अगली चुनावी लड़ाई का एक प्रमुख मोर्चा 2000 में बिहार से टूटकर बना झारखंड भी है, जहां सत्तारूढ़ यूपीए भाजपा को चुनौती देने का पुरजोर तानाबाना बुन रहा है। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा इसी वजह से राज्य में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के हेमंत सोरेन की गठबंधन सरकार को अस्थिर करने की लगातार कोशिश में जुटी दिखती है, लेकिन उसके रचे हर चक्रव्यूह को अब तक तोड़ने में कामयाब रहे मुख्यमंत्री सोरेन लगातार अपना जनाधार बढ़ाने और राज्य सरकार को बनाए रखने में जुटे हुए हैं। हाल ही में उन्होंने 1932 के खतियान के अनुसार स्थानीयता नीति और ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने के फैसले से ऐसा दांव चल दिया है जो राज्य की 75 प्रतिशत से अधिक आबादी पर असर डाल सकता है। विधेयक के प्रारूप को कैबिनेट की मंजूरी मिल गई है। अब विधानसभा से इसे पास कराया जाना है। उधर, इसी सरगर्मी के बीच झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा के सीमावर्ती इलाकों के कुड़मी समुदाय को पहले की भांति अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का आंदोलन अचानक सुलग उठा है।
दरअसल इस सारी हलचल और जोड़तोड़ के केंद्र में 2024 के चुनाव हैं। उसी साल शुरू में लोकसभा और आखिरी महीनों में विधानसभा के चुनाव भी होने हैं। अब तक के आंकड़े संसदीय चुनाव में भाजपा के पक्ष में रहे हैं। अलग राज्य बनने के बाद 2004 को छोड़ दें तो भाजपा कुल 14 संसदीय सीटों में 10 से ज्यादा सीटें जीतती रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 11, उसकी सहयोगी आजसू को एक और कांग्रेस तथा झामुमो को एक-एक सीट हासिल हुई थी, हालांकि उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव की तस्वीर अलग रही और सोरेन की अगुआई में यूपीए गठबंधन की सरकार बनी। 2019 में 81 सदस्यीय विधानसभा में झामुमो 30, भाजपा 25, कांग्रेस 16, झाविमो 3, आजसू 2, राकांपा 1, भाकपा-माले 1, राजद 1 और निर्दलीयों ने 2 सीट जीती। बाद में झाविमो के दो सदस्य कांग्रेस में चले गए और पार्टी का अपने सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी सहित भाजपा में विलय हो गया। इस बार भाजपा के लिए 2019 के संसदीय नतीजों को दोहराना मुश्किल हो सकता है। पड़ोसी राज्य बंगाल के विधानसभा चुनाव में पराजय और बिहार में नीतीश कुमार के राजद से गले लगने के बाद झारखंड में कमल मुरझाया हुआ सा लगता है।
राज्य की अस्थिर राजनीति में हालांकि बाजी कब पलट जाए, कहना मुश्किल है। राज्य गठन की 22 साल की अवधि में भाजपा के रघुवर दास ही मुख्यमंत्री के रूप में अकेले पांच साल का कार्यकाल पूरा कर सके। पिछले चुनाव में आदिवासी सीटों पर भाजपा क्या पिछड़ी, उसे राज्य की सत्ता से ही बेदखल होना पड़ा। अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 28 सीटों में सिर्फ दो सीटों पर भाजपा सिमट गई। हेमंत की पूरी कोशिश है कि अपने आदिवासी वोट को बरकरार रखें और पिछड़ी जातियों तथा कुड़मी समुदाय को भी अपनी ओर खींचें।
शायद इसी वजह से सत्ता संभालने के साथ ही सोरेन आदिवासी और मूलवासी समुदाय की सभी मांगों और कल्याणकारी योजनाओं पर सक्रिय कदम उठाने लगे। बहुविवादित 1932 की खतियान आधारित स्थानीयता नीति, ओबीसी को 14 के बदले 27 प्रतिशत आरक्षण, एससी और एसटी के आरक्षण कोटा में भी दो-दो प्रतिशत की वृद्धि, नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज के विस्तार पर विराम, गुमला के पत्थलगड़ी केस की वापसी, पुरानी पेंशन नीति, 50 हजार शिक्षकों की नियुक्ति, पुलिसकर्मियों को क्षतिपूर्ति अवकाश जैसे कदम उठाए गए। यही नहीं, पत्थलगड़ी के मुकदमों की वापसी और सरना धर्म कोड, स्वास्थ्यकर्मियों, पैरा शिक्षकों, मदरसा शिक्षकों और आदिवासियों से जुड़े कई फैसलों से सोरेन ने अपने जनाधार को मजबूत किया है। उन्होंने सर्वजन पेंशन और धोती-साड़ी योजना से लाखों लोगों को जोडऩे की कोशिश की।
झारखंड में आदिवासियों की गोलबंदी के बिना सत्ता की उम्मीद बेमानी है। यहां 26 प्रतिशत से अधिक जनजाति आबादी है। 81 सदस्यीय विधानसभा में 28 सीटें और लोकसभा की कुल 14 में पांच सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। विधानसभा में इन 28 में दो सीटें ही भाजपा के हिस्से आई थीं जबकि लोकसभा में पांच में दो सीटें एक कांग्रेस और एक झामुमो के पास हैं। हेमंत ने सत्ता संभालते ही जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड सरना का पत्ता चला। विधानसभा से सर्वसम्मत प्रस्ताव पास कराकर केंद्र के पास भेजा। न चाहते हुए भी भाजपा को उसका समर्थन करना पड़ा। भाजपा को आज तक इसकी काट नहीं मिली। तब भाजपा ने पिछले साल बिरसा मुंडा को हाइजैक करने की योजना बनाई। बिरसा मुंडा की जयंती हर साल पूरे देश में जनजातीय स्वाभिमान दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया गया। झामुमो ने भी इस साल विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर पहली बार दो दिवसीय जनजातीय महोत्सव का आयोजन कर दिया। साहूकारों को कर्ज वापस न करने का नारा दिया तो विवाह और मृत्युभोज के लिए 110 किलो अनाज मुफ्त देने का ऐलान किया। आदिवासी वोटों की खातिर भाजपा ने संताल समुदाय की द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाया।
2014 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने आदिवासियों के लिए सुरक्षित 28 में से 13 सीटों पर जीत हासिल की थी मगर 2019 के चुनाव में जीती हुई 11 सीटें गंवा दीं। फिर चार उपचुनावों में भाजपा एक भी सीट नहीं जीत सकी। फिर भाजपा ने ओबीसी पर फोकस बढ़ाया। झारखंड में 50 प्रतिशत से अधिक पिछड़ा वर्ग की आबादी है, लेकिन सोरेन ने ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देकर बाजी अपने हाथ कर ली। ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण पर कांग्रेस लगातार आवाज उठाती रही है। उर्दू को सभी जिलों की क्षेत्रीय भाषाओं में शामिल कर और मॉब लिंचिंग बिल पेश कर मुसलमानों की सहानुभूति बटोरने की कोशिश भी सोरेन ने की।
रघुवर दास
भाजपा अलग-अलग खेमों में बंटी दिखती है। विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी, केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा, पूर्व मुख्यमंत्री व पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवर दास, प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश का अपना-अपना खेमा है। पार्टी पदधिकारियों में मास लीडर की कमी से ऐसे नेताओं में उत्साह का अभाव है। 2019 के संसदीय चुनाव में गठबंधन में गिरिडीह से एक सीट जीतकर संसदीय राजनीति में कदम रखने वाली आजसू पार्टी विधानसभा चुनाव में अलग होकर लड़ी। नुकसान के बाद वह फिर भाजपा के साथ है। इसका असर भी दिखेगा।
सोरेन सधे हुए नेता की भांति चाल चल रहे हैं, हालांकि प्रारंभ से ही भाजपा इस मुद्रा में हमलावर रही है कि हेमंत सरकार चंद दिनों की मेहमान है। करीब ढाई साल के कार्यकाल में बड़ा समय कोरोना महामारी की भेंट चढ़ गया। राज्य की माली हालत खराब रही। इस बीच सोरेन का फोकस आधारभूत संरचना के बदले वोटरों को रिझाने वाले फैसलों पर रहा। उनके करीबी लोगों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों और चुनाव आयोग के जरिये खुद की घेराबंदी के बाद हेमंत इस दिशा में और सक्रिय हो गए।
सियासत का ऊंट झारखंड में करवट बैठता है यह देखने वाली बात होगी। अगर भाजपा संसदीय चुनाव में सीटें गंवाती है तो उसके बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में एक रोचक परिदृश्य उभर सकता है।