पलायन बंद हो
24 नवंबर की आवरण कथा, ‘मुद्दा तो बिलाशक रोजगार’ बिहार की राजनीति का नया ही रूप दिखाता है। पिछले 20 साल से जो दल सत्ता में है, उसी की जीत के दावे किए जा रहे हैं। जदयू-भाजपा ने न युवाओं की नौकरी की चिंता की, न युवाओं के लिए शिक्षा की। यहां पलायन सबसे बड़ा मुद्दा है। लेकिन मौजूदा सरकार इस पर कोई बात नहीं कर रही है। राज्य से हर साल मजदूरी के लिए लोग निकल जाते हैं। उनसे बाहर के राज्यों में दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। लेकिन जब यहां रोजगार का संकट है, पढ़ाई का कोई स्तर नहीं है, तो यहां रहकर कोई क्या करेगा। पूरे बिहार में स्वास्थ्य ढांचा चरमराया हुआ है। लेकिन इस पर कोई बात नहीं हो रही है। तेजस्वी के पास बिहार को लेकर एक नजरिया है। वे नौकरी, पढ़ाई, दवाई, कार्रवाई, सुनवाई की बात कर रहे हैं। अगर बिहार वाकई बदलाव चाहता है, तो जनता को उन्हें सरकार बनाने का मौका देना चाहिए। तेजस्वी को चाहिए कि वे एनडीए की विफलताओं को लोगों तक पहुंचाएं और सत्ता से ऊबे लोगों को विकल्प मुहैया कराएं।
काजल अग्रवाल | मंडी, हिमाचल प्रदेश
चिंता किसे है
24 नवंबर की आवरण कथा, ‘मुद्दा तो बिलाशक रोजगार’ दरअसल बिहार के लोगों के ऊब की कहानी है। दिक्कत यह है कि वहां की जनता एनडीए से आगे सोच ही नहीं पाती। नीतीश पिछले कई साल से सोचने-समझने की शक्ति खो चुके हैं, लेकिन मजबूरी यह है कि वहां की जनता कोई और चेहरा देखना ही नहीं चाहती। भाजपा-जदयू का गठजोड़ ऐसा है कि नीतीश को कोई ठौर नहीं, भाजपा को कोई और नहीं। दूसरा मुद्दा वहां रोजगार है इसकी चिंता किसी को नहीं है।
सुमंत कुमार | चाईबासा, झारखंड
कौन होगा मुख्यमंत्री
24 नवंबर की आवरण कथा, ‘मुद्दा तो बिलाशक रोजगार’ दिलचस्प लेख है। बिहार विधानसभा चुनाव में ऊंट किस करवट बैठेगा, सभी इसी इंतजार में हैं। बीस साल बाद भी नीतीश कुमार ही रहेंगे या तेजस्वी को मौका मिलेगा। पिछली बार राजद और भाजपा लगभग बराबर थे। अगर राजद शतक लगाती है, तो तेजस्वी को फिर मुख्यमंत्री बनने से कोई नहीं रोक सकता। यह नहीं भूलना चाहिए कि जीविका दीदी के खातों में जिस तरह दस-दस हजार रुपये गए हैं, उसका भी असर होगा। इसी अंक में, भारतीय महिला क्रिकेट टीम की जीत के बारे में अच्छा लेख है। ‘दुनिया जीतकर ठोका खम’ में महिला क्रिकेट टीम के कीर्तिमान को बहुत अच्छी तरह बताया गया है। स्मृति में रामदरश मिश्र के बारे में पढ़ा। उनके रचनाकर्म को जाना। उनका जाना पूरी पीढ़ी के लिए बड़ा नुकसान है।
यशवंत पाल सिंह | वाराणसी, उत्तर प्रदेश
जीत का सेहरा
आउटलुक के 24 नवंबर अंक में ‘दुनिया जीतकर ठोका खम’ शानदार लेख है। आखिरकार महिला विश्व कप के 12 संस्करण और 2005 और 2007 के बड़े झटके के बाद आखिरकार हमारी महिला टीम ने विश्व कप जीत ही लिया। यह जीत इसलिए भी अहम है कि दक्षिणी अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड से हार के बाद हमारी टीम की लय भी गड़बड़ा गई थी। लेकिन जिस तरह सेमीफाइनल में ऑस्ट्रेलिया और फिर फाइनल में दक्षिणी अफ्रीकी टीम को टीम ने पटखनी दी वह यादगार है। स्मृति मंधाना, हरमनप्रीत, शेफाली और दीप्ति शर्मा, अंजुम चोपड़ा, झूलन गोस्वामी और मिताली राज की कड़ी मेहनत अब जाकर रंग लाई। यह जीत न केवल युवा लड़कियों को क्रिकेट से जुड़ने के लिए प्रेरित करेगी, बल्कि देश की सभी महिलाओं में आत्मविश्वास भी जगाएगी। अब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को न केवल महिला क्रिकेट के लिए अपने बजट से ज्यादा पैसा देना चाहिए, बल्कि महिला क्रिकेट खिलाड़ियों की फीस भी बढ़नी चाहिए।
बाल गोविंद | नोएडा, उत्तर प्रदेश
रचा इतिहास
भारत के खेल इतिहास में 2 नवंबर 2025 की रात सबसे चमकदार रातों में दर्ज हो गई। भारतीय महिला क्रिकेट टीम ने दक्षिण अफ्रीका को 52 रन से हराकर पहली बार आइसीसी महिला वनडे विश्व कप जीता। भारतीय महिला क्रिकेट टीम भी अब विश्व विजेता बन गई है। यह करिश्मा कप्तान हरमनप्रीत कौर और कोच अमोल मजूमदार का है। जिस तरह से क्रिकेट के मैदान में भारतीय महिला क्रिकेट खिलाड़ियों ने यह करिश्मा दिखाया, उससे साबित होता है कि वे इस बार जीत के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थीं। इसके लिए उन्हें थोड़ा लंबा सफर तय करना पड़ा लेकिन जीत के बाद अब यह देरी मायने नहीं रखती। भारत की खिलाड़ियों ने जितनी अच्छी गेंदबाजी की, उतनी ही संतुलित बल्लेबाजी की। भारतीय महिला क्रिकेट में यह नए युग की शुरुआत है। शेफाली, रिचा घोष जैसी युवा बल्लेबाजों ने जीत का सेहरा हमारे सिर बांधा है। (24 नवंबर, ‘दुनिया जीतकर ठोका खम’)
मीना धानिया | नई दिल्ली
टीम का कमाल
आउटलुक के 24 नवंबर अंक में, ‘दुनिया जीतकर ठोका खम’ भारतीय महिला क्रिकेट टीम की जीत का बहुत अच्छा वर्णन है। हरमनप्रीत की टीम ने कमाल कर दिया। यह जीत उन सभी खिलाड़ियों की जीत है, जिन्होंने भारत की इस जीत के लिए मेहनत की। भारतीय महिला टीम लंबे समय से इस जीत की प्रतिक्षा में थी। मिताली राज और झूलन गोस्वामी ने इस जीत की नींव रख दी थी। दोनों ने टीम को बहुत मजबूती दी, जिससे आज यह जीत संभव हो सकी। यह जीत हर उस लड़की की जीत है, जो समाज में किसी भी तरह के विरोध का सामना कर रही है। इससे सामाजिक सोच भी बदलेगी। अभी तक क्रिकेट को सिर्फ पुरुषों का खेल माना जाता था। लेकिन बेटियों ने उसमें दबदबा बना कर दिखा दिया कि खेल का कोई लिंग नहीं होता। अब इस खेल में भी महिलाओ की भागीदारी बढ़ेगी। यह जीत कप्तान हरमनप्रीत के नेतृत्व, दृढ़ता और प्रदर्शन की जीत है। कहा जा सकता है कि भारतीय क्रिकेट में एक नया युग शुरू हो चुका है। युवा और अनुभवी खिलाड़ी इस संतुलन को खास बना रहे हैं।
चंद्राणी मजूमदार | कोलकाता, पश्चिम बंगाल
जीती बाजी
यह पहली बार हुआ कि नवी मुंबई के स्टेडियम में दर्शक खचाखच भरे थे। एक वह वक्त भी था, जब महिला क्रिकेट को बिलकुल गंभीरता से नहीं लिया जाता था। लेकिन इस बार के विश्व कप का नजारा ही दूसरा था। भारत की मजबूत शुरुआत ने ही बता दिया था कि इस बार विश्व कप से कम कुछ भी मंजूर नहीं है। शेफाली वर्मा, दीप्ति शर्मा, स्मृति मंधाना ने इस मैच को यादगार बना दिया। दरअसल क्रिकेट का अर्थ ही रोमांच है। इसी रोमांच के कारण दर्शक जुटते हैं। भारत की टीम ने इस बार उस रोमांच को बनाए रखा। दक्षिण अफ्रीका की टीम भी कहीं से कम नहीं थी। लेकिन भारतीय गेंदबाजों ने मैच का रुख पलट दिया। यह खिताब पूरी भारतीय महिला क्रिकेट टीम के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अब कम से कम महिला क्रिकेट खिलाड़ियों की पुरुष खिलाड़ियों से तुलना बंद होनी चाहिए। (24 नवंबर, ‘दुनिया जीतकर ठोका खम’)
कांता रावत | कोटद्वार, उत्तराखंड
संवेदना के खिलाफ
24 नवंबर के अंक में, ‘स्मृति के खोए हुए फ्रेम’ में अल्जाइमर या कहें डिमेंशिया पर आधारित फिल्मों की अच्छी पड़ताल है। सैयारा आने के बाद से इस बीमारी के बारे में लोग बात करने लगे हैं। लेख में सच है कि इन फिल्मों में वास्तविकता का कोई अंश नहीं होता। पहले भी ऐसी कई फिल्में आती रही हैं, जिसमें नायक या नायिका याददाश्त खो देते हैं लेकिन ये सभी फिल्में वास्तविकता से परे होती हैं। काजोल की यू मी और हम हो या श्रीदेवी की सदमा, जिसमें कुछ समय के लिए उनकी याददाश्त चली जाती है। सवाल यह है कि क्या यह अल्जाइमर जैसी बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों की संवेदना से खिलवाड़ नहीं है? बीमारी को खलनायक के रूप में पेश करना कहां तक सही है। वैसे भी जाति व्यवस्था को फिल्मों ने बहुत ज्यादा खराब ढंग से पेश किया है। कम से कम बीमारी को तो बॉलीवुड को बक्श ही देना चाहिए।
सुरेश कामत | शिमोगा, कर्नाटक
नया खलनायक
24 नवंबर के अंक में, ‘स्मृति के खोए हुए फ्रेम’ लेख पढ़ कर यही समझ में आया अगर नायक या नायिका को कोई खतरनाक बीमारी है, तो फिर फिल्म को किसी खलनायक की जरूरत नहीं है। बीमारी अकेले ही दर्शकों को रुलाने के लिए काफी है। बीमारी जितनी कठिन, फिल्म उतनी ही हिट। निर्माता-निर्देशक दर्शकों को केवल संवेदना के स्तर पर वहां ले जाना चाहते हैं, जहां पहुंच के वे जार-जार रो दें। तभी तो बिना सिर-पैर की फिल्में कमाई कर रही हैं
प्रेम कुमार झा | दरभंगा, बिहार
पुरस्कृत पत्रः मुद्दे गौण
आउटलुक की 24 नवंबर की आवरण कथा, ‘मुद्दा तो बिलाशक रोजगार’ पढ़ी। चुनाव के नतीजे आने के बाद यह भी तय हो जाएगा कि किसी को वाकई रोजगार की जरूरत है भी कि नहीं। दरअसल सरकार बनने के बाद सभी लोग रोजगार-रोजगार चिल्लाते हैं, लेकिन जब वाकई इस मुद्दे पर सरकार चुनने का वक्त आता है, तो लोग अपने हर तरह के गणित के बाद ही वोट देते हैं। बिहार के बारे में कोई कुछ भी कहे, लेकिन यह तो तय है कि यहां का चुनाव सिर्फ और सिर्फ जाति के मुद्दे पर लड़ा जाता है। बाकी सभी तरह के मुद्दे यहां गौण हैं। यहां का संदेश साफ है, अगर जाति का नहीं तो वोट नहीं। इसलिए बिहार की हालत बदतर है। प्रशांत किशोर वहां बदलाव लाने के लिए जी-जान से जुटे हैं, काश उनकी मेहनत सफल हो।
अभिनव अयांश|पटना, बिहार