हाल की राजनैतिक घटनाएं लोकतांत्रिक व्यवस्था और नैतिकता को लेकर नई बहस की गुंजाइश पैदा कर रही हैं। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम मतदाता एक प्रतिनिधि का चुनाव विचारधारा, उसके दल की नीति और संबंधित व्यक्ति तीनों को ध्यान में रखकर करता है। वह यह भी परखता है कि उसका प्रतिद्वंद्वी कौन है और क्यों वह किसी एक को चुनाव जीतने के लिए मत देता है। लेकिन जब उसका चुना हुआ प्रतिनिधि नैतिकता और मूल्यों को धता बताते हुए अपने आर्थिक और राजनैतिक स्वार्थ के लिए किसी दूसरे दल के साथ चला जाता है तो मतदाता खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। हाल के कुछ महीनों में इस तरह के वाकये बहुत तेज हुए हैं। उनके पीछे राजनैतिक लाभ थे, यह तो कई मामलों में बहुत साफ दिखता है, लेकिन आर्थिक या कोई दूसरे लाभ भी थे, यह बिना जांच और तथ्यों के कह पाना मुश्किल है।
दो बड़े मामले ताजा हैं। एक, गोवा में कांग्रेस के 15 में से 10 विधायक भाजपा में शामिल हो गए। उन पर दलबदल विरोधी कानून लागू नहीं होता, क्योंकि दो तिहाई सदस्यों ने पार्टी बदल ली है। इससे भाजपा का अब बहुमत हो गया है। चुनाव के वक्त उसकी सदस्य संख्या कांग्रेस से कम थी और उसने निर्दलीयों और छोटी पार्टियों को साथ लेकर सरकार बनाई थी। लेकिन अब भाजपा ने दूसरे सहयोगियों को विदा किया और कांग्रेस से आए विधायकों में से एक को उप-मुख्यमंत्री बना दिया। जाहिर है, कांग्रेसी विधायकों का हृदय- परिवर्तन किसलिए हुआ था। लेकिन उन मतदाताओं के भरोसे का क्या होगा, जिन्होंने इन विधायकों को भाजपा के उम्मीदवारों को हराने के लिए वोट दिया था।
ऐसा ही दिलचस्प मामला तेलंगाना का है। वहां तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) की भारी बहुमत की सरकार है। पिछले दिनों कांग्रेस के 18 में से 12 विधायक टीआरएस में शामिल हो गए। यानी सत्तारूढ़ पार्टियां किसी तरह का विपक्ष ही नहीं चाहतीं।
एक बड़ा मामला तेलुगु देशम पार्टी के राज्यसभा सदस्यों का है। पार्टी के छह सांसदों में से चार भाजपा में शामिल हो गए। इनमें से कई सांसदों पर भाजपा पहले भ्रष्टाचारी होने का आरोप लगाती रही है। ऐसे में इंडियन नेशनल लोकदल (आइएनएलडी) का इकलौता राज्यसभा सदस्य भाजपा में शामिल हो गया तो चर्चा ही नहीं हुई। राज्यसभा में बहुमत न होने से भाजपा को अपने कई विधेयकों को पारित कराने में दिक्कत आई, इसलिए शायद वह बहुमत के लिए सदस्यों को 'आयात' करने की कोशिश में है।
भाजपा की यह 'आयात' नीति यहीं तक सीमित नहीं है। पार्टी के एक बड़े पदाधिकारी ने पिछले दिनों बयान दिया कि टीडीपी के अधिकांश विधायक भाजपा में आने वाले हैं। ऐसा होता है तो आंध्र प्रदेश में भाजपा भले एक भी विधानसभा सीट न जीत सकी हो, वह सीधे मुख्य विपक्षी दल बन जाएगी। कुछ ऐसा ही बयान तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से भाजपा में आए मुकुल राय ने दिया कि टीएमसी, वाम दलों और कांग्रेस के 107 विधायक भाजपा में शामिल होने को तैयार हैं। वैसे, लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि टीएमसी के 40 विधायक भाजपा के संपर्क में हैं। यानी नेताओं के लिए दल, विचारधारा या मतदाताओं के प्रति कोई प्रतिबद्धता ही नहीं बची है, न ही उन्हें दलबदल विरोधी कानून का डर है। इसीलिए तो कर्नाटक में सरकार को लेकर एक लंबा नाटक चला। यहां सत्तारूढ़ कांग्रेस और जनता दल (सेक्यूलर) के करीब डेढ़ दर्जन विधायकों ने बिना किसी चिंता के विधानसभा अध्यक्ष को इस्तीफे भेज दिए। सरकार गिर गई, वोटर ठगा रह गया।
हरियाणा से चर्चित हुआ “आया राम-गया राम” मुहावरा पहले कुछ नकारात्मक भाव के साथ कहा जाता था लेकिन अब लगता है हमारा संसदीय लोकतंत्र उस नैतिक बाधा से आगे निकल गया है। निर्लज्ज सत्ता के खेल के नए-नए रूप दिख रहे हैं। लेकिन ध्यान रहे यह उस जनता के साथ विश्वासघात है जिसने इन विधायकों-सांसदों को चुनकर भेजा है।
यकीनन यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। इस पर व्यापक बहस की दरकार है। यह सरकारों के स्थायित्व के लिए भी खतरा है। किसी भी पार्टी की सरकार सामान्य बहुमत से बनती है तो उस पर हमेशा खतरा मंडराता रहेगा, जो प्रशासकीय फैसलों पर प्रतिकूल असर डालेगा और अंतत: उसका खामियाजा जनता को ही भुगतना पड़ेगा। यह तो देश और लोकतंत्र की जड़ में मट्ठा डालने जैसा है।
बेशक, इसकी रोकथाम के लिए उपाय हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के वजूद के लिए बेहद जरूरी हैं। ऐसे दलबदलुओं को दंडित करने की पुख्ता व्यवस्था भी होनी चाहिए, चाहे कानून बनाकर या जनता के जरिए। ऐसे प्रतिनिधियों को फिर न चुनना तो जनता के जिम्मे हो सकता है, लेकिन वह दूर का उपाय है। इसके बदले जन-प्रतिनिधि की वापसी के अधिकार पर विचार किया जा सकता है, जिसकी मांग खासकर जेपी आंदोलन के दौरान शिद्दत से उठी थी। अब वक्त आ गया है कि जन-प्रतिनिधि कानून में नए संशोधन और चुनाव सुधारों की दिशा में बढ़ा जाए, वरना लोकतंत्र मजाक बनकर रह जाएगा।