कारगर रणनीति
आउटलुक की 25 दिसंबर की आवरण कथा, ‘चौबीस का चेहरा’ लगता है बहुत निराशा में लिखी गई है। दरअसल 2014 के बाद से ही धीरे-धीरे राजनैतिक विश्लेषण महज खानापूर्ति होते जा रहे हैं। हार का ऐसा भी क्या गम की खुल कर जीतने वाले की तारीफ न कर पाएं। आम चुनाव में भी दिल्ली की गद्दी मोदी के खाते में गई, तो सोचिए क्या होगा। मोदी ने हाल ही में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जीत लिए। जाहिर सी बात है ये तीनों ही राज्य महत्वपूर्ण थे और इससे लोकसभा चुनाव में भाजपा को मदद मिलेगी। लेकिन यह भी सोचना चाहिए कि मोदी में ऐसा क्या है। आखिर विपक्ष हालात क्यों नहीं बदल पा रहा है। इसका सीधा सा उत्तर मोदी की रणनीति, मेहनत और जोखिम उठाने की आदत है। इसे जितनी जल्दी समझ लिया जाए उतना जल्दी भाजपा की जीत के दुख से बाहर आ सकते हैं।
कांति वाजपेयी | रांची, झारखंड
अपूरणीय क्षति
25 दिसंबर की आवरण कथा, ‘चौबीस का चेहरा’ पढ़ कर इतना साफ समझ आ रहा है कि इस बार भी मोदी ही चुनाव की नैया के मुख्य खेवनहार होंगे। जो तीन राज्य उन्होंने जीते हैं, उनमें लोकसभा की कुल 65 सीटें हैं। जब विधानसभा में भाजपा ने इतना अच्छा प्रदर्शन किया है तब लोकसभा में इन सीटों पर खराब प्रदर्शन की कल्पना करना बेमानी है। क्योंकि भाजपा ने 2019 में उस वक्त इन राज्यों में 61 सीटें जीत ली थीं, जब 2018 के विधानसभा चुनावों में तीनों ही राज्य कांग्रेस के खाते में थे। इस बार विधानसभा चुनावों में इन तीनों ही राज्यों में नरेंद्र मोदी के आगे कांग्रेस के तीनों दिग्गज अशोक गहलोत, कमलनाथ और भूपेश बघेल ने कांग्रेस को बुरी तरह खेल से बाहर कर दिया है। हालांकि अभी कांग्रेस के पास हिमाचल प्रदेश है लेकिन इन तीन राज्यों को हिंदी पट्टी का ताज कहा जाता है। देश की राजनीति की गलियां इन्हीं तीन राज्यों से होकर गुजरती है। ऐसे में यहां की सत्ता से गायब होना कांग्रेस के लिए अपूरणीय क्षति है। दक्षिण में कर्नाटक की सरकार भी लोकसभा में कुछ कमाल दिखा सकेगी ऐसा लगता तो नहीं है।
अनिरुद्ध शर्मा | झालावाड़, राजस्थान
बातें हैं बातों का क्या
25 दिसंबर की आवरण कथा, ‘चौबीस का चेहरा’ बहुत कुछ बताती है। लेकिन मुख्य मुद्दा यही है कि कोई भी चुनावी विश्लेषक, बड़े-बड़े पत्रकार मोदी को डिकोड नहीं कर पाए हैं। यही वजह है कि इस बार की आवरण कथा में भी कहने के लिए कुछ नहीं है। पढ़ कर लगता है कि तीन राज्यों की इतनी बड़ी जीत पर कुछ लिखना था इसलिए लिख दिया गया। इसमें हार के एक भी ठोस कारण नहीं हैं। जीत पर भी ऐसे लिखा गया है, जैसे मोदी ने ईवीएम हैक कर ये चुनाव जीते हैं। अगर खुदा न खास्ता भाजपा इनमें से कोई सा भी एक हिंदी राज्य हार जाती, तब विपक्ष की खुशी देखने लायक होती। तब ‘चौबीस का चेहरा’ लेख का भी स्वरूप अलग होता। दो राज्यों की जीत के बजाय एक हार पर सभी का ध्यान रहता। मोदी का मैजिक खत्म हो गया है, जनता ने मोदी को नकार दिया है, जनता का जनादेश मोदी के साथ नहीं है जैसे तमाम वाक्य फिजा में तैरते। एक व्यक्ति से इतनी भी क्या कट्टर दुश्मनी रखना कि उसकी जीत में भी दो शब्द तारीफ के न कह पाएं।
सौदामिनी वशिष्ठ | ग्वालियर, मध्य प्रदेश
काट ढूंढना मुश्किल
हिंदी भाषी प्रदेशों- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी को मिली जीत बताती है कि इस पार्टी के लोगों के लिए चुनाव करो या मरो का प्रश्न रहते हैं। आउटलुक की आवरण कथा, ‘चौबीस का चेहरा’ (25 दिसंबर) भाजपा की जीत को बहुत अच्छे ढंग से विश्लेषित करती है। इस जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है। जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी ने छत्तीसगढ़ में आदिवासियों को साधा वह गजब है। भारतीय जनता पार्टी संतुलन का खेल खेलती है और यही उसकी सफलता का राज है। मध्य प्रदेश में लगातार पांच बार मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ में पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ नेता डॉ. रमन सिंह और राजस्थान में राजघराने से संबंध रखने वाली पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को कमान न देना मोदी का साहस बताता है। इंडिया गठबंधन बनने के बाद भी राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अपनी सरकार नहीं बचा पाई। इंडिया गठबंधन में अभी तक प्रधानमंत्री के नाम पर सहमति नहीं बनी है। जबकि भारतीय जनता पार्टी तथा उसके सहयोगी दलों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम सर्वमान्य है। वैसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले हिमाचल और कर्नाटक चुनाव हारे हैं लेकिन उनकी पकड़ हिंदी भाषी क्षेत्र पर बनी हुई है। 2024 के लोकसभा में ये राज्य पार्टी को बड़ी जीत दिलाने में अहम भूमिका अदा करेंगे। फिलहाल विपक्ष को चुनाव में ब्रांड मोदी की काट ढूंढना मुश्किल है।
मीना धानिया | नई दिल्ली
नए चेहरे पर दांव
आउटलुक की आवरण कथा, ‘चौबीस का चेहरा’ (25 दिसंबर) भाजपा की जीत पर कम और कांग्रेस की हार पर ज्यादा केंद्रित है। कांग्रेस पार्टी के बुरे दिन अभी खत्म नहीं हुए हैं। इसे ऐसे कहा जाए कि पार्टी अपने बुरे दिन खत्म करना ही नहीं चाहती। इस बार विधानसभा में कांग्रेस ने तेलंगाना में जीत का स्वाद चखा लेकिन राजनीति बरकरार रखने के लिए इतना ही काफी नहीं है। अगर उसे दिल्ली का ताज चाहिए, तब पार्टी के हर कार्यकर्ता को कड़ी मेहनत करना होगी। तेलंगाना में उसे जीत तो मिली, लेकिन वहां से दिल्ली का रास्ता निकलता नहीं है। सबसे बड़ी बात कि कांग्रेस जिस दिशा में बढ़ने को लेकर बात करती है, भाजपा उसे कर गुजरती है। इससे भी वोट पर बहुत असर पड़ता है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के लिए यह हार बड़ा झटका है। आखिरकार कांग्रेस चाहती क्या है यह वह खुद नहीं जानती। जबकि यह कई बार तय हो चुका कि प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे के सामने राहुल बौने साबित होते हैं, तब भी पता नहीं क्यों कांग्रेस उन्हीं के चेहरे पर दांव लगाती रहती है। 2024 की तैयारी में अभी भी वक्त है, बाजी अभी भी पलट सकती है।
आयुष सिंह | पटना, बिहार
एक-दूसरे का साथ
25 दिसंबर के अंक में, ‘पाताल में 17 दिन’ पढ़ कर रोंगटे खड़े हो गए। सुरंग ढहने से फंसे मजदूरों की हिम्मत की जितनी तारीफ की जाए कम है। सूरज की रोशनी के बिना, अंधेरे में फंसे होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती। पर इस बार यह अच्छा रहा कि गरीबों के जीवन को भी तवज्जो दी गई और सभी को सकुशल बाहर निकाल लिया गया। सुरंग के अंदर जितनी बेचैनी थी, बाहर के लोगों को भी उनकी सलामती का बेसब्री से इंतजार था। नजरें भी हर उस खबर पर टिक जाती थी, जो सुरंग से संबंधित थी। हम बाहर बैठ कर जब इतना घुटा-घुटा सा महसूस कर रहे थे, तब भीतर मलबे और धूल में उनकी हालत क्या होगी यह समझा जा सकता है। एक-दूसरे के सहयोग से उन्होंने जीवन की डोर थामे रखी।
नताशा झा | सहरसा, बिहार
भुलाए मजदूर ही काम आए
25 दिसंबर के अंक में, ‘पाताल में 17 दिन’ किसी रोमांचकारी फिल्म की कहानी की तरह लगती है। 17 दिन सुंरग में फंसे रहने के बाद भी मजदूर सकुशल वापस आ पाए, तो इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रैट होल माइनरों की रही। सही मायनों में इन लोगों ने ही मजदूरों का जीवन बचाया है। जहां बड़ी-बड़ी मशीनें हार गईं वहां पारंपरिक तरीका काम आया। 41 मजदूरों को बचाने के लिए सरकार के प्रयास भी सराहनीय हैं। रैट माइनरों ने एक-एक इंच मलबे को काट-काट के 10-12 मीटर मलबे को भेदा। कितना कठिन काम रहा होगा यह। इन रैट माइनर्स का सार्वजनिक अभिनंदन किया जाना चाहिए। ऐसे साहसिक अभियान को सलाम।
आशा पाठक | सीधी, मध्य प्रदेश
बच गईं जिंदगियां
25 दिसंबर के अंक में, ‘पाताल में 17 दिन’ मृत्यु पर जीवन की जीत की कहानी है। सभी मजदूरों ने अपनी जीजिविषा से उस अंधियारे गलियारे में भी रोशनी की किरण जलाए रखी। सारे मजदूरों के निकलने के बाद सबसे अंत में आने वाले गब्बर सिंह के बारे में पढ़ कर लगा कि इंसान की मजबूती उसके पेशे से नहीं बल्कि मन से होती है।
संदीप नायक | पुणे, महाराष्ट्र
मोदी ही चले
25 दिसंबर को संपादकीय, ‘विपक्ष का चेहरा कौन’ तीन हिंदी भाषी प्रदेशों के चुनावी नतीजों का सटीक आकलन है। भारतीय जनता पार्टी की शानदार जीत का श्रेय सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया जाना चाहिए। चुनावी मैदान में ‘ब्रांड मोदी’ की चमक फीकी नहीं हुई है। वे अभी भी पार्टी का तुरुप का इक्का हैं। मोदी हर कार्यकर्ता में जोश भरते रहते हैं। इस सबमें कांग्रेस कहीं बहुत पीछे छूट गई है। यह सच है कि अधिकतर मतदाता मोदी के नाम पर ही पार्टी को वोट देते हैं। यह बात अब सभी मानने लगे हैं। आरएसएस मोदी की मदद करता है लेकिन मोदी की मेहनत को उनकी मेहनत के बरअक्स कम कर नहीं आंका जा सकता।
ममता बजाज | बीकानेर, राजस्थान
पुरस्कृत पत्र: खुशी के सिवा क्या हासिल
चुनाव-चुनाव का शोर साल भर से था। इस बार भी हर चुनाव की तरह खूब कयास लगे। सबके अपने मत थे। लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात रहा। मोदी की जीत से उनके विरोधी मायूस हैं। जीत से समर्थकों के पैर जमीन पर नहीं हैं। 25 दिसंबर की आवरण कथा, ‘चौबीस का चेहरा’ भी हार-जीत के कारणों की पड़ताल करती है। लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि मीडिया में जीत के बाद आम आदमी के जीवन के बदलाव और हार के बाद विपक्ष के नुकसान के ठोस कारण सिरे से गायब हैं। कोई पार्टी जब जीतती है तो समर्थकों को सिवाय खुशी के और क्या हासिल होता है। वरना जीतने वाली पार्टी उनके पक्ष में वोट देने वालों का कोई खास भला नहीं करतीं। जीत के बाद सभी बदल जाते हैं, यह मतदाता को याद रखना चाहिए।
भाग्यश्री तोमर | मुरैना, मध्य प्रदेश