याद करिए नब्बे के दशक का आखिरी दौर जब भारतीय जनता पार्टी को “राजनीतिक अस्पृश्य” समझा जाता था। 1996 में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी भाजपा की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी सरकार किसी सहयोगी के अभाव में 13 दिनों में ही गिर गई थी। उसके बाद एनडीए बना तो 1998 में भी अन्नाद्रमुक के समर्थन खींचने से 13 महीने में सरकार गिर गई। लेकिन 2014 और फिर 2019 के आम चुनावों के बाद तो नरेंद्र मोदी की अगुआई में अजेय रथ से, कुछ ही अलग रहना चाहते थे। वैसे, यह छह महीने पहले की बात है। भाजपा सहयोगी दलों पर अपनी मनमाफिक शर्तें डाल रही थी और कोई चुनौती नहीं उभर रही थी। लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा नतीजों ने पूरा परिदृश्य ही बदल दिया है। पहले तो उसकी सबसे पुरानी साथी शिवसेना ने महाराष्ट्र में उसका साथ छोड़ा। फिर झारखंड में उसके सहयोगी आजसू (ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन) ने भी ऐन चुनाव से पहले गठबंधन तोड़ लिया। अब तीसरे अहम साथी लोक जनशक्ति पार्टी ने भी झारखंड में अलग से चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं। सहयोगियों ने महाराष्ट्र और हरियाणा चुनावों से पहले अजेय दिखने वाली मोदी-शाह की जोड़ी के सामने नई चुनौती पेश कर दी है।
भाजपा के लिए खड़ी होती नई चुनौती पर स्वराज इंडिया के प्रमुख योगेंद्र यादव कहते हैं, “हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजों से साफ है कि मोदी सरकार के खिलाफ नाराजगी बढ़ रही है। वह दौर बीत चुका है जब भाजपा किसी भी गधे-घोड़े को टिकट देकर चुनाव जीत रही थी। भाजपा को अब आने वाले विधानसभा चुनावों में एक-एक सीट पर कड़ी टक्कर मिलने वाली है। उसे अब अपनी रणनीति बदलनी होगी, वह पहले की तरह एकतरफा तरीके से नहीं जीत पाएगी।”
सहयोगियों में भाजपा के खिलाफ किस तरह से नाराजगी बढ़ी है, इसका अंदाजा उसके एक प्रमुख सहयोगी दल के एक वरिष्ठ नेता के बयान से लग जाता है, “देखिए, समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता है। एक समय था जब जनता दल के नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह, भाजपा के साथ गठबंधन होने के बावजूद कहा करते थे कि उनकी रैली में भाजपा का एक भी नेता और बैनर नहीं दिखना चाहिए। उस समय भाजपा अपनी थोड़ी-सी उपस्थिति दर्ज कराने को लालायित रहती थी। समय बदला, अब भाजपा वैसा ही व्यवहार कर रही है। लेकिन उसे नहीं भूलना चाहिए कि वह कई राज्यों में इन्हीं सहयोगी दलों की बदौलत इस मुकाम पर पहुंची है।”
शिवसेना ने भी भाजपा से नाता तोड़ते हुए यही कहा कि लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपनी काफी मनमानी चलाई थी, अब ऐसा नहीं चलने वाला। भाजपा ने 50-50 के फार्मूले का जो वादा किया गया था, उसे भी नहीं निभा रही है, इसलिए साथ रहने का कोई मतलब नहीं है। लेकिन सवाल यह उठता है कि सहयोगी दल अचानक क्यों भाजपा के खिलाफ बगावत पर उतर आए जबकि उन्हें दिक्कतें पहले से थीं? इसका जवाब हरियाणा में सरकार गठन में दिखता है। भाजपा ने जैसे वहां जननायक जनता पार्टी के साथ समझौता कर आनन-फानन सरकार बनाई और दुष्यंत चौटाला को उप-मुख्यमंत्री का पद दिया, उससे साफ हो गया कि भाजपा दबाव में आ गई है। पार्टी पर यह दबाव राज्य में कैबिनेट विस्तार में हुई देरी से भी दिखता है, जबकि 2019 में जद (यू) को जब केंद्रीय मंत्रिमंडल में मनमाफिक जगह नहीं मिली तो उसने बाहर रहने का फैसला किया था, तो भाजपा उसकी नाराजगी की परवाह करती नहीं दिखी थी।
साफ है कि छह महीने पहले वाली स्थिति अब नहीं है। सहयोगी दल भाजपा से मोल-भाव करने की स्थिति में आ गए हैं। इस मामले में भाजपा के एक वरिष्ठ नेता का कहना है, “हमें अंत तक उम्मीद थी कि शिवसेना के साथ हमारी सरकार बन जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अभी हम इसे नहीं समझ पा रहे हैं इसलिए हरियाणा में कैबिनेट विस्तार के बारे में अभी कुछ भी सोचना बेमानी है। हमारा पूरा फोकस अभी महाराष्ट्र पर है। जहां तक सहयोगी दलों के दबाव की बात है, तो पार्टी सबको साथ लेकर चलती है।”
लेकिन भाजपा नेता जिस साथ की बात कर रहे हैं, कहानी उससे थोड़ी अलग दिखती है। झारखंड में सीटों को लेकर जब राज्य इकाई में आजसू के साथ बात नहीं बन पाई, तो अमित शाह को आजसू प्रमुख सुदीप महतो के साथ दिल्ली में बैठक करनी पड़ी। आजसू 19 सीटें लेने पर अड़ी हुई थी। तीन दिन तक मुख्यमंत्री रघुवर दास दिल्ली में डेरा डाले हुए थे। एक भाजपा नेता का कहना है, “पिछली बार आजसू को आठ सीटें मिली थीं, इस बार हम 12 से ज्यादा सीटें नहीं दे सकते।” आजसू के तेवर देखकर लोक जनशक्ति पार्टी के नवनिर्वाचित अध्यक्ष चिराग पासवान ने भी बगावती रुख अपना लिया है। उन्होंने साफ कहा है, “अगर सीटों का बंटवारा सही समय पर नहीं हुआ तो पार्टी अलग रास्ता अपना सकती है। हमने राज्य में छह सीटों पर लड़ने की मांग की थी, लेकिन लगता है भाजपा ने उसकी परवाह नहीं की और उन्हीं छह सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर दिए हैं।” अब लोजपा झारखंड में 50 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है।
बदलती परिस्थिति का एहसास भाजपा को भी होने लगा है। इसीलिए जैसे ही बिहार में राज्य के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने नीतीश कुमार की जगह भाजपा के किसी नेता के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का शिगूफा छोड़ा, तुरंत ही मौके की नजाकत को समझते हुए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को बयान जारी करना पड़ा कि बिहार में चेहरा नीतीश कुमार ही होंगे। भाजपा के पुराने सहयोगियों में से एक रह चुकी पार्टी के वरिष्ठ नेता का कहना है, “जब अटल बिहारी वाजपेयी के समय एनडीए का गठन हुआ था, तब भाजपा भले सबसे बड़े दल के रूप में थी लेकिन उसे अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं था और सहयोगी दलों को भी खास तवज्जो मिलती थी। उस वक्त एनडीए के संयोजक जद (यू) नेता जॉर्ज फर्नांडिस हुआ करते थे। उस दौर में रक्षा मंत्री, रेल मंत्रालय जैसे अहम पद सहयोगी दलों के पास हुआ करते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब तो कभी-कभार होने वाली एनडीए की बैठक भी रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं है।”
दरअसल, भाजपा के सहयोगी दलों की नाराजगी सिर्फ सत्ता में अहम भागीदारी न मिलने से ही नहीं है, बल्कि उनके सामने अस्तित्व का संकट भी खड़ा होता दिख रहा है। सहयोगी दलों के नेताओं को लगता है कि भाजपा जिस तरह विस्तार कर रही है, ऐसे में एक दिन वह उनके वोट बैंक को भी खा जाएगी। इसका उदाहरण हाल ही में बिहार में हुए उपचुनावों में भी दिखा। वहां अक्टूबर में हुए पांच सीटों के उपचुनाव में जद (यू) केवल एक सीट जीत पाई जबकि उसने चार सीटों पर चुनाव लड़ा था। अंदेशा है कि भाजपा वोटरों ने वोट नहीं दिया। इस बात के भी सुर उठने लगे कि जद (यू) अब भाजपा के सहारे ही चुनाव जीत सकती है। ऐसा ही डर, शिवसेना की नाराजगी में भी दिखता है। क्योंकि अगर वह भाजपा की शर्तें मानकर सरकार बनाती तो उसके लिए अपने काडर के सामने, सम्मान के साथ खड़े होना आसान नहीं होता। महाराष्ट्र में भाजपा की लंबे समय की रणनीति क्या है, इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पदाधिकारी की बातों से समझा जा सकता है। उनके अनुसार, विधानसभा चुनावों से पहले स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं का साफ मानना था कि शिवसेना से गठबंधन न किया जाए, यह मौका था जब भाजपा अपने दम पर बहुमत ला सकती थी और शिवसेना को खत्म कर सकती थी। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने बात नहीं मानी। अब शिवसेना से दूरी का आगे फायदा मिलेगा।
बहरहाल, महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजों ने भाजपा के लिए परेशानी बढ़ा दी है। उसे अब विपक्ष के साथ-साथ अपने सहयोगी दलों से भी कड़ी टक्कर मिलने वाली है। अब देखना यह है कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी इस नई चुनौती से कैसे निपटती है। क्या भाजपा ‘एकला चलो’ की नीति पर आगे बढ़ेगी या फिर सहयोगी दलों के आगे झुक कर उनको ज्यादा तवज्जो देगी? यह बहुत हद तक झारखंड विधानसभा चुनावों के नतीजों से तय हो जाएगा।