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सियासत की इफ्तार पार्टी

राजनीतिक जोड़-तोड़ की नई कोशिश: नीतीश और लालू के साथ ही सुशील मोदी के मंच पर भी मांझी
पुराने साथीः लालू प्रसाद की इफ्तार पार्टी में नीतीश कुमार और अन्य के साथ जीतन राम मांझी

वैसे इफ्तार के बहाने राजनीति चमकाने और एक खास समुदाय को अपने पाले में करने का खेल नया नहीं है। हमारे देश में यह खेल सदियों से खेला जा रहा है। यह दीगर है कि राजनेता इसे गंगा-जमुनी तहजीब का नाम दे देते हैं। दावते-इफ्तार का चलन राजनीति पर इस कदर हावी हो गया है कि कोई भी पार्टी इससे अछूती नहीं रह गई है। चाहे वह पार्टी किसी भी विचार धारा को मानने वाली क्यों न हो। इसकी बानगी देखने को भी मिली जब राष्ट्रीय स्तर पर हाल में ही एक खास समुदाय के धुर विरोधी कहे जाने वाले आरएसएस ने भी दावते-इफ्तार का आयोजन किया। इफ्तार में बिहार की राजनीति में अलग गरमाहट दिखी।

अचानक पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के बदले सुर से राजनीतिक पंडित भी भौंचक हैं। रालोसपा का अंदरूनी संकट भी तासीर में गरमी पैदा कर रहा है। हालांकि अभी कुछ भी निर्णायक नहीं है। फिर भी विस चुनाव के बाद थोड़ी राजनीतिक उठा-पटक की गुंजाइश तो अवश्य बन रही है। सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की इफ्तार पार्टी में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने अपने पुत्र उपमुख्यमंत्री तेजस्वी के साथ पहुंचकर अपने ही अंदाज में कहा कि ‘मांझी में केंद्रीय मंत्री बनने के सभी गुण मौजूद हैं और रामविलास बूढ़े भी हो गए हैं तो रामविलास को ड्रॉप कर मांझी के टैलेंट का इस्तेमाल केंद्र सरकार को अवश्य करना चाहिए।’ लालू का यह बयान एनडीए में हिलोरे मारने के लिए काफी था। वैसे लालू का मांझी प्रेम कोई नया नहीं है। जब पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी लालू प्रसाद की दावते-इफ्तार में शामिल हुए तो यहां बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश भी मौजूद थे। लालू प्रसाद ने मांझी का हाथ पकड़ कर नीतीश के पास बैठाया। यह पहला मौका था जब अलग होने के बाद नीतीश और मांझी एक साथ बैठे और इस अंदाज में दोनों ने बातें कीं कि जैसे कभी कोई गिला-शिकवा ही न रहा हो।

यहीं से बिहार की राजनीति में एक नए समीकरण की सुगबुगाहट दिखने लगी। इस बावत पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जीतन राम मांझी ने कहा, ‘नीतीश कुमार राजनीति में मेरे जन्मदाता हैं, आज भी मैं सपरिवार उनको भगवान मानता हूं, चूंकि राजनीति संभावनाओं का खेल है और मुख्यमंत्री नीतीश से उनका वैसा कोई विरोध भी नहीं रहा जैसा कि लालू प्रसाद का नीतीश से था, जब दोनों विरोधी एक हो सकते हैं, तो संभावना है ही।’ जाहिर है कि नीतीश के लिए मांझी के सुर बदले दिखे। मांझी से यह पूछने पर कि क्या वह अब भी नीतीश से नाराज हैं मांझी ने कहा, ‘मैं आज भी नीतीश के उस बयान से आहत हूं जिसमें उन्होंने कहा था कि मैंने मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर भूल कर दी, अगर मुझसे मुख्यमंत्री रहते कोई गलती हुई थी तो मुझसे कहते, मैं इस्तीफा दे देता जैसा कि मैंने 2005 में मंत्री पद से उनके कहने पर इस्तीफा दे दिया था। जब डिग्री घोटाले में मेरा नाम उछाला जा रहा था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।’ यह पूछने पर कि क्या यह भाजपा पर दबाव बनाने की राणनीति है? चूंकि यूपी में अभी विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और भाजपा किसी भी कीमत पर दलित वोट अपने पक्ष में करना चाहती है। इसकी बानगी वर्तमान में केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में देखने को भी मिली। लालू यादव ने आपको रामविलास की जगह मंत्रिमंडल में शामिल करने की सलाह भी दी है लेकिन आपको न तो राज्यसभा में भेजा गया, न ही मंत्रिमंडल में शामिल किया गया? इस पर मांझी ने जवाब दिया, ‘यह लालू यादव की अपनी सोच है। वह भी उसी तबके के नेता हैं, जहां से मैं आता हूं, दलितों और पिछड़ों का।’

इस बदलते समीकरण की बाबत बिहार सरकार के बीस सूत्री कार्यक्रम के उपाध्यक्ष और जदयू के वरिष्ठ नेता गुलाम गौस ने कहा, ‘मांझी प्रकरण को देखने का सबका अपना-अपना नजरिया है। पर्व-त्यौहार में सब एक-दूसरे के घर आते-जाते ही रहते हैं। वैसे राजनीति में सब चलता रहता है। लोहिया ने कहा भी था कि ‘राजनीति में मतभेद हो सकता है, मनभेद नहीं।’

बहरहाल, दावते-इफ्तार ने बिहार में एक राजनीतिक विमर्श को अवश्य जन्म दे दिया है। इसके दूरगामी परिणाम भी होंगे, क्योंकि मांझी ने यह कहकर अपना रास्ता खुला रखा है कि ‘राजनीति संभावनाओं का खेल है। राजनीति में कोई भी स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। हो सकता है, कल को नीतीश फिर से भाजपा का हाथ थाम लें।’ इधर भाजपा ने अपना घर बचाने के लिए कहा कि ‘मांझी एक गंभीर और मजबूत आदमी हैं वह यू टर्न नहीं ले सकते हैं। लालू प्रसाद एनडीए में फूट डालने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें वह कभी कामयाब नहीं होंगे।’

एनडीए में दरार के आसार रालोसपा की टूट से भी दिख रहे हैं, जिस तरह रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र सिंह कुशवाहा ने पार्टी की प्रदेश इकाई भंग कर सांसद अरुण कुमार को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया और अरुण कुमार कार्यकर्त्ताओं को लेकर जिस तरह शक्ति प्रर्दशन में लगे हैं और राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है यह जरूर रालोसपा में नए राजनीतिक संकट के संकेत हैं। साथ ही लालू प्रसाद और मांझी दलितों और पिछड़ों के नेता हैं और लालू हमेशा से ही मांझी के हिमायती रहे हैं। चुनाव के मद्देनजर महागठबंधन यूपी में भी सक्रियता दिखाने को जिस तरह बेताब है ऐसे में मांझी को अपने पाले में करने को महागठबंधन कुछ भी पैंतरा अपनाने से गुरेज नहीं करेगा और मांझी उनके पाले में जाकर दलित वोट में सेंध लगा ही सकते हैं और मांझी के राजद में आने से लालू का जनाधार तो अवश्य बढ़ेगा।

 भाजपा नेता सुशील मोदी और अन्य सहयोगियों के साथ जीतन राम मांझी

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बदलते समीकरण में जाति पर भी दांव

बिहार की राजनीति पर जाति हमेशा से हावी रही है। रालोसपा की फूट भी जाति के दो धड़ों में है, एक तरफ पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र सिंह कुशवाहा और उनके गुट के सभी विधायक और सांसद कोयरी समाज से हैं, वहीं दूसरी ओर सांसद डॉ. अरुण कुमार की जमीनी पकड़ भी कुशवाहा से कम नहीं है। इन दोनों का विवाद अब सड़क पर आ गया है, जिस तरह सांसद अरुण कुमार की तस्वीर पार्टी कार्यालय से बाहर फेंक दी गई, उसकी प्रतिक्रिया राजनीतिक पटल पर विस्फोटक ही होगी क्योंकि अरुण कुमार अगड़े के प्रतिनिधि हैं, इन दोनों का विवाद एनडीए में दरक लाने के लिए काफी है। दोनों नेता एक-दूसरे के विरोध में मनमुताबिक अपनी-अपनी जमीन तलाशने में लगे हैं। पिछले कुछ दिनों से भाजपा में भी सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है, हालांकि पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी का कद छोटा करने की कवायद भाजपा के एक धड़े द्वारा चुनाव परिणाम के बाद से ही शुरू हो गई थी। यह देखने को भी मिल रही है, क्योंकि न तो उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल किया गया और न ही राज्यसभा भेजा गया। भाजपा के दो धड़ों सुशील मोदी और अश्विनी चौबे के बीच रस्साकशी का माहौल जरूर देखने को मिल रहा है। साथ ही, भाजपा और एनडीए के नए चेहरे, जो विस चुनाव में पहली बार जीत कर आए हैं, उनको भी जीत का स्वाद अब बेस्वाद लगने लगा है। जैसा कि राजनीतिक गलियारे में चर्चा है कि वे अपनी स्थायी पहचान बनाने के लिए बेचैन हैं। अगर उन्हें कोई सटीक मौका मिलता है तो वे जरूर सोचेंगे। बहरहाल, राजद खेमे में भी कद्दावर नेताओं की नाराजगी अब खुलकर सामने आने लगी है, जैसा कि पार्टी स्थापना दिवस कार्यक्रम में सांसद प्रभुनाथ सिंह ने नीतीश सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि कार्यकर्ताओं और जनप्रतिनिधियों की अनदेखी की जा रही है। समाज बांटने वालों से लड़ने के लिए हम एक साथ आए और सरकार बनाई पर हम इससे संतुष्ट नहीं हैं, बड़ा दल होकर भी हम सहयोगी ही हैं। विधायक ही निरीह हो गए हैं तो कार्यकर्ताओं की कौन कहे जनप्रतिनिधियों के सम्मान से लेकर सत्ता में भागीदारी तक के लिए सवाल खड़े हुए हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री तस्लीमुद्दीन ने यह कह कर महागठबंधन की पेशानी पर लकीर अवश्य खींच दी कि नीतीश सरकार सीमांचल का विकास चाहती ही नहीं है। सूत्रों की मानें तो राजद खेमे के कई नेता और विधायक जदयू के क्रियाकलापों से विक्षुब्ध हैं और राजद के कुछ विधायकों की कारगुजारी के चलते जदयू में भी असंतोष उभर रहा है। जिस तरह राजद विधायक दिलीप मंडल सार्वजनिक मंच से प्रशासन के खिलाफ तमंचा लहराते दिखे, वहीं विधायक राजवल्लभ यादव पर लगे आरोपों से भी जदयू की छवि पर आंच आई है।

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