भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के आखिरी दिन, जूरी के अध्यक्ष इस्राइली फिल्मकार नेदाव लैपिड के द कश्मीर फाइल्स को लेकर दिए गए बयान के बाद गरमाई राजनीति का जो वितंडा हमारे यहां फूट पड़ा, वह इसी सच को मजबूत करता है, सच घटे या बढ़े तो सच ना रहे / झूठ की कोई इंतहा ही नहीं।
इंसानी और सामाजिक जीवन में कला की अहम भूमिका यह भी है कि वह इन दोनों के फर्क को समझे और समझाए! जो कला ऐसा नहीं कर पाती वह कला नहीं, कूड़ा मात्र होती है। इसलिए कोई पिकासो ‘गुएर्निका’ रचता है, कोई चार्ली चैपलिन द ग्रेट डिक्टेटर बनाता है, कोई एटनबरो गांधी ले कर सामने आता है। अनगिनत पेंटिंगों, फिल्मों के बीच ये अपना अलग अमर स्थान क्यों बना लेती हैं? इसलिए कि युद्ध की कुसंस्कृति को, विकृत मन की बारीकियों को तथा इनसानी संभावनाओं की असीमता को समझने में ये फिल्में हमारी मदद करती हैं। तब कला की एक सीधी परिभाषा यह बनती है कि जो मन को उन्मुक्त न करे, उद्दात्त न बनाए, वह कला नहीं है।
दूसरी तरफ वे ताकतें भी काम करती हैं, जो कला का कूड़ा बनाती रहती हैं ताकि सत्य व असत्य के बीच का, शुभ व अशुभ के बीच का, उदात्तता व मलिनता के बीच का फर्क इस तरह उजागर न हो जाए कि ये ताकतें बेपर्दा हो जाएं। विवेक की इसी नजर से गोवा फिल्मोत्सव में बनी जूरी को 14 अंतरराष्ट्रीय फिल्मों को देखना-जांचना था। लैपिड इसी जूरी के अध्यक्ष थे। जूरी में या उसके अध्यक्ष के रूप में उनका चयन सही था या गलत, इसका जवाब तो उन्हें देना चाहिए जिनका यह निर्णय था। लेकिन 5 सदस्यों की जूरी अगर एक राय थी कि कश्मीर फाइल्स किसी सम्मान की अधिकारी नहीं है, तो इस पर किसी भी स्तर पर, किसी भी तरह की आपत्ति उठना अनैतिक ही नहीं है, घटिया राजनीति है, जिसका दौर हमारे यहां चल रहा है।
लैपिड ने जूरी के अध्यक्ष के रूप में महोत्सव के मंच से जब कश्मीर फाइल्स को ‘अश्लील शोशेबाजी’ (वल्गर प्रोपगंडा) कहा तब वे कोई निजी टिप्पणी नहीं कर रहे थे, जूरी में बनी भावना को शब्द दे रहे थे। जूरी के बाकी तीनों विदेशी सदस्यों ने बयान देकर लैपिड का समर्थन किया है। भारतीय सदस्य सुदीप्तो सेन ने अब जो सफाई दी है वह बात को ज्यादा ही सही संदर्भ में रख देती है, “यह सही बात है कि यह फिल्म हमने कला की कसौटी पर खारिज कर दी। लेकिन मेरी आपत्ति अध्यक्ष के बयान पर है जो ‘कलात्मक’ नहीं था। ‘वल्गर’ व ‘प्रोपगंडा’ किसी भी तरह कलात्मक अभिव्यक्ति के शब्द नहीं हैं।” मतलब साफ है कि कश्मीर फाइल्स कहीं से भी कला से सरोकार नहीं रखती है, इस बारे में जूरी एकमत थी। ऐसा क्यों था, इसकी सबसे गैर-राजनीतिक सफाई जो कोई भी अध्यक्ष दे सकता था, लैपिड ने दी। उन्हें यह बताना ही चाहिए था कि क्यों जूरी ने उन्हें सौंपी गई 14 फिल्मों में से मात्र 13 फिल्मों में से ही अपना चयन किया और 14वीं फिल्म को फिल्म ही नहीं माना? जूरी के अध्यक्ष लैपिड का धर्म था कि वे यह बताते। जिन शब्दों में लैपिड ने वह बताया, वह कहीं से भी राजनीतिक, गलत, अशोभनीय या कला की भूमिका को कलंकित करने वाला नहीं था।
जब लैपिड से पूछा गया कि जिस फिल्म को जूरी ने किसी सम्मान के लायक नहीं माना, उस फिल्म पर टिप्पणी करनी ही क्यों चाहिए थी। उन्होंने ईमानदारी के साथ अपनी बात रखी। यह कहने की जरूरत नहीं है कि ईमानदारी से खूबसूरत कलात्मक अभिव्यक्ति दूसरी नहीं होती है। लैपिड ने कहा, “आप ठीक कहते हैं, जूरी सामान्यत: ऐसा नहीं करती है। उनसे अपेक्षा होती है कि वे फिल्में देखें, उनका जायका लें, विशेषताओं का आकलन करें तथा विजेताओं का चयन करें। लेकिन तब यह बुनियादी सावधानी रखनी चाहिए थी कि द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्में महोत्सव के प्रतियोगता खंड में रखी ही न जाएं। दर्जनों महोत्सवों में मैं जूरी का हिस्सा रहा हूं, कभी भी मैंने द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म नहीं देखी। जब आप जूरी पर ऐसी फिल्म देखने का बोझ डालते हैं, तब आपको ऐसी अभिव्यक्ति के लिए तैयार भी रहना चाहिए।”
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं। विचार निजी हैं)