अपनी बात को कुछ सवालों के दायरे में रखकर कुछ कहना चाहूंगा। पहला सवाल यह है कि आज हम यह चर्चा क्यों कर रहे हैं कि हिंदी प्रदेशों में नई सांस्कृतिक-साहित्यिक जागरूकता देखने को मिल रही है? क्या इससे पहले हिंदी प्रदेशों में सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरूकता की कमी थी या है? यदि कमी थी तो उसके क्या कारण थे? हिंदी प्रदेशों में साहित्यिक-सांस्कृतिक जागरूकता को कैसे बढ़ावा दिया जा सकता है? इन प्रश्नों पर विचार करना बहुत आवश्यक है?
किसी समाज की सांस्कृतिक जागरूकता इस बात का प्रमाण होती है कि वह कितना उन्नत समाज है। हिंदी प्रदेशों की सांस्कृतिक जागरूकता की तुलना यदि हम केवल भारत के अहिंदी भाषी प्रदेशों से ही करें तो काफी हैरानी होती है। एक ही देश के अलग-अलग प्रांतों में रहने वाले लोगों के सांस्कृतिक जीवन में बहुत अंतर दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिए, केरल में जिस प्रकार का उन्नत साहित्यिक परिदृश्य है वैसा हिंदी प्रदेशों में नहीं है। तमिलनाडु में व्यापक स्तर पर पुस्तकालय आंदोलन जैसी स्थिति हिंदी प्रदेशों में नहीं है। महाराष्ट्र के रंगमंच जैसा रंगमंच हिंदी प्रदेशों में नहीं है। कन्नड़ में भी सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरूकता हिंदी प्रदेशों की तुलना में बहुत बेहतर है। हिंदी प्रदेशों के सांस्कृतिक गतिरोध ने ही अन्य प्रदेशों में धर्मांधता और जातीयता को बढ़ावा दिया है। इसी के कारण हिंदी प्रदेशों में सांप्रदायिकता भी बढ़ी है और बुनियादी मुद्दों से लोगों का ध्यान हट गया है। कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि देश की प्रमुख समस्याएं हिंदी प्रदेशों की समस्याएं हैं और जब तक उनका समाधान नहीं निकलेगा तब तक देश में लोकतंत्र और विकास के मुद्दे सुलझ नहीं पाएंगे। इस तरह कहा जा सकता है कि सांस्कृतिक और साहित्यिक जागरूकता ही हिंदी प्रदेशों की एक मूल समस्या है। दुर्भाग्य से, किसी राजनीतिक दल ने इस समस्या के प्रति अपना दृष्टिकोण निर्धारित नहीं किया है, बल्कि नेताओं ने सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों को अपने नियंत्रण में लेकर उनका सरकारीकरण कर दिया है। सरकारीकरण का परिणाम यही निकला है कि नेताओं की मन-मर्जी और उनकी विचारधारा के अनुसार, साहित्यकारों और कलाकारों को आगे बढ़ाने का काम किया गया है, जो निश्चित रूप से जनहित और देशहित में नहीं कहा जा सकता।
हिंदी प्रदेशों में सांस्कृतिक चेतना के पर्याप्त विकास न होने के बहुत से कारण बताए जाते हैं। पहला कारण यह बताया जाता है कि हिंदी में समाज सुधार और शिक्षा के बड़े आंदोलन नहीं हुए। राष्ट्रीय आंदोलन ने अवश्य हिंदी पट्टी को जागृत किया था लेकिन आजादी के बाद यह जागृति देखते-देखते समाप्त हो गई। इसका कारण यह बताया जाता है कि आजादी के बाद बनी सरकार में हिंदी पट्टी वालों का बहुमत था और उस बहुमत ने हिंदी पट्टी के लोगों को आश्वस्त कर दिया था कि अब उन्हें स्वयं अपने साहित्य और संस्कृति के उत्थान की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, अब यह काम सरकार करेगी। सरकार ने यह काम दो तरीकों से किया। पहला काम तो यह किया कि आजादी के पहले से चली आ रही संस्थाओं जैसे नागरी प्रचारिणी सभा आदि को अनुदान दिए लेकिन यह चिंता नहीं की कि इन संस्थाओं का स्वरूप क्या बन रहा है। नतीजा यह निकला कि उन संस्थाओं पर व्यक्तियों या परिवारों का एकाधिकार स्थापित हो गया। भ्रष्टाचार के कारण ये संस्थाएं लगभग नष्ट हो गईं। दूसरा काम सरकार ने यह किया कि सरकारी आधार पर संस्थाएं बनाईं, जिन्हें सरकारी कर्मचारी चलाते थे और उन्होंने बिलकुल सरकारी ढंग से संस्थाओं को चलाते हुए जनता से काट दिया। सरकारी काम किस तरह होते हैं यह सबको मालूम है। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदी प्रदेशों की सभी साहित्यिक पत्रिकाओं और समाचार-पत्रों पर पूंजीवादी घरानों का अधिकार हो गया आजादी के बाद उनका साम्राज्यवाद विरोध खत्म हो गया और नए आजाद देश में उनके एजेंडे बदल गए और उन्होंने अपने एजेंडों के अनुसार पत्र-पत्रिकाओं का संचालन शुरू किया। वामपंथी दलों के समर्थकों ने यह विचारधारा रखने वालों में लघु पत्रिका आंदोलन शुरू किया, जो बहुत सीमित क्षेत्र में ही रहा। वही लोग पाठक बने जो लेखक थे। धीरे-धीरे लोकप्रिय पत्रिकाएं जैसे धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान आदि बंद होना शुरू हो गईं और यह सिलसिला काफी आगे तक बढ़ा। हद यह हो गई कि हिंदी में कोई लोकप्रिय साहित्यिक-सामाजिक- सांस्कृतिक पत्रिका ही नहीं बची। जो पत्रिकाएं निकलीं वे राजनीतिक पत्रिकाएं थीं और उनका एजेंडा केवल राजनीति थी। हिंदी प्रदेशों में बड़े सांस्कृतिक उत्सव भी नहीं मनाए जाते थे। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु जैसे संगीत सम्मेलन आदि यहां नहीं होते हैं। कुल मिलाकर आजादी के 70 साल हिंदी प्रदेशों में सांस्कृतिक पतन के दशक कहे जाएंगे। ऐसी स्थिति में हिंदी प्रदेशों के बुद्धिजीवी अपने आप में सिमटते चले गए। उनका लोगों से संपर्क समाप्त हो गया। उनकी गतिविधियां छोटे कमरों तक सीमित हो गईं और कविता-कहानी, कला-संगीत उन लोगों तक नहीं पहुंच सका, जहां पहुंचना चाहिए था।
पिछले 10 साल से हिंदी क्षेत्र में एक प्रकार की साहित्यिक-सांस्कृतिक जागरूकता की आहट मिल रही है। इसका प्रमाण वे साहित्यिक समारोह हैं जो छोटे-छोटे शहरों तक में किए जा रहे हैं। बड़े शहरों में भी इस तरह के आयोजन हो रहे हैं लेकिन आश्चर्य की बात है कि उर्दू साहित्य और संस्कृति के रेखता द्वारा आयोजित समारोहों की तुलना में हिंदी में ऐसा कोई आयोजन नहीं किया जाता, जबकि निश्चित रूप से हिंदी लिखने-पढ़ने और बोलने वालों की संख्या उर्दू वालों से कहीं अधिक है। हिंदी प्रदेशों में दो प्रकार के साहित्यिक-सांस्कृतिक हस्तक्षेप देखे जा सकते हैं। पहला तो वह है जो प्रतिबद्ध वामपंथी लेखक संगठनों द्वारा किया जाता है। यह हस्तक्षेप सैद्धांतिक रूप से चाहे जितना प्रभावशाली हो लेकिन व्यवहार में उसका दायरा बहुत छोटा होता है। इन आयोजनों में प्रतिबद्ध लेखक और पाठक ही शामिल होते हैं। उन लोगों के लिए कोई स्थान नहीं होता जो विचारधारा से प्रतिबद्ध नहीं हैं। ऐसे कुछ आयोजन व्यावसायिक घराने या बड़े-बड़े संस्थान भी करते हैं। इन आयोजनों में जरूर शामिल होने वालों की संख्या बड़ी होती है लेकिन हिंदी प्रदेश के जनमानस से उनका जुड़ाव नहीं होता।
इस संबंध में भाषा का सवाल भी बड़ा है। आजादी के बाद हिंदी का अवमूल्यन हुआ है। राजभाषा या जन भाषा के रूप में हिंदी को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल सका। इसके अनेक कारण हैं, जिनकी विस्तार से चर्चा की जा सकती है लेकिन हिंदी का ज्ञान-विज्ञान की भाषा न बन पाना और अंग्रेजी का प्रभुत्व मुख्य कारण है। दशकों से स्कूली शिक्षा में अंग्रेजी का महत्व बहुत बढ़ गया है और हिंदी का स्थान लगभग शून्य हो गया है। स्कूल में ही छात्रों के मन में हिंदी के प्रति उपेक्षा का भाव और अंग्रेजी के प्रति महानता का भाव पैदा हो जाता है। ऐसे छात्र न तो हिंदी साहित्य में रुचि ले सकते हैं और न हिंदी की सांस्कृतिक विरासत से प्रेम कर सकते हैं। वे अपने आप को अंग्रेजी के अधिक निकट महसूस करते हैं लेकिन न तो पूरी तरह अंग्रेजी संस्कृति अपना पाते हैं और न हिंदी संस्कृति के निकट आ पाते हैं। ऐसी स्कूली शिक्षा प्राप्त लोगों से यह आशा करना बेकार है कि वे हिंदी के साहित्य और संस्कृति में रुचि लेंगे।
सरकारी शिक्षा, जहां हिंदी मुख्य रूप से पढ़ाई जाती थी, उसे नेताओं ने पूरी तरह समाप्त कर दी है। अब ऐसे सरकारी स्कूल नहीं के बराबर बचे हैं। ग्रामीण इलाकों या निम्न स्तर के शहरों में ही हिंदी माध्यम स्कूल काम कर रहे हैं, जहां गरीब लड़के हिंदी पढ़ते हैं। इस तरह हिंदी को गरीबों की भाषा बना दिया गया है और निश्चित रूप से गरीबों की भाषा में किसे रुचि होगी और उसकी क्या सामाजिक मान्यता होगी? बात यहां तक आ पहुंची है कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में हिंदी पढ़ाने वाले अध्यापकों से यह कह दिया जाता है कि उन्हें अंग्रेजी या दूसरे विषय पढ़ाने वालों के बराबर वेतन क्यों दिया जाए?
एक ओर हिंदी की यह अवमानना है, तो दूसरी ओर स्थिति यह है कि व्यावहारिक रूप से हिंदी किसी की मातृभाषा नहीं है। मतलब यह है कि अब भी मातृभाषा बोलियां हैं और बोलियों के प्रति लोगों के अंदर जो लगाव और प्रेम है, जो संवेदना है, वह हिंदी के प्रति नहीं बन पाई है। हिंदी के बड़े कवि और लेखक तक जब अपनी मातृबोली बोलने वाले लोगों से मिलते हैं तब हिंदी में बात नहीं करते, वे अपनी बोली में ही बात करते हैं। हिंदी के एक विख्यात कवि कहते हैं कि वे ऐसी भाषा के कवि हैं जो किसी की मातृभाषा नहीं है। मतलब हिंदी भाषा से लोगों को वह लगाव और प्रेम नहीं है जो मातृभाषा से होता है। यही कारण है कि दूसरी क्षेत्रीय बोलियों की तुलना में हिंदी के प्रति राजनैतिक रूप से तो बहुत उत्साह देखा जा सकता है लेकिन भावनात्मक स्तर पर यह उत्साह नजर नहीं आता। भाषा को मातृभाषा बनने में समय लगता है और हिंदी को मातृभाषा बनने में अभी कम से कम पचास साल और लग सकते हैं।
अब गंभीर सवाल यह सामने आता है कि हिंदी प्रदेशों की साहित्यिक-सांस्कृतिक जागरूकता का माध्यम हिंदी बने या वे बोलियां बनें, जिसको क्षेत्र-विशेष के लोग अपनी बोली मानते हैं। मान लीजिए अवध के क्षेत्र में अवधी, भोजपुर के क्षेत्र में भोजपुरी, मिथिला के क्षेत्र में यह मैथिली में सांस्कृतिक-साहित्यिक आंदोलन शुरू किया जाए तो क्या वे क्षेत्रीय बोलियों में होंगे? यदि वे हिंदी में होंगे तब लोगों को इतनी रुचि नहीं पैदा होगी, उतना लगाव नहीं होगा जितना अपनी क्षेत्रीय बोलियों से होता है। और यदि क्षेत्रीय बोलियों में साहित्यिक और सांस्कृतिक आंदोलन होंगे तो निश्चित रूप से वे हिंदी भाषा और साहित्य को कितना दे पाएंगे, यह सवाल खड़ा होगा। इस सवाल का जवाब यह कहकर दिया जा सकता है कि बोली और भाषा के अंतर को लोग समझते हैं। बोलियां मातृभाषा हैं लेकिन मातृभाषा से काम चल नहीं सकता। इसलिए हिंदी को स्वीकार करना पड़ता है। इसका मतलब यह हुआ कि बोलियां घर की भाषाएं हैं और हिंदी बाहर की भाषा है। मतलब यह कि बाहर की हिंदी से वह लगाव कैसे हो सकता है जो घर की भाषा से होता है। क्या हिंदी उसी तरह कामकाज की भाषा है जिस प्रकार अंग्रेजी है? और यदि दोनों कामकाज की भाषाएं हैं तो हिंदी की तुलना में क्यों न अंग्रेजी को अपनाया जाए, जिससे पूरी दुनिया में कामकाज चल सकता है?
समस्या गंभीर है लेकिन आशा की एक सुनहरी किरण भी है। आजादी के बाद बेहिसाब और अनियंत्रित ढंग से हिंदी प्रदेशों में शहरीकरण हुआ है। गांव से शहर आकर बसने वालों की संख्या में सैकड़ों गुना की वृद्धि हुई है। इसके कारण बहुत से हैं और बहुत अच्छे नहीं हैं पर इसकी चर्चा करने के लिए एक दूसरा लेख लिखने की जरूरत पड़ेगी। इसलिए उसमें जाने की आवश्यकता नहीं है। हिंदी प्रदेशों के शहरों में जन्मी नई पीढ़ी या कहना चाहिए पहली या दूसरी पीढ़ी की मातृभाषा हिंदी है। उनके माता-पिता जरूर बोली के प्रति बहुत आकर्षण और भावनात्मक लगाव रखते होंगे लेकिन यह पीढ़ी, जो शहर में पैदा हुई है, उसकी मातृभाषा हिंदी है। यह पीढ़ी सांस्कृतिक और साहित्यिक आंदोलन का बड़ा आधार बन सकती है। लेकिन सवाल यह है, उस पीढ़ी तक कैसे पहुंचा जाए? उस पीढ़ी को कैसे बताया जाए की हिंदी साहित्य और संस्कृति उसके लिए बहुत आवश्यक है? उसके सिर पर चढ़ा अंग्रेजी का भूत कैसे उतारा जाए? उसके लिए कैसे कार्यक्रम बनाया जाए? निश्चित रूप से यह पीढ़ी उपदेश नहीं सुनना चाहती। यह पीढ़ी स्वार्थी भी है और उसके पास समय भी कम है। इसलिए हिंदी साहित्य और संस्कृति का ऐसा रूप आना चाहिए जो इस पीढ़ी की आकांक्षाओं के साथ मैच करता हो।
इसके लिए हिंदी को ज्ञान की भाषा बनाना बहुत आवश्यक है और उसके साथ-साथ भाषा के स्वरूप को विस्तार देना भी बहुत जरूरी है। मतलब यह कि नई हिंदी एक अलग तरह की हिंदी होगी, जिसमें दूसरी भाषाओं के अधिक शब्द हो सकते हैं। इससे डरने की आवश्यकता नहीं है। भाषा एक बहता हुआ पानी है जो समय के अनुसार अपना रंग बदलता रहता है। इस बदलाव को कोई रोक नहीं सकता, चाहे जितने प्रयास किए जाएं, भाषा तो सदा बदलती है। ऐसे सांस्कृतिक आंदोलन करने होंगे, जिसमें युवा पीढ़ी भाग ले सके। उत्सवधर्मिता को स्वीकार करना होगा। बंद कमरों से बाहर निकलना पड़ेगा। केवल बौद्धिक और उच्चस्तरीय शोधपरक सोच की सीमा से बाहर निकलना होगा। साहित्य के साथ संस्कृति के आधुनिक माध्यमों को जोड़ने की आवश्यकता पड़ेगी। उदाहरण के लिए फिल्म, टेलीविजन और रंगकर्म को सांस्कृतिक आंदोलनों का एक आवश्यक अंग बनाना पड़ेगा। लोकप्रिय साहित्य को मान्यता देनी होगी। यह समझना होगा की लोकप्रिय साहित्य गंभीर साहित्य के लिए एक सीढ़ी का काम करता है। इस प्रकार के कुछ आयोजन हो रहे हैं लेकिन उन्हें और व्यापक स्तर पर करने की आवश्यकता है। विशेष रूप से युवा पीढ़ी को ध्यान में रखकर उनके स्वरूप को तय करना बहुत आवश्यक है।
हिंदी प्रदेशों में पिछले 10- 12 साल से साहित्य और संस्कृति के आयोजनों की संख्या बहुत बढ़ गई है। इन आयोजनों को मोटे तौर पर चार रूपों में बांटा जा सकता है। पहले वे आयोजन हैं जिनको सरकारें करती हैं। यह इतने नीरस, निरर्थक और पार्टी की राजनीति से प्रेरित होते हैं कि उनकी चर्चा ही करना बेकार है। कभी-कभी सरकारें अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए इन आयोजनों का प्रयोग करती हैं। दूसरी तरह के आयोजन व्यावसायिक घरानों के माध्यम से किए जाने वाले बहुत हाइप्रोफाइल और अंग्रेजीपरस्त तथा फिल्मी दुनिया के ग्लैमर से ओतप्रोत होते हैं जिनमें साहित्य कम और मीडिया की भागीदारी अधिक होती है। अंग्रेजी भाषा को सिर पर चढ़ा कर यह सिद्ध किया जाता है कि यदि साहित्य है तो केवल अंग्रेजी में है। तीसरे प्रकार के आयोजन लेखक संगठन करते हैं। इन आयोजनों की एक सीमा यह होती है कि उनमें केवल उनकी विचारधारा को मानने वाले लोग ही शरीक होते हैं और इन आयोजनों में बौद्धिकता और वैचारिक प्रतिबद्धता का इतना अधिक दबाव होता है कि साधारण आदमी न तो वहां पहुंच पाता है और न उसे बुलाया जाता है। चौथे प्रकार के आयोजन स्थानीय लेखकों के समूह करते हैं। अपने संसाधनों से वे कभी-कभी बहुत अच्छे और सार्थक आयोजन करते हैं जिसमें साहित्य और संस्कृति का मेलजोल होता है। मतलब यह कि साहित्य के साथ-साथ रंगमंच, फिल्म और दूसरी कलाओं को भी सामने रखा जाता है। इस प्रकार के आयोजन महत्वपूर्ण हैं और बड़े स्तर पर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
बताया जाता है कि सोवियत यूनियन के जमाने में साहित्य की पुस्तकें राशन की दुकानों पर भी मिला करती थीं। लोग राशन खरीदने के साथ-साथ पुस्तकों को भी खरीदते थे। राशन की दुकानों पर किताबें बेचने के पीछे समझ यह थी कि जिस प्रकार जीवन को चलाने के लिए राशन आवश्यक है, उसी तरह साहित्य भी है। कुछ दूसरे समाजवादी देशों ने भी साहित्य और संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाने के लिए बहुत रोचक योजनाएं बनाई थीं। उदाहरण के लिए, हंगरी में एक ऐसी संस्था बनाई गई थी जो किताबों की बड़ी दुकान के तौर पर हुआ करती थी लेकिन जिसका उद्देश्य केवल किताबें बेचना नहीं होता था, बल्कि यह था कि लोग किताबें पढ़ें। उन दुकानों पर जाकर कोई भी आराम से बैठ कर जितना चाहे पढ़ सकता था। हंगरी में इस संस्था का अध्यक्ष देश का राष्ट्रपति हुआ करता था। इन प्रयासों ने पुस्तक संस्कृति को आगे बढ़ाया था।
आज हमारे देश में कम से कम सरकारी स्तर पर पुस्तक संस्कृति, साहित्य और कलाओं को आगे बढ़ाने के कोई सार्थक प्रयास नहीं किए जा रहे। पारंपरिक ढंग से जो होता आया है, वह अपनी लीक पर ही चलता हुआ दिखाई देता है। इसका कारण भी स्पष्ट है। सत्ता की राजनीति सबसे बड़ा खतरा उन लोगों से महसूस करती है जो सवाल पूछते हैं। साहित्य और संस्कृति न केवल मनुष्य और समाज को उदार बनाती हैं, बल्कि उनके अंदर प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति को बढ़ा देती हैं। सत्ता यह नहीं चाहती कि सवाल पूछे जाएं। लेकिन सवाल पूछना बहुत जरूरी है। जीवित समाजों की एक बड़ी पहचान यह है कि वहां सवाल पूछे जाते हैं। समाज को जीवित समाज बनाए रखने के लिए साहित्य और संस्कृति का योगदान अत्यंत आवश्यक है जिसके बिना किसी तरह की प्रगति संभव नहीं है।
(प्रसिद्घ कथाकार, नाटककार, संस्कृतिकर्मी)
- हिंदी प्रदेशों के सांस्कृतिक गतिरोध ने ही अन्य प्रदेशों में धर्मांधता और जातीयता को बढ़ावा दिया है। इसी से सांप्रदायिकता भी बढ़ी है
- साहित्य और संस्कृति न केवल मनुष्य और समाज को उदार बनाती हैं, बल्कि उनके अंदर प्रश्न पूछने की प्रवृत्ति बढ़ा देती हैं।
सत्ता यही नहीं चाहती कि सवाल पूछे जाएं