेपचा कलिमपोंग से जीत गए।
इस सियासी उलटफेर ने 2021 के उत्तरार्द्ध में ठोस शक्ल लेनी शुरू की। बिनॉय तमांग ने थापा-तमांग धड़े को छोड़ दिया, तब थापा ने सितंबर में बीजीपीएम की नींव रखी। तमांग टीएमसी में चले गए। नवंबर में जीएनएलएफ के नेता और मशहूर रेस्तरां ग्लेनरीज के मालिक अजॉय एडवर्ड्स ने हामरो पार्टी की शुरुआत की।
मार्च में दार्जिलिंग नगर पालिका चुनाव 2017 में अलग राज्य के लिए हुए आंदोलन के बाद से पहला स्थानीय निकाय चुनाव था। इस चुनाव के सफलतापूर्वक संपन्न हो जाने से सरकार उत्साहित हुई। उसने 2017 से ही लंबित जीटीए के चुनाव करवाने का फैसला किया। जीटीए का पहला कार्यकाल खत्म होने से ठीक पहले अलग राज्य की मांग पर आंदोलन शुरू हो गया था, इसलिए जीटीए का चुनाव तब से अटका पड़ा था। जीएनएलएफ ने इस फैसले को कलकत्ता हाइकोर्ट में चुनौती दी। जीटीए को असंवैधानिक इकाई करार देते हुए उसने न्यायालय से मांग की कि वह राज्य सरकार को चुनाव रोकने का आदेश दे। लेकिन न्यायालय ने उलटे सरकार को चुनाव कराने के लिए हरी झंडी दे दी।
इस चुनाव का जीएनएलएफ और भाजपा ने बहिष्कार किया ताकि उनकी ओर से जीटीए को कोई वैधता न मिल जाए। गुरुंग ने भी बहिष्कार किया। इस चुनाव में महज 56 फीसदी मतदान हुआ, पर रिकॉर्ड 277 प्रत्याशी 45 सीटों पर लड़े। इनमें 171 निर्दलीय थे। पहाड़ों के लिहाज से यह दुर्लभ चुनाव था।
वे दिन गएः एक प्रदर्शन में गोरखालैंड के कार्यकर्ता
दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़े कुर्सियांग निवासी चेपल शेरपा के मुताबिक, “पहले जीएनएलएफ और जीजेएम के राज में चुनाव का मतलब एक ही पार्टी हुआ करती थी। इस बार लोग किसी को भी वोट देने के लिए स्वतंत्र थे और विकल्प ढेर सारे थे। साथ ही निर्दलीयों की संख्या भी अभूतपूर्व थी।”
उनका मानना है कि इन चुनावों ने दिखाया कि कैसे भाजपा और केंद्र ने स्थायी राजनीतिक समाधान देने के अपने वादे से मुकर कर यहां की जनता का अपमान किया है। शेरपा कहते हैं, “नतीजे दिखाते हैं कि फिलहाल लोगों ने जीटीए के विकास के वादे पर अपना भरोसा जता दिया है, क्योंकि स्थायी राजनीतिक समाधान का भारी-भरकम वादा कहीं से कुछ ठोस नतीजा देता नहीं दिख रहा।”
यहां एक और पार्टी परिदृश्य में आने वाली है, जो अहिंसक तरीकों से अलग राज्य की मांग उठाने का वादा कर रही है। इसे एक विकास अर्थशास्त्री और जेएनयू में अंतरराष्ट्रीय संबंध के प्रोफेसर महेंद्र पी. लामा शुरू कर रहे हैं। वे मूल रूप से दार्जिलिंग के हैं और सिक्किम युनिवर्सिटी के संस्थापक कुलपति रह चुके हैं। लामा 2014 के लोकसभा चुनाव में निर्दलीय लड़े थे और पांच फीसदी वोट लाए थे। बाद में वे जन आंदोलन पार्टी में चले गए। यह पार्टी जीजेएम से टूट कर बनी थी और फिलहाल निष्क्रिय है।
लामा सिक्किम के मुख्य आर्थिक सलाहकार भी हैं। उन्होंने आउटलुक को बताया, “हम गोरखालैंड को केवल गोरखाओं की धरती के रूप में नहीं देखते। यह बंगालियों, मारवाड़ियों और हर उस व्यक्ति की होगी जो यहां रहता है। हमारी समझ में राज्य का सवाल जातीयता से ज्यादा भौगोलिकता का होता है। राज्य बनने से दार्जिलिंग संपन्न हो सकेगा। इस संपन्नता का लाभ पश्चिम बंगाल को भी मिलेगा।”
इन पहाड़ों में राजनीतिक शून्यता ने हमेशा चौंकाने वाली चीजों को जन्म दिया है। यहां का मौजूदा शांतिमय माहौल कहीं तूफान से पहले की शांति तो नहीं, यह देखने वाली बात होगी।