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संपादक के नाम पत्र

भारत भर से आई पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

महंगी पड़ेगी अनदेखी

आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में पर्यावरण सेनानियों की कहानी दिल को छू गई। 5 सितंबर के अंक में, ‘धरती कहे पुकार के’ ऐसा लेख है, जिससे विश्वास पुख्ता होता है कि धरती खत्म नहीं होगी। जिस तरह से पर्यावरण की अनदेखी हो रही है, अंधाधुंध पेड़ कट रहे हैं, बिना सोझे-समझे बांध बन रहे हैं, उसे देख कर लगता था कि पृथ्वी का बचना मुश्किल है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया पर्यावरण और मौसम के बदलने रूप से परेशान है। लेकिन पर्यावरण के ये योद्धा आशा का संचार करते हैं। यदि हर मनुष्य अपने क्षेत्र, अपने समुदाय में ऐसा सकारात्मक संदेश दे सके, तो फिर चिंता छोड़ सभी खुशहाल रहेंगे।

काजल परचुरे | खंडवा, मध्य प्रदेश

 

हर दिन हो इस पर बात

आउटलुक की आवरण कथाएं हमेशा सभी से अलग होती है। हर बार ऐसा विषय होता है, जिस पर बात करना जरूरी होता है। संतुलित आवरण कथा से भरोसा भी पुख्ता होता है, कि पत्रकारिता अभी जिंदा है। 5 सितंबर की आवरण कथा इसलिए भी जरूरी लगी क्योंकि ऐसे लोगों पर मुख्यधारा में कोई बात नहीं करता। सभी को ग्लैमर जगत, खिलाड़ी या राजनेता ही चाहिए। किसी भी मुख्य मीडिया हाउस में इन लोगों को इतनी जगह कोई नहीं देगा। ऐसी आवरण कथा बताती है कि आउटलुक सरकार बनने-गिरने के बराबर ही पर्यावरण को और इसे बचाने वाले लोगों महत्वपूर्ण मानता है। यह ऐसा विषय है, जिस पर रोज बात होनी चाहिए, तभी यह लोगों के दिल तक पहुंचेगा और लोग जागरूक बनेंगे। प्रकृति है तो हम है।

गिरिराज | चुरू, राजस्थान

 

नींद से जागना होगा

देश ही नहीं दुनिया के ऐसे कई हिस्से हैं, जो क्लाइमेट चेंज यानी जलवायु परिवर्तन से जूझ रहे हैं। लेकिन फिर भी मनुष्य चेत नहीं रहा है। संयुक्त राष्ट्र् तक जलवायु परिवर्तन से संबंधित रिपोर्ट पेश करते वक्त चेतावनी दे चुका है। लेकिन चेतावनियों पर ध्यान देना हमारी फितरत में ही नहीं है। दुनिया जिस दिन तबाह होगी, शायद हम उस दिन भी नींद से न जागें। तबाही धीरे-धीरे हमारी तरफ बढ़ती जा रही है। यह जान कर अच्छा लगा कि आउटलुक ने ऐसे लोगों को अपनी पत्रिका में जगह दी, जो पर्यावरण के लिए प्रयास कर रहे हैं। 5 सितंबर की आवरण कथा, आने वाले दिनों के संकट के बारे में तो चेता रही है बल्कि एक आशा भी जगा रही है कि कुछ अच्छे और पर्यावरण प्रेमी भयावह परिदृश्य को बदलने का माद्दा रखते हैं। ये मुट्ठी भर ऐसे लोग हैं जो अपने-अपने दायरों में धरती को बचाने की मुहिम छेड़े हुए हैं। अगली पीढ़ियों में इनकी निःस्वार्थ सेवा जरूर पहुंचनी चाहिए।

ममता चौधरी | हिसार, हरियाणा

 

सभी की जिम्मेदारी

पर्यावरण सेनानी जिस भाव से काम कर रहे हैं, वह काबिले तारीफ है। 5 सितंबर की आवरण कथा, ‘धरती कहे पुकार के’ जल, जंगल और जमीन को बचाने की कोशिश में जुटे ऐसे ही लोगों की कहानियां हैं, जो बताती हैं कि कुछ लोग अभी भी हैं, जिन्हें प्रकृति से अटूट प्रेम हैं। ये कहानियां आशा की भी कहानियां हैं और इस प्रश्न की भी कि जब अकेले प्रयास से कुछ लोग इतना अच्छा काम कर रहे हैं, तो फिर सरकारें ऐसा क्यों नहीं कर पा रहीं। दरअसल हम आज भी आजादी का महत्व नहीं समझ सके हैं। आजादी का मतलब सिर्फ यह नहीं है कि हमें हर चीज करने का अधिकार है। लेकिन लोगों को यही लगता है कि देश के लिए कुछ करना सिर्फ नेताओं या सरकार का काम है। बल्कि यह हम सभी लोगों की जिम्मेदारी है कि धरती को अपना मानें और उसे नुकसान पहुंचाने वाली किसी भी गतिविधि में शामिल न हों। बल्कि जो ऐसा कर रहा है, उसे भी रोकें।

प्रेरणा अग्रवाल | जयपुर राजस्थान

 

वैश्विक खतरा

आउटलुक में 5 सितंबर के अंक में प्रथमदृष्टि बहुत सारगर्भित लगा। तमाम उदाहरणों और सरल भाषा के साथ पर्यावरण की चिंता दर्शाई गई। आपने बिलकुल सही लिखा है कि बीसवीं सदी में जब ग्लेशियर पिघलने लगे, ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने लगी तब अचानक ही सभी को लगा कि खतरे की घंटी बज गई है। लेकिन आने वाले साल में समुद्री जलस्तर के बढ़ जाने की आशंका और इसमें कई महानगर सदा के लिए समा जाने की भविष्यवाणी के बाद भी हालात जस के तस हैं। ऐसा नहीं है कि यह खतरा सिर्फ भारत पर ही मंडरा रहा है। बल्कि यह वैश्विक समस्या है, जिसे हर देश को मिल कर सुलझाना होगा। यह सच है कि दुनिया भर की महाशक्तियों सहित सभी नीति-निर्धारक एकजुट होकर ऐसे कदम उठाएं तभी कुछ हो सकेगा। अभी भी वक्त है कि हम सचेत हो जाएं। वरना फिर पछताने के सिवाय कुछ भी नहीं हो पाएगा।

कमल सिंह राठौर | बूंदी, राजस्थान

 

प्रकृति की कीमत

इस बार का प्रथमदृष्टि (5 सितंबर) अपने आप में बहुत सी बातें समेटे हुए है। इसमें बिलकुल सच लिखा है कि, आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस होने की कीमत हमने नहीं, प्रकृति ने चुकाई है। इसी से संबंधित एक वाकया याद आया। लगभग छह वर्ष पहले एक विवाह समारोह में जाना हुआ था। शहर के समारोह के हिसाब से यह बिलकुल अलग समारोह था। लेकिन उस कार्यक्रम में मेहमानों के लिए बहुत से नियम थे, जिसकी वजह से मेजबान की बहुत आलोचना हुई थी। हालांकि मुझे तब भी यह बहुत क्रांतिकारी लगा था। जूठी प्लेटें डालने वाली हर जगह पर एक व्यक्ति की तैनाती थी, जो प्लेट में जरा भी खाना होने पर उसे डस्टबिन में नहीं डालने दे रहा था। हर जगह भोजन जूठा न छोड़ने संबंधी हिदायत लिखी थी। कुछ लोगों को यह बहुत अखर गया कि पीने के पानी की जगह एक व्यक्ति था, जो सिर्फ आधा गिलास ही भरता था। जरूरत होने पर और दे देता था। उसका कहना था कि लोग थोड़ा सा पानी पीते हैं और बाकी जूठा होने की वजह से फेंक दिया जाता है। इससे पानी की बर्बादी होती है। वर-वधु ने कोई भी तोहफा लेने के बजाय, एक दानपेटी रखी थी, जिसमें अपनी सामर्थ्य के अनुसार राशि डालनी थी, जिससे बाद में उन्होंने महाराष्ट्र के किसी गांव में तालाब खुदवाया। विदाई में उपहार स्वरूप सभी को तुलसी के पौधे दिए गए। लेकिन उसके बाद उनके परिवार में ऐसी कोई शादी नहीं हो पाई, क्योंकि परिवारजन ने ही साथ नहीं दिया। कहने का मतलब यह कि आपने भी प्रथमदृष्टि में लिखा है कि पर्यावरण कभी बुनियादी मुद्दा बन ही नहीं सका। तो इसका कारण यही है कि पर्यावरण की चिंता अभी भी लोगों को “नौटंकी” लगती है।

सुहास मुले | पुणे, महाराष्ट्र

 

सही दांव

5 सितंबर के अंक में, ‘चुनौती चौबीसी’ बहुत रोचक ढंग से लिखा गया है और इसका विश्षलेषण भी बहुत अच्छे तरीके से किया गया है। हालांकि सिर्फ बिहार की ही क्या बात करें। देश के हर हिस्से में सियासी उठा पटक है और सरकार हर काम छोड़ कर देश का केवल एक ही रंग कर देना चाहती है, भगवा। हर सरकार को गिरा कर खुद काबिज हो जाने की प्रवृत्ति को बिहार के मुख्यंत्री ने समय रहते भांप लिया और बहुत सही कदम उठा लिया। सियासी घटनाक्रम में वैसे तो कई तरह के किंतु-परंतु होते हैं और सही स्थिति पार्टी के चुनिंदा नेताओं को ही मालूम होती है पर इतना तो है कि नीतीश बाबू ने मोदी की पहली की गुत्थी को आसानी से सुलझा लिया है। अगर वे यह कदम न उठाते को उनका हाल भी उद्धव की तरह होना निश्चित था। लेकिन नरेंद्र मोदी को पता नहीं था कि एक बिहारी, सब पर भारी होता है। नीतीश कुमार मोदी के तौर-तरीकों से बखूबी परिचित हैं। उन्होंने जो दांव खेला उससे हर बिहारी गदगद है। आखिर कहीं तो मोदी ने मुंह की खाई।

संजय सुधाकर | पटना, बिहार

 

नीतीश नीति

नीतीश बाबू को हराना इतना आसान नहीं है। आखिर उन्होंने वह कर दिखाया जो कोई नहीं कर सका। 5 सितंबर के अंक में, ‘चुनौती चौबीसी’ बहुत अच्छा लगा। आंकड़ों से इस लेख में हर स्थिति को बखूबी दर्शाया गया है। नीतीश थोड़ी मेहनत करें, तो आगामी लोकसभा चुनाव में विपक्ष का चेहरा हो सकते हैं। सभी पार्टियों को चाहिए कि नीतीश की अगुआई में एकजुट हो कर चुनाव लड़ें। ममता बनर्जी के बजाय नीतीश की जनता के बीच छवि भी अच्छी है और वे ममता के मुकाबले राजनीति बेहतर समझते हैं। ममता बनर्जी बड़बोली हैं, जिससे विपक्ष को नुकसान होता है। मोदी को लोकसभा में सिर्फ और सिर्फ नीतीश ही हरा सकते हैं। देश में मोदी के खिलाफ माहौल है, पर यह इसलिए दिखाई नहीं देता कि विपक्ष कहीं नहीं है। विकल्प न होने की स्थिति का ही मोदी को लाभ मिलता है।

मनोज मोहन | दरभंगा, बिहार

 

सामाजिक दृष्टि का माध्यम

‘लोकशाही का बाइस्कोप’ (22 अगस्त) ऐसी आवरण कथा, जो अपरोक्ष रूप से भारत के इतिहास को बहुत अच्छे ढंग से बताता है। भारतीय सिनेमा का अपना समृद्ध इतिहास रहा है। दुनिया में हर जगह यह लोकप्रिय है। छोटे से छोटा देश भी बॉलीवुड को पहचानता है। हमारे यहां की फिल्मों की वजह से ही दूसरे देशों ने भारत की संस्कृति की समझा है। भारत में भी सिनेमा ने चेतना और क्रांति लाने का काम किया। भारत सहित कई देशों में सिनेमा मात्र मनोरंजन का नहीं बल्कि विचार प्रकट करने का सशक्त माध्यम है। हमारे यहां दर्शक सिनेमा से बहुत कुछ सीखते हैं। आजादी के बाद ऐसे बहुत से सामाजिक मुद्दे थे, जिन पर फिल्में बनीं और खूब सराही गईं। देश में इस तरह की फिल्मों का असर भी हुआ। आज भी जब देश अलग तरह से करवट ले रहा है, नई तरह की फिल्में समाज का आइना बन रही हैं। 

मोनिका बजाज | दिल्ली

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पुरस्कृत पत्र : असली सेनानी 

आउटलुक का 5 सितंबर का अंक पढ़ा। प्रकृति और किसान के साथ अन्याय, छल, प्रपंच पिछली एक सदी से पीछा कर रहे हैं। पिछले आठ साल से जिस ताकतवर बहुमत से हमने सरकार चुनी उसने भी किसान और हल की ताकत को छीना है। नदियों के अच्छे दिन आ ही नहीं रहे हैं। किसानों की फजीहत करने के लिए हर दिन नए तरीके आ गए हैं। किसान, कृषि और प्रकृति तीनों के लिए ही यह निराशा का काल है। पर्यावरण की चिंता बैठकों में चर्चा का विषय है। इसे बचाने के कहीं कोई ठोस उपाय नजर नहीं आते हैं। शीर्षक में सेनानी शब्द बहुत सटीक लगा। आजादी के बाद अब ऐसे ही सेनानियों की जरूरत है। पता नहीं कब ये तीनों बातें सरकार की प्राथमिकता की सूची में ऊपर आएंगी।

हरीशचंद्र पांडे, हल्द्वानी, उत्तराखंड

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