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दांत का दतंगड़

वह लेखक हैं नहीं, थे। लिहाजा सुविधा के लिए बहुत सुविधा से भूतपूर्व लेखक कहे जा सकते हैं। आजकल के संक्षिप्तीकरण के युग को देखते हुए भूतपूर्व के ‘भू’ और लेखक के ‘ले’ को मिलाकर हम उन्हें ‘भूले’ नाम से पुकारेंगे। तो भूले जी लेखक थे, उस ‘थे’ को ‘हैं’ में बदलने के लिए वह बेताब रहते हैं।
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यों तो लेखक भी वह जैसे थे, वैसे ही थे, पर दुर्भाग्य से अब वैसे भी नहीं रह गए हैं। अलबत्ता यह दुर्भाग्य उन्हीं का था, पाठक तो इसे अपना उच्च कोटि का सौभाग्य समझते हैं। साहित्य की तो पूछिए मत, वह तो उन्हें इसके लिए अहर्निश आशीषता रहता है। तकनीकी रूप से तो उनके पास उनके लेखक का अब सिर्फ ‘ले’ रह गया है, जो उन्होंने बहुत मुश्किल से बहुतों को बहुत-कुछ ‘दे’ कर हासिल किया था। हालांकि इस ले-दे के कारण ही ‘ले’ से जुड़े ‘ख’ और ‘क’ उन्हें छोड़कर चले गए। ये ख-क लेखन के क-ख के रूप में जिस गुरु ने उन्हें सिखाए थे, उसे भी गुरु दक्षिणा के रूप में उन्होंने अंगूठा देने के बजाय दिखा दिया था। गुरु ने हालांकि उनका अंगूठा मांगा नहीं था, पर इस आशंका में कि कहीं मांग ही न बैठें, यह जेस्चर भूले ने खुद ही प्रदर्शित कर दिया था। भूले उनके शिष्य बन तो गए थे, पर उसी समय संकल्प कर लिया था कि जल्द से जल्द गुरु बनना है। फिर तो गुरु जी को पता भी नहीं चला कि कब भूले उन्हें अपदस्थ कर स्वयं गुरु बन गए। संभावित चेलों को आकर्षित करने के लिए उन्होंने एक पत्रिका निकाली और उसके जरिए अपनी छपासा यानी छपने की पिपासा शांत करने लगे। स्वभावत: चेले उन्होंने ऐसे ही चुने जो आंख के अंधे पर गांठ के पूरे थे। उन्हें भी किसी कंधे की जरूरत थी, इन्हें भी। दोनों एक-दूसरे को कंधा देते रहे। पत्रिका के जरिए ही वह संस्थाओं में घुस गए और पहले अपने लिए इनाम-इकराम जुगाड़े, फिर मुहावरे वाले अंधे की तरह पुरस्कारों की रेवड़ी अपनों को देने लगे। अभी हाल ही में उनके दांत में दर्द उठा, जिसे उन्होंने पूरी शिद्दत से फेसबुक पर उड़ेल दिया। देखकर सभी चेले अश-अश की तर्ज पर उफ-उफ कर उठे। ‘ओह’, ‘हाय’ का सिलसिला चल निकला। किसी-किसी ने तो ‘वाह’ भी लिख डाला।

कुछ जल्दबाजों ने अंग्रेजी में ‘आरआईपी’ भी लिख दिया। लाइक-कमेंट्स के सैलाब में तैरते-उतराते भूले ने रह-रहकर उठने वाले अपने दांत-दर्द की अपडेट देनी शुरू कर दी, जिससे उनकी टाइमलाइन पर ऐसी चिल्ल-पों मची कि सभी फेसबुक वासी अपनी-अपनी वॉल से झांक-झांककर पूछने लगे, क्या हो गया भाई साहब? फिर यह जानकर राहत की सांस ली कि कुछ नहीं, एक भूतपूर्व लेखक यानी भूले अपने को भूले जाने से बचाने की कोशिश कर रहा है। हफ्ते भर तक बात के बतंगड़ की तर्ज पर भूले ने दांत का यह दतंगड़ बनाया। इस तरह साहित्य में एक क्रांति हो गई, मतलब जो कुछ भी हुआ, उसे भूले और उनके चेलों ने क्रांति का नाम दे दिया।

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