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गणेश परिक्रमा के बदलते रूप

दीपावली के पावन पर्व की धूमधाम है। अब तो दशहरे से दीवाली के बाद तक पूजा-पाठ, उत्सव चलते हैं। गणेश, लक्ष्मी, विष्णु, सरस्वती, दूर्गा की आराधना के अलग-अलग रंग-रूप विभिन्न क्षेत्रों में दिखते हैं। लेकिन श्रीगणेश की महत्ता सर्वोपरि है।
अमित शाह और राहुल गांधी

विष्णु-लक्ष्मी, शिव-पार्वती, सीताराम, राधाकृष्ण की पूजा से भी पहले गणेश का वंदन जरूर होता है। गणेश सर्वश्रेष्ठ बुद्धिदाता के प्रतीक हैं। उनके ज्ञान और कौशल की एक कहानी गणेश-परिक्रमा से जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि भाई कार्तिकेय और उन्हें तीनों लोकों की यात्रा प्रतियोगिता के रूप में करने की चुनौती मिली। कार्तिकेय गंभीरता के साथ यात्रा पर निकल गए। बुद्धिमान गणेश जी ने माता- पिता पार्वती शंकर के इर्द-गिर्द सादर भाव से तीन परिक्रमा की और विजयी घोषित हो गए। परिणाम इस आधार पर तय हुआ कि माता-पिता के प्रति अगाध प्रेम, श्रद्धा एवं उनकी सेवा तीन लोक की तीर्थयात्रा से भी अधिक सार्थक सफलता है। बहरहाल, इसी ‘गणेश परिक्रमा’ को वर्तमान सामाजिक-राजनीतक परिदृश्य में अलग ढंग से लिया जाता है। राजनीतिक नेतृत्व हो अथवा कॉरपोरेट कंपनी, सरकारी हो अथवा निजी संस्थान- ‘गणेश परिक्रमा’ कहकर लाभ-हानि का खेल चलता रहता है।

राजनीतिक पार्टियों की ही बात पहले देखी जाए। यूं राजनीतिक नेतृत्व को जमीन से जुड़े रहने की आवश्यकता सब मानते हैं। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में क्षेत्रीय-प्रादेशिक नेताओं की निर्भरता राष्ट्रीय नेतृत्व पर बढ़ती गई। इसलिए ‘दिल्ली दरबार’ में जिसका नाम और सिक्का चल गया, वह राष्ट्रीय, प्रादेशिक या जिला स्तर तक अधिक प्रभावशाली माना जाने लगा। राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को भी चुनिंदा कार्यकर्ताओं या यूं कहें कि वैयक्तिक निष्ठा वालों से संपर्क रखना पसंद आने लगा। इसलिए प्रमुख राजनीतिक दलों में विचार, पार्टी सिद्धांत और जमीनी समस्याओं से जुड़े कई निष्ठावान कार्यकर्ताओं को महसूस होने लगा कि ‘दिल्ली दरबार’ की परिक्रमा करने वालों के रुतबे से पार्टी की जमीन ही खिसक रही है। दूसरी तरफ पिछले दो वर्षों के दौरान भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और प्रधानमंत्री ने ‘परिक्रमा’ फार्मूले अपनाने वालों को दूर किया। कांग्रेस की करारी पराजय के बावजूद पार्टी के नये नेतृत्वकर्ता राहुल गांधी ने भी ‘परिक्रमा’ वादियों को फटकने नहीं दिया। लेकिन समस्या यह हुई है कि दोनों ही बड़ी पार्टियों में प्रादेशिक और जिला स्तर के कार्यकर्ता ही नहीं सांसद, विधायक, पार्षद तक दु:खी रहने लगे हैं। उन्हें नेतृत्व को सलाह देने वाली गैर राजनीतिक टीम और ‘कंप्यूटर’ बाबा की कृपा से निकलने वाले निष्कर्षों से नुकसान होने लगा है। शिकायतों का नया सिलसिला शुरू हो गया है। उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा सहित विधान सभाओं के आगामी चुनावों की तैयारियों के लिए हो रही बैठकों में यह आक्रोश दिखाई दे रहा है। मतलब ‘गणेश परिक्रमा’ की नई परिभाषा, नई लक्ष्मण रेखा, पार्टी पालक-चालक और वाहक के बीच संपर्क संवाद के नये रूप तय किए जाने पर जोर दिया जा रहा है।

राजनीतिक दलों के अनुभवी लोग याद करते हैं- जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी के सत्ताकाल में नेतृत्व और कॉडर के बीच सीधा संपर्क, कड़वा सच कहने- सुनने की स्थितियां रहीं। अब पार्टी के सम्मेलनों में भी केवल सफलताओं और थोड़ी बहुत चुनौतियों की बातें अधिक होती हैं। सरकार या संगठन की कमजोरियों और समस्याओं की सार्वजनिक चर्चा अनुशासनहीनता की श्रेणी में आ गई। इसलिए यह समझा जाने लगा कि नेतृत्व और सलाहकार मंडली ही संगठन की दशा-दिशा तय कर सकते हैं। नतीजा यह है कि भारतीय संस्कृति और संविधान से विरासत में मिली लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति कहीं न कहीं गड़बड़ा रही है।

शीर्ष नेतृत्व तो अपने राजनीतिक चातुर्य से आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन प्रशासनिक अथवा निजी संस्थानों के लिए यह प्रवृत्ति अधिक घातक है। सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ संस्थानों में केवल ‘जी हुजूरी’ रहने और असहमतियों-आलोचनाओं पर खुली चर्चा न होने पर योजनाओं-कार्यक्रमों पर अमल नहीं हो पा रहा है। कहीं बजट है, तो किसी गड़बड़ी के आरोप से बचने के चक्कर में अधिकारी धीमी गति से फाइलें घुमा रहे हैं। आर्थिक विकास की गति बढ़ाने के लिए भारत की कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारतीय प्रबंधक भी सत्ता के गलियारों से इसी तरह की बीमारी ग्रहण कर रहे हैं। उनकी लंदन, न्यूयार्क, मास्को या पेरिस शाखाओं की कार्यप्रणाली इस तरह नहीं चल रही है। वहां पेशेवर ढंग से ही काम हो रहा है। भारतीय शाखाओं में आपसी खींचातानी एवं वरिष्ठ प्रबंधकों की मनमानियों से विफलता एवं घाटा होने लगा है। मतलब ‘लक्ष्मी’ भी रुष्ट हो रही हैं। यही नहीं भारत-भूमि की सामाजिक स्थिति और कार्यशैली पर आशंकाएं उठने लगी हैं। विदेशों में भारत पर्वों की धूमधाम में हिस्सा लेने वाले प्रवासी भारतीय भी देश की व्यवस्था देख-समझकर उलझन में पड़ रहे हैं। भारत वापस आकर नया काम-धंधा शुरू करने की बात दूर रही, प्रवासी भारतीयों के रूप में पूंजी निवेश करने से हिचकने लगे हैं। इसलिए दीपावली के पर्व पर आराधना के साथ ध्यान-मनन हो अथवा चुनावी यज्ञ की तैयारियों के लिए नये मंत्रों की तलाश- सत्ता-व्यवस्था की संपूर्ण मानसिकता के आत्ममंथन की जरूरत है। हम तो उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं ही दे सकते हैं।

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