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पाठको की चिट्ठियां
पिछले अंक पर आई प्रतिक्रियाएं

चुनावी सबक

8 दिसंबर के अंक में, आवरण कथा ‘नीमो नमः’ अच्छी लगी। बिहार ने ऐतिहासिक जनादेश दिया है। यह अपने आप में राजनीतिक- सामाजिक शोध का विषय है। समाजवादी राजनीति की पूरी धरोहर अब सत्तारूढ़ जनता दल (यू) के खाते में जा रही है, भले ही उसे पूंजीवादी और बाहुबल से सींचा गया हो। विपक्ष या महागठबंधन के लिए यह बड़ी हार है। उन्हें इससे उबरने में समय लग सकता है। राजद और कांग्रेस दोनों को ही अपनी रणनीति बदलने की जरूरत है। दोनों पार्टियां जब तक जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं से नहीं जुड़ेंगी, तब तक वे जीत का सपना देखना छोड़ दें। नीतीश कुमार ने दसवीं बार ताज पहना है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि वे जनाकांक्षाओं की कसौटी पर कहां तक खरे उतर पाएंगे। या यह भी संभव है कि भाजपा की अप्रत्याशित जीत सूबे में कोई नई राजनीतिक महत्वाकांक्षा पैदा कर दे। जो भी हो, यह पराजितों के लिए सबक है, जिसे उन्हें याद रखना चाहिए।

डॉ. हर्ष वर्द्धन कुमार | पटना, बिहार

 

स्वावलंबन का नतीजा

8 दिसंबर के अंक में, ‘नीतीश नारी लोकतंत्र’, अच्छा लेख है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह बिहार का महिला भागीदारी जनादेश है। नीतीश कुमार महिला शक्ति की बदौलत दसवीं बार मुख्यमंत्री बने हैं। मतदान में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से राज्य का स्वरूप बदल गया है। नतीजे आने के बाद आलोचना हो रही है कि महिलाओं के खाते में पैसे डालने से यह जीत मिली है। लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है। पैसे से जो स्वावलंबन आया है, उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। पुरुष के हाथ में पैसा आने से वह कई बार गलत मद में पैसा खर्च कर सकता है। लेकिन महिलाएं उस पैसे से परिवार की जरूरतें पूरी करती हैं। वे केवल लाभार्थी नहीं हैं, बल्कि शासन की हितैषी भी हैं।  

शिल्पी कुमारी | दरभंगा, बिहार

 

संदेश गहरा

हाल ही में आए बिहार चुनाव के नतीजों ने कुछ लोगों को चौंका दिया। लेकिन नतीजों में चौंकने जैसी कोई बात नहीं थी। सभी इसे मोदी की जीत बता रहे हैं, लेकिन यह महिला शक्ति की जीत है। महिलाओं ने हर दावे को झुठला कर नीतीश के सिर फिर ताज सजाया है। नीतीश कुमार ने सबसे अच्छा काम यह किया कि उन्होंने अपनी योजना में, आशा कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, मध्याह्न भोजन बनाने वाली महिलाओं, महिला शिक्षिकाओं और महिला पुलिसकर्मियों का खयाल रखा। क्योंकि कोई भी सरकार इतने छोटे पदों पर काम करने वाली महिलाओं की ओर देख ही नहीं पाती है। महिलाएं राज्य का ही हिस्सा होती हैं, लेकिन जब देने की बारी आती है, तो सरकार को ये दिखाई ही नहीं देतीं। अब चूंकि उन्होंने नतीजों में बड़ी भूमिका निभाई है, तो संभव है, दूसरे राज्य में भी महिलाओं को प्राथमिकता देने लगें और वहां भी स्थितियां सुधर जाएं। (8 दिसंबर, ‘नीतीश नारी लोकतंत्र’)

जागृति पाठक | खरगोन, मध्य प्रदेश

 

पलायन पर बात

8 दिसंबर के अंक में, ‘प्रवासी पैंतरे’, में कई बातें सामने आईं। जिस झगड़े को पूरा देश, उत्तर बनाम दक्षिण समझता रहा है, दरअसल वह लड़ाई किसी राज्य में है ही नहीं। तमिलनाडु पर बिहार के लोगों के साथ दुर्व्यवहार का आरोप लगा, महाराष्ट्र के मुंबई में भी बिहार के लोगों की भावनाओं को आहत किया जाता है। लेकिन समझने वाली बात यह है कि यह सिर्फ राजनीति है। आम तमिल या मराठी भाषी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी दूसरे राज्य के लोग उनके यहां आकर काम कर रहे हैं। हां यह अलग विषय हो सकता है कि बिहार में पिछड़ी जातियों के साथ आज भी सवर्ण खराब व्यवहार करते हैं। इसके अलावा यहां कोई उद्योग भी नहीं है, जिससे पलायन ज्यादा होता है। यह बहुत गंभीर मुद्दा है, जिस पर सिर्फ चुनाव के वक्त बात होती है और बाद में इसे भुला दिया जाता है। इस बार जिस तरह से बिहार से लोगों के पलायन पर बात हुई है, वह सियासत के लिए अहम संदेश है। नीतीश सरकार को चाहिए कि इस मुद्दे पर गंभीरता दिखाएं।

प्रकाश जोशी | मुंबई, महाराष्ट्र

 

बदलनी होगी सोच

8 दिसंबर के अंक में, ‘बॉलीवुड का बिहार’ अच्छा लेख है। दरअसल यह बॉलीवुड की नहीं, बल्कि उस राज्य की दिक्कत है। लेख में ही बताया गया है कि कई फिल्में वास्तविक घटनाओं से प्रेरित हैं। इससे समझा ही जा सकता है कि उस राज्य का चरित्र क्या है। यहां अपराध और अपराधियों को इतना अधिक ग्लोरिफाई किया गया कि आम लोगों को लगता ही नहीं कि अपराध करना गलत है। जो घटनाएं पूरे देश को झकझोर देती हैं, वही घटनाएं बिहार के लोगों के लिए दिलचस्प होती हैं। कहने का मतलब यह कि राज्य में बार-बार होने वाली अराजकता और कानून-व्यवस्था की नाकामी वहां ताकत पर भारी पड़ती है। इसलिए जब तक उस राज्य के लोगों की सोच नहीं बदलती, फिल्में बनती रहेंगी।

गिरीश मलिक | पटियाला, पंजाब

 

हिंसा की अति

8 दिसंबर के अंक में, ‘बॉलीवुड का बिहार’ गंभीर लेख है। यह बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कता है। आखिरकार वहां की कहानियां अपराध पर ही केंद्रित क्यों रहती हैं। इसलिए क्योंकि वहां समाज दबंग और कमजोर में स्पष्ट रूप से बंटा हुआ है। नेताओं की छवि अपराधी वाली है। बाहुबलियों को लोग भगवान की तरह पूजते हैं। जब वहां के लोगों की सोच ऐसी होगी, तो फिल्मों में यह दिखाई देगा ही। हिंसा का रोमांच सभी को पसंद आता है। ऐसा नहीं है कि अपराध की कहानियां किसी और पृष्ठभूमि में कही जाएंगी, तो लोगों को पसंद नहीं आएंगी। लेकिन जब भाषा या पृष्ठभूमि और किरदार बिहार के होते हैं, तो विश्वसनीयता झलकती है। वहां की कहानी कहने पर दर्शकों को भरोसा रहता है कि बिहार में ऐसा होना बिलकुल संभव है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि बॉलीवुड बिहार की ऐसी छवि दिखा रहा है। बॉलीवुड वही दिखा रहा है, जो वहां हो रहा है। फिर चाहे वह गंगाजल हो, अपहरण हो, महारानी हो या बरसों पहले आई फिल्म दामुल हो। जब तक यह सोच नहीं बदलेगी, अपना तरीका बॉलीवुड बदलने से रहा।

श्रीजीत बनर्जी | जमशेदपुर, रांची

 

पसंद की कहानियां

बिहार अपने आप में अनोखा और अनूठा है। यही कारण है कि बॉलीवुड भी खुद को इस आकर्षण में बंधा हुआ पाता है। अपराध की कहानियां सभी को पसंद हैं। यही वजह है कि फिल्म निर्माताओं का यह पसंदीदा प्रदेश है। अपराध और ताकत का यहां ऐसा गठजोड़ है, जिसकी कहानियां मीडिया में आती ही रहती हैं। जब ये कहानियां फिल्म की शक्ल में ढल कर आती हैं, तो इसका आकर्षण और बढ़ जाता है। इसमें यह कहना गलत होगा कि इस वजह से बिहार की दूसरी अच्छी बातें अनदेखी रह गईं हैं। क्योंकि यहां के फिल्म निर्देशक अपराध की कहानी दिखाना ही पसंद करते हैं। प्रकाश झा को भी भागलपुर ब्लाइंडिग्स और यहां कभी उद्योग का दर्जा प्राप्त अपहरण ही दिखाई देता है। क्योंकि यह बिहार का एक सच है, जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। कहानियां जब तक रोचक न हो उन्हें कोई देखना नहीं चाहता। बिहार उस रोचकता की खान है। यहां का सामंती  समाज लोगों को लुभाता है। गरीबों पर अभी भी यहां अत्याचार होता है। इसलिए यहां की कहानियां अलग हैं। रही बात मांझी द माउंटेन मैन फिल्म की, तो दशरथ मांझी की वास्तविक जिंदगी पर आधारित इस फिल्म को वैसी सफलता नहीं मिली, जैसी बाकी की फिल्मों को मिली थी। यह फिल्म एक दलित मजदूर की कहानी थी, लेकिन इसमें गैंग्स ऑफ वासेपुर, गंगाजल जैसी हिंसा नहीं थी। इसका मतलब साफ है कि लोगों को हिंसा पसंद है और बॉलीवुड वही दिखा रहा है। (8 दिसंबर, ‘बॉलीवुड का बिहार’)

मनोज कुमार | अलीगढ़, उत्तर प्रदेश

 

शब्दों का पुनर्जन्म

24 नवंबर के अंक में, स्मृति आलेख, ‘पापा फिर मिलते हैं’ शब्दों के माध्यम से पिता प्रोफेसर रामदरश मिश्र को याद करने का सुंदर प्रयास है। रामदरश मिश्र खुद को वृहत् साहित्यिक परिवार का हिस्सा मानते थे, इसलिए, उनकी आखिरी इच्छा भी आत्मीय साहित्य संसार के लोगों के बीच याद किए जाने की थी। यह एक लेखक ही सोच सकता है। क्योंकि आम इंसान जो किताबों से दूर है, वह कर्मकांड को ही सर्वोपरि मानता है। जीवन के अंतिम पड़ाव पर भी यदि वह अपनी चेतना में साहित्य को रख पाए, तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है। मिश्र जी भले ही अपने साथ एक युग लेकर चले गए, लेकिन अपने पीछे वे कई युगों को प्रेरित करने की शक्ति छोड़ गए हैं। साहित्यकार को यह मान देना दिल को छू गया।

प्रियांशु प्रियदर्शी | दिल्ली

 

पुरस्कृत पत्र: बिहार के किस्से

8 दिसंबर के अंक में, ‘बॉलीवुड का बिहार’ बहुत सही समय पर आया लेख है। इस लेख को पढ़ कर ध्यान दिया कि वाकई हिंदी फिल्मों ने बिहार की अलग ही छवि गढ़ी है। लेकिन इसमें भी खास बात यह है कि दबंगई, रंगदारी वाली इस छवि को लेकर बिहार के लोग खुश भी होते हैं। उन्हें इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता। बल्कि उन्हें लगता है कि बाकी के प्रदेशों में उनका खौफ है। बिहार की अपराध के अलावा भी कोई संस्कृति है, यह शायद खुद बिहार वाले भी भूल चुके होंगे। सही कहा गया है, कोई अपनी संस्कृति को कैसे याद रखता है, यह वहां के लोगों पर ही निर्भर करता है। बॉलीवुड अपनी परिभाषा बदले इसके लिए जरूरी है कि यहां के फिल्म निर्माता-निर्देशक आगे आएं।

संस्कृति अरोरा|दिल्ली

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