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अमेरिका-भारत: तिकड़ी से खुन्नस

मजबूरी में भारत का चीन और रूस की ओर हाथ बढ़ाना अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की चिढ़ बढ़ा रहा, मगर दोनों के लिए शायद नए तरह से सोचना रणनीतिक हितों के खातिर जरूरी
त्रिकोणः शंघाई में एससीओ सम्मेलन में शी के साथ पुतिन और मोदी (बीच में)

अब तक का सबसे चर्चित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का शिखर सम्मेलन चीन के तियानजिन में हुआ। अमेरिका और भारत में उस पर अलग-अलग प्रतिक्रियाएं हुईं। अमेरिका में इसे तानाशाहों का शिखर सम्मेलन बताकर खारिज किया, जिसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने एक सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा, ‘‘लगता है, हमने भारत और रूस को सबसे घने, सबसे अंधकारमय चीन के हाथों खो दिया है। ईश्वर करे कि उनका भविष्य लंबा और समृद्ध हो।’’ लेकिन असलियत इन दोनों प्रतिक्रियाओं के बीच कहीं है।

अमेरिका-भारत के बीच बढ़ती साझेदारी के साढ़े तीन दशक बाद भारत अपने मूल स्वरूप बहुपक्षीय अंतरराष्‍ट्रीय संबंधों पर लौट आया है। भारत के लिए बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था ही आदर्श है क्योंकि उसी में उसकी अहम भूमिका हो सकती है।

मनमौजी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्‍प के अराजक रुख से दुनिया में राजनैतिक और आर्थिक भूचाल से भारत-चीन संबंधों में नए बदलाव और ‘रूस-भारत-चीन’ तिकड़ी की चर्चाएं तेज हो गई हैं। अमेरिका के पश्चिमी और एशियाई सहयोगियों के बीच संबंध तो गहरे हैं, मगर पहले के गुटनिरपेक्ष खेमे के देशों ने रूस और चीन से रिश्‍ते बनाए रखे हैं। 2023 की गर्मियों में भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने द इकोनॉमिस्ट के इंटरव्‍यू में कहा था, ‘‘तीन बड़ी यूरेशियाई शक्तियों रूस, चीन और भारत के बीच यह लेन-देन का मामला नहीं, बल्कि भू-राजनैतिक मामला है।’’

पूर्वी लद्दाख की गलवन घाटी में 2020 में हुई झड़पों के बाद से भारत-चीन के बीच राजनयिक, आर्थिक और सुरक्षा रिश्‍ते तनावपूर्ण रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच आखिरी उच्चस्तरीय शिखर बैठक 2018 में हुई थी। दोनों ने किसी भी बहुपक्षीय सम्‍मेलन के दौरान मिलने से परहेज किया था। 2023 भारत में आयोजित जी20 शिखर सम्मेलन में शी नहीं आए थे।

दूसरे, वॉशिंगटन की नजरों से छिपा नहीं है कि दूसरी बार ट्रम्प के गद्दी संभालने के बाद चीन के साथ भारत के संबंधों में सुधार हुआ। पांच साल बाद दोनों देशों के बीच उड़ानें फिर शुरू हुईं, वीजा दिया जाने लगा और चीन ने हिंदू धार्मिक तीर्थस्थल कैलाश मानसरोवर यात्रा के रास्‍ते फिर खोलने की घोषणा की।

इसके अलावा, कई साल तक द्विपक्षीय बैठकों से बचने के बाद मोदी एससीओ शिखर सम्मेलन में शी से मिले और द्विपक्षीय वार्ताएं हुईं। भारत की ओर से मोदी की शी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ इन बैठकों को खूब प्रचारित किया गया। द्विपक्षीय बैठकों में दोनों देशों ने एक-दूसरे को ‘‘प्रतिद्वंद्वी नहीं, विकास का साझेदार’’ बताया और ‘‘आपसी सम्मान, पारस्परिक हित और पारस्परिक संवेदनशीलता’’ की आवश्यकता पर जोर दिया।

कई वर्षों से, भारत दुनिया में चीन को अलग-थलग करने की अमेरिकी मुहिम का हिस्सा माना जाता रहा है। लेकिन ट्रम्‍प के आर्थिक दबाव के कारण चीन के साथ भारत के संबंधों में नरमी आई है। चीन भारत के शीर्ष व्यापारिक साझेदारों में एक है, लेकिन भारत का चीन के साथ भारी व्यापार घाटा है। असल में, भारत अपना औद्योगिक इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर बढ़ाना चाहता है, इसलिए वह कच्‍चे माल से लेकर स्पेयर पार्ट्स और औद्योगिक उपकरणों तक के लिए दुनिया के कारखाने यानी चीन पर निर्भर है।

गलवन घाटी की घटना के बाद भारत ने चीनी निवेशों पर कड़ी निगरानी और टिकटॉक सहित कई चीनी ऐप पर प्रतिबंध लगा दिया। चीन ने भी भारत में एप्पल के कारखानों में काम कर रहे चीनी इंजीनियरों को वापस बुला लिया और भारत को किसी भी औद्योगिक उपकरण और दूसरे औद्योगिक उत्पादों के निर्यात पर रोक लगा दी। पांच वर्षों तक प्रतिबंधों के बाद चीन जुलाई 2025 में भारत के लिए अहम उर्वरक, दुर्लभ अर्थ मैटेरियल, चुंबक, खनिज और सुरंग खोदने वाली मशीनों के निर्यात पर राजी हुआ। ट्रम्‍प प्रशासन की बेरुखी जारी रहती है, तो भारत अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए चीन से अधिक निवेश की राह खोल सकता है।

अमेरिकी दबाव बढ़ने की वजह से ही शायद भारत ने रूस के साथ रिश्‍ते और भी अच्छे कर लिए हैं। दिसंबर में पुतिन की भारत यात्रा की चर्चा है। रूस के साथ भारत के दशकों पुराने संबंध लंबे समय से अमेरिकी नेताओं को परेशान करते रहे हैं, लेकिन मौजूदा ट्रम्प प्रशासन के तहत, ये संबंध अमेरिका-भारत साझेदारी के मूल सूत्रों को और भी ढीला कर रहे हैं।

इसके अलावा, ट्रम्प प्रशासन की नजर में रूस एक ‘मृत अर्थव्यवस्था’ है और भारत की तेल और रक्षा खरीद यूक्रेन संघर्ष को बढ़ावा दे रही है। हालांकि, भारत के लिए रूस रणनीतिक कारणों से महत्वपूर्ण बना हुआ है। हर देश का भूगोल उसकी विदेश और सुरक्षा नीति तय करता है। 1966 में चीन का सोवियत संघ से नाता टूटने के बाद से रूस- चाहे सोवियत संघ या उसके बिखरने के बाद- एशियाई महाद्वीप में भारत को चीन के मुकाबले संतुलन बनाने हिससे की तरह देखता रहा है।

इस तरह, भारत रूस से रक्षा उपकरण और ऊर्जा खरीदना जारी रखेगा। पिछले कुछ दशकों में भारत ने रक्षा सप्‍लाई के रिश्‍ते फ्रांस, इज्राएल और अमेरिका से तैयार किया है, लेकिन रूस तब भी सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता बना हुआ है। 2000 से, रूस ने भारत को लगभग 40 अरब डॉलर के हथियार बेचे हैं, जबकि अमेरिका ने 2008 से लगभग 24 अरब डॉलर के हथियार बेचे हैं।

भारत बहुपक्षीय और क्षेत्रीय, दोनों मंचों पर रूस के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखता है, जिसमें ब्रिक्स, एससीओ और जी20 शामिल हैं, ताकि चीनी प्रभुत्व को रोका जा सके और यह तय किया जा सके कि रूस इन बड़े गैर-पश्चिमी मंचों पर भारत के हितों का ध्यान रखे।

हालांकि, रूस अब सोवियत संघ की छाया मात्र है और चीन पर बहुत अधिक निर्भर है। भारत के लिए सबसे बुरा सपना 1960 के दशक की शुरुआत जैसा चीन-सोवियत संबंध होगा। भारत रूस से सस्ते रक्षा उपकरण खरीद सकता है, लेकिन उसकी तुलना अत्याधुनिक अमेरिकी उपकरणों से नहीं की जा सकती। अलबत्‍ता, अमेरिका के साथ सामरिक संबंध खराब भी होते हैं, तो भी भारत रूसी उपकरणों पर दोगुना जोर देने के बजाय यूरोप और एशिया में फ्रांस और जापान जैसे अमेरिकी सहयोगियों की ओर रुख करेगा।

इसी तरह, भारत चीन के साथ अपने संबंधों को बेहतर बनाने का प्रयास कर रहा है। हालांकि, उत्तरी पड़ोसी भारत के लिए प्रमुख खतरा और प्रतिद्वंद्वी रहा है और बना हुआ है। भले ही अमेरिका के नेतृत्व वाली हिंद-प्रशांत रणनीति और चतुर्भुज समूह-क्वाड-खुद कमजोर पड़ जाए, भारत इस क्षेत्र में अपने मित्रों और साझेदारों के साथ काम करना जारी रखेगा क्योंकि अंततः यही भारत का ऐतिहासिक और भौगोलिक प्रभाव क्षेत्र है।

आखिरकार, दिल्ली और वॉशिंगटन दोनों ही समझते हैं कि भारत किसी पश्चिम-विरोधी (या अमेरिकी) समूह का नेतृत्व नहीं कर रहा है। भारत का हित अमेरिका के साथ घनिष्ठ रणनीतिक साझेदारी में निहित है, ठीक उसी तरह जैसे कोई भी अमेरिकी प्रशासन जो वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को प्राप्त करना चाहता है, वह दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश को नजरअंदाज नहीं कर सकता, जो महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र में स्थित है और जिसमें आर्थिक और सैन्य क्षमता है।

(वॉशिंगटन स्थित हडसन इंस्टीट्यूट में भारत और दक्षिण एशिया फ्यूचर इनिशिएटिव की निदेशक। विचार निजी हैं)

 

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