Advertisement

आवरण कथा/नजरिया: सुलह-सफाई की दरकार

भारत अपने हितों की रक्षा के लिए तालिबान और वहां अपने अनेक दोस्तों से कूटनयिक बातचीत जारी रखे
कंधार हवाई अड्डे पर अफरा-तफरी का माहौल

अमेरिका और दूसरी विदेशी ताकतों ने बिस्तर बांधा तो तालिबान ने फतह का ऐलान कर दिया। वह पहली प्रांतीय राजधानी निमरोज पर कब्जे के महज नौ दिनों के भीतर काबुल के राष्ट्रपति महल अर्ग में दाखिल हो गया। तालिबान के मुताबिक, दोहा शांति करार से अमेरिका के अफगानिस्तान से हटने का फैसला आगे बढ़ा। उसका सही ही संकेत है कि अमेरिका हार गया और काबुल में उसके मार्च को नहीं रोक सका। तालिबान ने सुलह का इरादा जाहिर किया था और मुल्ला गनी बारादर की अगुआई में एक टीम भी दोहा पहुंची थी, लेकिन उसने साफ कर दिया था कि अमेरिका द्वारा स्थापित सत्ता और संविधान को जाना होगा।

पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी ने 2014 और 2019 के चुनाव फर्जीवाड़े से जीते थे। अकादमिक जगत के गनी ने भले एक किताब फिक्सिंग फेल्ड स्टेट्स लिखी, मगर प्रशासन में बेहद कच्चे थे। आखिर वे अफगानिस्तान की 'फिक्सिंग' में ही लग गए। राष्ट्रपति बनने के फौरन बाद वे पाकिस्तान गए और राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री से पहली भेंट करने की जगह रावलपिंडी में पाकिस्तान फौज के मुख्यालय में पहुंच गए, ताकि तालिबान के हमले बंद हों। लेकिन वे नाकाम रहे। पिछले कुछ महीनों में उन्होंने ब्रिटेन के चीफ ऑफ जनरल स्टाफ निकोलस कार्टर के जरिए पाकिस्तान के फौजी हुक्मरान जनरल बाजवा से मदद लेने की कोशिश की, ताकि छह महीने तक संक्रमणकालीन सरकार के मुखिया बने रह सकें।

तालिबान जब तेजी से काबुल की ओर बढ़ रहा था तो 10 और 12 अगस्त को दोहा में 'ट्रोयका प्लस' अमेरिका, चीन, रूस और पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विशेष दूतों के बीच बैठक में अफगान शांति प्रक्रिया को तेज करने की ही बातें हो रही थीं। महत्वपूर्ण यह है कि पहले की बैठकों के विपरीत इस्लामी अमीरात की स्थापना को खारिज नहीं किया गया। तालिबान ने इंतजार किया और 72 घंटों के भीतर अशरफ गनी भाग गए और काबुल पर तालिबान का कब्जा पूरा हो गया।

तालिबान का मकसद बड़ी अफगान आबादी के विचारों के विपरीत सत्ता स्थापित करना है। उसे तख्त बिना चुनावों के चाहिए। वह बहुलतावादी लोकतंत्र को जारी रखने के खिलाफ है। मानवाधिकार और बुनियादी स्वतंत्रता के प्रति उसकी प्रतिबद्धता संदिग्ध है। वह औरत-मर्द बराबरी में यकीन नहीं रखता। फिर भी मान्यता हासिल करने और मदद जारी रखने के खातिर वह समावेशी सरकार की पेशकश कर रहा है, जो अफगानिस्तान के सभी कबीलाई आबादी के हितों का प्रतिनिधित्व करे।

तालिबान उदार चेहरा पेश करने की कोशिश कर रहा है। कहा जा रहा है कि उसने पिछली गलतियों से सीखा है। लेकिन उसके सहयोगी गुट जैसे अल कायदा, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, पूर्वी तुर्केस्तान इस्लामी मूवमेंट, इस्लामी मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान, लश्कर-ए-तैयबा, हिज्बुल मुजाहिदीन तो नहीं बदले हैं, जबकि जमीनी स्तर उनके काडर आपस में जगह बदलते रहते हैं। परंपरा से लक्षित हत्याएं तालिबान का तरीका रहा है। अब बदला भंजाने के लिए हत्या भी जुड़ गया है। इसकी शुरुआत फरयाब में समर्पण किए अफगान फौजी अधिकारियों और जवानों की हत्या से हुई। उसके बाद पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त भारतीय फोटो-पत्रकार दानिश सिद्दीकी की हत्या की गई। फिर कंधार के कमेडियन नजर मोहम्मद की हत्या की गई।

तालिबान के नेताओं को सफाई देनी चाहिए कि क्यों अफगानी लोग भागने की ख्वाहिश में उड़ते हवाई जहाजों के पहिए के नीचे दबकर या नीचे गिरकर मर रहे हैं। उन्हें लोगों को भरोसा दिलाना चाहिए। लड़कियों और महिलाओं को यकीन दिलाना चाहिए कि वे पढ़ाई-लिखाई और कामकाज जारी रख सकेंगी और ऊंची बोली लगाने वाले को नीलाम नहीं कर दी जाएंगी या उनका निकाह जबरन तालिबान लड़कों से नहीं कर दिया जाएगा।

जब यह पता चला कि मुल्ला मुहम्मद उमर कई महीने पहले गुजर गए तो जुलाई 2015 में तालिबान के नेता बने मुल्ला अख्तर मंसूर 10 महीने पहले पाकिस्तान में एक अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे गए। तालिबान का नया नेतृत्व मौलवी हिबातुल्ला अखुंदजादा और उनके तीन मातहतों के हाथ है। ये मुल्ला उमर के बेटे मुहम्मद याकूब, दोहा में तालिबान के सियासी दफ्तर के प्रमुख मुल्ला बारादर और मुजाहिदीन नेता जलालुद्दीन हक्कानी के बेटे सिराजुद्दीन हक्कानी हैं। हक्कानी 1995 में तालिबान से जुड़ गए थे। मुल्ला बारादर के अलावा हर किसी की छवि कट्टरपंथी की है।

भारत ने अफगान सरकार के जरिए तालिबान से संपर्क किया। सितंबर 2020 में दोहा में अफगानी गुटों की आपसी बातचीत के मौके पर भारत के विदेश मंत्री ने भी हिस्सा लिया। तब भारत की तालिबान से बातचीत औपचारिक हो गई। तालिबान का शुरुआती रुख भरोसेमंद था।

कई वरिष्ठ तालिबानी नेता जानते हैं कि पाकिस्तानी हुक्मरानों से जुड़ा होने की वजह से हक्कानी नेटवर्क भारत के लिए परेशानी का सबब है। स्टीव कोल ने अपनी ताजा किताब डाइरेक्ट्रेट एस में लिखा है कि हक्कानी नेटवर्क को पिछले पांच दशक से आइएसआइ की शह है। अफगान और अमेरिकी खुफिया ने जुलाई 2008 में काबुल में भारतीय दूतावास पर बम धमाके का जिम्मेदार सिराजुद्दीन हक्कानी को माना था। फिर लश्कर-ए-तैयबा और हिज्बुल मुजाहिदीन के 2001 के पहले ट्रेनिंग कैंप अफगानिस्तान में थे।

तालिबान का दर्शन और संगठन के ढांचा नहीं बदला है इसलिए यह सोचना मुश्किल है कि वह उदार हो गया है। उम्मीद है, अफगानिस्तान के लोगों को अपने सूफी कवि शेख शादी की याद होगी, जिन्होंने मसनवी में लिखा था, "खुदा पर भरोसा रखो। फिर भी रात में अपने शामियाने में जाने से पहले ऊंट की टांगे बांध दो।" अब ऊंट शामियाने के अंदर आ गया है तो उस पर काबू पाना चुनौती होगी। तालिबान के साथ बातचीत की कोशिश में लगे पूर्व राष्ट्रपति गुलबुद्दीन हिकमतयार और हाइ काउंसिल फॉर नेशनल रिकान्सिलिएशन के प्रमुख अब्दुल्ला अब्दुल्ला की भूमिकाएं भी अहम हैं।

(लेखक अफगानिस्तान में भारत के राजदूत रहे हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement