यह छोटा-सा राज्य कांग्रेस के बिखराव से ऐसी दूसरी पार्टियों की पैठ का नमूना है, जिनका जनाधार यहां बेहद थोड़ा है। गोवा में सबसे हालिया प्रवेश तृणमूल कांग्रेस का है। पहले तो यह अपनी ताकत दिखाने का दावा कर रही थी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री
ममता बनर्जी ने दो दौरे भी किए। लेकिन हाल में उसकी चुनाव प्रभारी महुआ मोइत्रा ने विपक्षी एकता की गुहार लगाई, कहा कि कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से बात हुई है। अपने नेताओं को तोड़ने की कड़वाहट से कांग्रेस को बात नहीं पची।
जोड़तोड़ से 10 साल से सत्ता में काबिज भाजपा सत्ता-विरोधी रुझान से ग्रस्त है। मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत से स्थितियां संभल नहीं रही हैं। दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर ने अपनी मृत्यु तक महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी) और जीएफपी को साथ रखा था। अब ये दल भाजपा के खिलाफ हैं। पूर्व मंत्री माइकल लोबो की कांग्रेस में वापसी से भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती उत्तर गोवा में होगी। पर्रीकर के बेटे उत्पल भी खम ठोंक चुके हैं।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो उसने पिछले पांच साल में सबसे ज्यादा नुकसान उठाया है। 2017 में वह 17 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी। सामूहिक दलबदल और इस्तीफों से उसके केवल दो विधायक बचे। राज्य अध्यक्ष लुइजिन्हो फलेरो और कार्यकारी अध्यक्ष एलेक्सियो रेजिनाल्डो लॉरेंसो टीएमसी में चले गए। वैसे, दो असरदार नेताओं के आने से कांग्रेस का हौसला कुछ बढ़ा है। पूर्व मंत्री लोबो के अलावा सांगुएम से निर्दलीय विधायक प्रसाद गांवकर भी पार्टी में शामिल हुए। लोबो का कालांगुट, सिओलिम, मापुसा और सालिगाओ की सीटों पर दबदबा है। कांग्रेस उनकी मदद से कम से कम चार सीटों पर भाजपा को नुकसान पहुंचा सकती है।
कांग्रेस सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर चुकी है, सहयोगी जीएफपी को भी दो सीटों से संतोष करने को मना लिया है। जीएफपी प्रमुख सरदेसाई के लोबो के साथ अच्छे समीकरण हैं। कांग्रेस ने राकांपा-शिवसेना से गठजोड़ करने से शायद इसलिए मना कर दिया कि भाजपा के वोटों के बंटवारे से उसे लाभ हो सकता है।
तृणमूल की आमद से गोवा का राजनीति का परिदृश्य बदल गया है। पहले भाजपा-कांग्रेस में सीधा मुकाबला माना जा रहा था, अब लड़ाई चौतरफा और राकांपा-शिवसेना को भी एक पक्ष मान लिया जाए तो पांच तरफा हो गई है। तृणमूल ने पिछले साल अक्टूबर में राज्य कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री फलेरो को अपने पाले में लाकर हैरान कर दिया था। पार्टी ने मडगांव इलाके में दबदबा रखने वाली गोवा फॉरवर्ड पार्टी (जीएफपी) की तरफ भी दोस्ती का हाथ बढ़ाया। चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर जीएफपी के टीएमसी में विलय और उसके प्रमुख विजय सरदेसाई को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के पक्ष में थे। सरदेसाई ने यह पेशकश ठुकरा दी और कांग्रेस के साथ चले गए।
तृणमूल की सबसे बड़ी उपलब्धि एमजीपी के साथ गठबंधन है, जो 1970 के दशक में यहां राज कर चुकी है। अब राज्य के 40 में से महज सात विधानसभा क्षेत्रों में एमजीपी की अच्छी मौजूदगी है। ममता की पार्टी और हिंदुत्ववादी एमजीपी के बीच गठबंधन गोवा चुनाव का बड़ा विरोधाभास है। हालांकि दोनों पार्टियों ने गठजोड़ को जायज ठहराया। मोइत्रा ने बीते 7 दिसंबर को कहा, ‘‘यह गठबंधन तृणमूल के लड़ाकू जज्बे और गोवा में एमजीपी के लंबे इतिहास का अद्भुत मेल है। हम मानते हैं कि यह एकता गोवा को आगे ले जाएगी।’’ एमजीपी प्रमुख दीपक धवलीकर का भाजपा के साथ अनुभव कड़वा रहा है। 2019 में उसने एमजीपी में फूट डालकर उसके तीन में से दो विधायक तोड़ लिए और सुदीन धवलीकर को सरकार से निकाल दिया।
भाजपा चतुराई से पत्ते खेल रही है। वह लोबो की काट के लिए दो असरदार युवा विधायकों जयेश सालगांवकर और रोहन खाउंटे को अपने पाले में ले आई। मुख्यमंत्री सावंत ने दावा किया, ‘‘2022 में हमारा लक्ष्य 22 सीटों का था, पर अब लगता है कि हम पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आएंगे।’’
आप और नई गोवा सु-राज पार्टी वोटकटवा पार्टियां हैं। आप 2017 में खाता तक नहीं खोल पाई थी। इस बार भी पार्टी के पास शीर्ष पर कोई भरोसेमंद चेहरा नहीं है। उसके राज्य संयोजक राहुल मापुसा से मैदान में उतर रहे हैं। गोवा सु-राज पार्टी की अगुआई आप के पूर्व नेता मनोज परब कर रहे हैं। कुल मिलाकर गोवा का मैदान उलझा हुआ है।