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पत्र संपादक के नाम

भारत भर से आईं पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

जिम्मेदारी सबकी

18 अप्रैल की आवरण कथा, ‘गांधी बिन कांग्रेस’ बहुत तार्किक है। कांग्रेस की पुरानी यात्रा को तो सभी जानते हैं। लेकिन जब से केंद्र में खास विचारधारा की सरकार आई है, कांग्रेस हंसी का पात्र बन गई है। दरअसल केंद्र में बैठे लोग इस बात में पूरा यकीन रखते हैं कि यदि एक झूठ सौ बार बोला जाए, तो वह सच हो जाता है। ऐसे समय में जब कांग्रेस का पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन खराब रहा है, तो यह आवरण कथा बहुत जरूरी हो जाती है। कांग्रेस अभी बुरे दौर से गुजर रही है, लेकिन जो लोग अभी इसकी हंसी उड़ा रहे हैं वे इस बात से अनभिज्ञ हैं कि कांग्रेस ने देश के लिए क्या कुछ नहीं किया है। जुमला फेंक कर तो कोई भी राज कर सकता है। लेकिन कांग्रेस ने ठोस काम किया और जो मजबूत आधार बनाया उसी पर मौजूदा प्रधानमंत्री खुद को टिकाए हुए हैं। सोनिया गांधी चाहतीं तो खुद प्रधानमंत्री बन सकती थीं। लेकिन उन्होंने यह पद छोड़ दिया। सिर्फ उन्होंने ही नहीं राहुल ने भी विनम्रता से इनकार किया। आज के दौर में कोई पार्षद की कुर्सी नहीं छोड़ता, फिर उन्होंने तो प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ दी। यह कोई मामूली बात नहीं है। दरअसल गांधी परिवार सौम्यता के साथ राजनीति करता है। लेकिन भगवा पार्टी ने राजनीति की परिभाषा बदल दी है और सौम्यता की जगह क्रूरता भर दी है। बस इसलिए गांधी परिवार पीछे होता जा रहा है। गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का कोई अस्तित्व नहीं है।

तलत फारूकी | बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश

 

जमीन पर उतरें नेता

चुनावों में जीत-हार लगी रहती है। पांच राज्यों में चुनाव हारने के बाद एक बार फिर कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं। 18 अप्रैल की आवरण कथा, ‘गांधी बिन कांग्रेस’ में बहुत सिलसिलेवार ढंग से कांग्रेस पार्टी की स्थिति का आकलन है। हर जगह अब यही प्रश्न है कि क्या कांग्रेस खत्म हो गई है। या क्या इसके नेतृत्व में परिवर्तन की जरूरत है। जी-23 के नेता ऐसा दिखा रहे हैं कि नेतृत्व में खोट है। यदि उन्हें ऐसा लगता है, तो वे किस बात का रास्ता देख रहे हैं। अपनी अलग पार्टी बना कर वे लोग चुनावी मैदान में उतर सकते थे। लेकिन वे लोग भी जानते हैं कि कांग्रेस से टूट कर उनका कोई वजूद नहीं है। जब तक सफलता हासिल थी, ये लोग चुप थे। जैसे ही असफलता मिली नेतृत्व पर सवाल उठने लगे। यदि उन्हें वाकई पार्टी की चिंता है, तो आरोप लगाने के बजाय इन लोगों को जमीन पर उतर कर कोशिश करना चाहिए।

जी. सुरेश | मुंबई, महाराष्ट्र

 

फीका अभियान

18 अप्रैल के अंक में ‘उमा अभियान ठप’ के बहाने मध्य प्रदेश में शराबबंदी की अच्छी पोल खोली। दरअसल मध्य प्रदेश में उमा भारती की सुस्ती से ही इतनी निराशा है। उनके अचानक जाग जाने से लोग उनके साथ नहीं हो जाएंगे। उमा भारती अपने अभियान के बारे में लोगों में भरोसा पैदा नहीं कर पाईं। शराब की दुकानें बंद करा कर शराब माफिया का अहंकार चूर-चूर कर देने की उनकी कोशिश पूरी नहीं हो सकी। वह जिस तरह की राजनीति करती आई हैं, उसके लिए अब जगह खत्म हो चुकी है। मध्य प्रदेश में अब हर वर्ग की एक नई सोच तैयार हो चुकी है, जो पारंपरिक शराबबंदी का नाटक देखकर या ओजस्वी भाषण सुनकर खुशी से नहीं उछल पड़ती। नतीजा यह हुआ है कि उमा की नेतागीरी खत्म हो गई सी लगती है।

हरीशचंद्र पाण्डे | हल्द्वानी, उत्तराखंड

 

हर लेख लाजवाब

आउटलुक हिंदी की विशेषता है कि वह जिस विषय को पाठकों के समक्ष परोसता है, उस विषय का न तो कोई पहलू छूटता है न अनदेखी होती है। 4 अप्रैल 2022 के अंक में ‘तवायफी तीर-तुक्के’ शीषर्क से प्रकाशित आलेख में बालीवुड की फिल्मों में प्रारंभ से लेकर आज तक तवायफी चरित्रों की पूरी पड़ताल करता आलेख उनके लिए भी पठनीय लगा, जो फिल्मों में रुचि नहीं रखते। अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम के अंतर्गत रूस-यूक्रेन युद्ध हो या राष्ट्रीय घटनाक्रम के अंतर्गत हाल ही में हुए पांच राज्यों उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, गोवा, पंजाब एवं मणिपुर के चुनाव हों, हर विषय पर आउटलुक टीम की गहन छानबीन युक्त प्रमाणिक सामग्री पाठकों के समक्ष रखने के लिए पत्रिका बधाई की पात्र है। कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जिनकी ओर बहुत से लोगों का ध्यान नहीं जाता, इस श्रेणी में ग्रेट ब्रिटेन के वित्त मंत्री ऋषि सुनक के बारे में पढ़कर अच्छा लगा।

सबाहत हुसैन खान | उधमसिंह नगर, उत्तराखंड

 

मुफ्तखोरी के नुकसान

आउटलुक (04 अप्रैल 2022) की आवरण कथा जनादेश 2022/आप ‘उम्मीदों की ऊंचाई’ पढ़कर यही लगा कि चालीस दल बदलुओं और कुछ बड़बोले जयचंदों की बदौलत केवल पंजाब में सरकार बनाने वाली 'आप' की सरकार खरगोश की चाल चलने पर आमादा हो गई है। जो उसके लिए घातक हो सकती है। खुद को राष्ट्रीय नेता मानने वाले केजरीवाल और उनके बेलगाम चमचे मुंह की खाने वाले हैं। केजरीवाल ऐंड कंपनी जिस समाज सुधारक अन्ना हजारे की छाती पर मूंग दलते हुए सत्ता सुख भोगने के लिए लालायित होकर राजनीति में आई, उन्होंने अन्ना के साथ क्या किया? दूसरे लुभावने वादे देखिए। जनता को फ्री बिजली देंगे। महिलाओं को बजाय आत्मनिर्भर बनाने के उन्हें रुपये देंगे। आप जनता को निठल्ला बनाना चाहते हैं? इस महंगाई में हजार रुपये से कुछ नहीं होगा बल्कि बड़े पैमाने पर पैसे बांटने से सरकार कंगाल हो जाएगी।

राजीव रोहित | मुंबई, महाराष्ट्र

 

वोटर सब जानता है

आउटलुक के 4 अप्रैल के अंक में संपादकीय (प्रथम दृष्टि) में ‘नेतृत्व की अहमियत पढ़ा’, बहुत अच्छा लगा। बेशक उत्तर प्रदेश सहित संपूर्ण भारत में राष्ट्रीयता मुद्दा है। लेकिन यह देखना होगा कि विपक्ष के प्रयास क्या हैं। इन पार्टियों का नेतृत्व कौन कर रहा है? संघीय भारत में राजनीतिक नेतृत्व राज्यों से ही पैदा होता है, अगर उनका वैचारिक दायरा राष्ट्रीय हो तो यह किसी भी पार्टी के लिए अच्छी स्थिति होती है। वर्तमान में विपक्ष के किस दल का सुर राष्ट्रीय है, अनुच्छेद 370 से लेकर, समान नागरिकता कानून तक सबके सुर अलग हैं। विपक्ष पार्टियों को भी देखना होगा कि किन-किन दलों की विचारधारा के मूल में राष्ट्र की भावना है। तृणमूल, सपा, राजद, वामपंथियों ने अब तक किसको पोषित किया इस पर भी जनता की नजर रहती है। भारत में वसुधैव कुटुंबकम की भावना रहती है और विपक्ष को इसका खयाल रखना होगा। मतदाता यह जानते हैं और इसलिए वोट देने का पैटर्न बदल रहा है। भाजपा ने यदि अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की कोई नीति बनाई होती, तो मतदाता खुद परिणाम उलट देते। राष्ट्रीय दल कांग्रेस का पतन यहीं से शुरू हुआ है। उसने लोगों के बीच यह स्थापित करने की कोशिश की कि भाजपा अल्पसंख्यक विरोधी है।

अरविन्द पुरोहित | रतलाम, मध्यप्रदेश

 

निष्पक्षता जरूरी

4 अप्रैल, 2022 के आवरण पृष्ठ पर शीर्षक ‘केसरिया आलम’ राजनीतिक पार्टियों को रंगों से जोड़ने के अनुचित प्रचलन में आपके भी विश्वास का परिचायक है। रंग निष्पक्ष ही नहीं, धर्मनिरपेक्ष और पार्टी निरपेक्ष भी होते हैं। इसलिए किसी खास रंग को किसी राजनीतिक पार्टी से जोड़ने से पत्रकारों को बचना चाहिए। आवरण कथा में जिस तरह से उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत के कारणों में अन्य कारणों के साथ-साथ सरकार द्वारा किए गए कार्यों को भी शामिल किया गया है, वह आपके समुचित एवं सम्यक विश्लेषण का उदाहरण है। कुछ आलेखों में पत्रकारों का किसी खास राजनीतिक पार्टी की ओर झुकाव एवं किसी खास पार्टी से विरोध की झलक मिलती है। पत्रकारिता में ऐसी पक्षधरता एवं विरोध के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

दिवेश कुमार शर्मा | गया, बिहार

 

साख भी नहीं बची

04 अप्रैल 2022 के अंक में कांग्रेस के बारे में ‘लीक छोड़े तब न’ पढ़ा। कांग्रेस को पांच राज्यों में मिली करारी हार के लिए कह सकते हैं कि घर को लगा दी आग घर के चिरागों ने। कांग्रेस आलाकमान की पुरानी आदत है कि पार्टी में जिसका कद बढ़ रहा हो उसकी लगाम खींच दो। सिंधिया की लगाम खींचने पर मध्य प्रदेश की सत्ता चली गई मगर आलाकमान की लगाम खींचने की आदत नहीं छूटी। पंजाब में अमरिंदर सिंह की लगाम कसने के लिए सिद्धू को आगे बढ़ाया और जब सिद्धू बेलगाम हो गए तो उन पर लगाम लगाने के लिए चन्नी को लाया गया। और वहां सत्ता के घोड़े पर ही लगाम लग गई। चुनावों के बाद कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा फिर से गांधी परिवार पर जताया गया भरोसा कितना कारगर हुआ यह उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों ने बता ही दिया। प्रियंका वाड्रा कांग्रेस को अपने कंधों पर लेकर चलीं और मजाक में ही सही खुद को मुख्यमंत्री का चेहरा तक बता दिया। मगर इस कवायद के बावजूद सिर्फ 2 सीटें और 2.33 प्रतिशत मत मिले। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनाने के लिए नहीं बल्कि मत प्रतिशत बढ़ा कर साख बचाने के लिए लड़ रही थी। कह सकते हैं कि बिहार और पश्चिम बंगाल में गठबंधनों के लिए बोझ साबित हुई कांग्रेस से तालमेल न कर समाजवादी पार्टी को फायदा ही हुआ।

बृजेश माथुर | गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश

 

धरातल पर है काम

4 अप्रैल 2022 के अंक में प्रथम दृष्टि (संपादकीय) में ‘नेतृत्व की अहमियत’ विपक्ष के लिए जरूरी लेख है। अब वह वक्त आ गया है, जब विपक्ष गंभीरता से अपनी नेतृत्व क्षमता को तौले और मंथन करे। यह सच है कि सक्षम नेता ही प्रभावी होता है। कुशल नेतृत्व के चलते वह लोगों में विश्वास जगाता है। राहुल गांधी भी ऐसे नेता हैं। वह सबके लिए समय निकालते हैं और सबके साथ पारदर्शी रहते हैं। उनके काम और बातें वास्तविकता के धरातल पर होते हैं। हां इतना जरूरी है कि वह अनुचित तरीके यानी साम, दाम, दंड, भेद से राजनीति नहीं करते। शायद इसलिए वह असफल हैं। यह मायने रखता है कि बहुत से लोगों को उन पर भरोसा है। राहुल गांधी कभी भी गुटबाजी की राजनीति नहीं कर सकते। लेकिन वक्त आएगा, जब वह इन सब पर जीत हासिल करेंगे।

संदीप पांडे | अजमेर, राजस्थान

 

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पुरस्कृत पत्र

कठिन प्रश्न

यह वाकई यक्ष प्रश्न है कि कांग्रेस अब क्या करेगी। लेकिन कांग्रेस को यह समझने की जरूरत है कि वह कैसे करेगी। लेख का शीर्षक ही जैसे सब कुछ कह देता है (यक्ष प्रश्न से सामना, 18 अप्रैल 2022)। यह सत्ताधारी दल का बनाया हुआ हल्ला है कि कांग्रेस में परिवारवाद है और इसे सिर्फ गांधी परिवार चलाता है। अब तो कांग्रेस के भीतर से भी विरोध के स्वर उठने लगे हैं। लेकिन विरोध करने वाले नेताओं से पूछे कि क्या उनमें से किसी में भी यह काबिलियत है कि वह अपने दम पर चुनाव जिता सके। पार्टी के किसी बड़े नेता ने क्या कभी जमीन पर उतर कर काम करने की कोशिश की है। जो मेहनत कर रहा है वो सिर्फ प्रियंका और राहुल हैं। और एक दिन यही दोनों पार्टी को उबारेंगे।

सुनिधि जादौन | झांसी, उत्तर प्रदेश

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