तापमान का उतार-चढ़ाव लोगों के जीवन पर भारी पडऩे लगा है। इस साल 13 मार्च को जब दिल्ली में होली मनाई जा रही थी तो न्यूनतम तापमान नौ डिग्री सेल्सियस था जो सामान्य से छह डिग्री कम था। यही नहीं होली के दौरान शिमला और मनाली के साथ मसूरी में बर्फ पड़ रही थी जो उस समय 1988 के बाद पहली बार हुई बर्फबारी थी। दूसरी ओर मार्च के अंत में तापमान तेजी से बढ़ा और दिल्ली में अधिकतम तापमान 40 डिग्री पर पहुंच गया। मार्च के अंत में इस स्तर पर तापमान 1945 के बाद पहली बार पहुंचा। एक ही पखवाड़े में तापमान का यह बदलाव सामान्य नहीं है। भले ही इसे हम जलवायु परिवर्तन की आहट न मानें लेकिन यह एक खतरे की दस्तक जरूर है जो लोगों के स्वास्थ्य से लेकर देश की इकोनॉमी के लिए चिंता का सबब बनने वाला है। तापमान में आ रहे इन भारी बदलावों से लोगों का जीवन भी गया है और फसलों के उत्पादन पर प्रतिकूल असर पडऩे से महंगाई भी बढ़ी है, लेकिन सरकार दरवाजे पर दस्तक दे रहे इस खतरे से अनजान बनने की कोशिश कर रही है जिसका खामियाजा आम आदमी को भुगतना पड़ रहा है।
अचानक तपती धरती और गर्म हवाओं के थपेड़ों ने ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत में ही कहर बरपाना शुरू कर दिया। उत्तर, मध्य और पश्चिमी भारत के राज्यों में चिलचिलाती गर्मी की वजह से लोगों का घरों से निकलना मुश्किल हो गया। लू और गर्मी से मौतों की जो खबरें मई-जून में आती थीं, इस बार मार्च में ही आनी शुरू हो गईं। महाराष्ट्र में हीट स्ट्रोक से कम से कम चार लोगों के मरने की खबर है। देश के पहाड़ी राज्यों में मार्च के आखिर का तापमान दो से तीन डिग्री अधिक दर्ज किया गया है। हालांकि, अप्रैल के पहले हफ्ते में हुई बूंदा-बांदी ने उत्तर भारत में लोगों को गर्मी से कुछ राहत दी है, लेकिन गर्मी का भीषण दौर अभी बाकी है।
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के जो खतरे पिछले दो दशक से चर्चाओं में रहे हैं, अब साफ दिखाई पडऩे लगे हैं। इस साल मार्च से मई के दौरान मौसम का पूर्वानुमान जारी करते हुए भारत के मौसम विज्ञान विभाग ने बताया कि साल 2016 पिछले 116 वर्षों में सर्वाधिक गर्म साल था। साल 2017 में भी गर्मियों का तापमान सामान्य से एक डिग्री या इससे भी अधिक रहने का अनुमान है।
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग में उप महानिदेशक डॉ. आनंद शर्मा बताते हैं कि मार्च, अप्रैल और मई में गर्मी पड़ना मानसून के लिए जरूरी है, लेकिन मार्च के आखिरी हफ्ते में जिस तरह देश के कई इलाके हीट वेव यानी लू की चपेट में आए वह थोड़ा आश्चर्यजनक जरूर है। लेकिन यह कितना असामान्य है, इसका पता आंकड़ों के विस्तृत आकलन से ही चलेगा। डॉ. शर्मा का कहना है कि लोगों के स्वास्थ्य, जनजीवन और अर्थव्यवस्था पर लू के प्रभाव को गहराई से समझने की जरूरत है।
मौसम पूर्वानुमान के विशेषज्ञ और भारतीय मौसम विज्ञान विभाग से जुड़े एक वरिष्ठ वैज्ञानिक बताते हैं कि पिछले 12-15 वर्षों में उन्होंने मार्च में हीट वेव की इतनी अधिक घटनाएं होती नहीं देखी हैं। इस साल अप्रैल से जून के दौरान भी उत्तर-पश्चिमी भारत में औसत अधिकतम तापमान सामान्य से एक डिग्री या इससे भी अधिक रहने का अनुमान है।
गरीबी, लाचारी पर लू की मार
लू से होने वाली मौतों पर गौर करें तो पता चलता है कि इसकी सबसे ज्यादा मार गरीब, बीमार और बुजर्गों पर पड़ती है। आपदा प्रबंधन और स्वास्थ्य महकमा भीषण गर्मी से बचने के लिए अक्सर घर से न निकलने, छाछ और नींबू पानी पीने, सूती कपड़े पहनने जैसे सुझाव देता है। तपती सडक़ों पर रिक्शा खींचते, कंस्ट्रक्शन साइट पर मजदूरी करते और फैक्ट्रियों की भट्टियों में तपते लोगों को लू से बचने के ये सुझाव सुनकर कैसा लगता होगा? ऐसे देश में जहां 93 फीसद कामगार असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, वहां घर से निकले बगैर कितने लोगों का गुजारा चल सकता है?
आपदा का दर्जा नहीं
भारत में भीषण गर्मी और लू से लोगों का दम तोडऩा नई बात नहीं है। इसके बावजूद आपदा प्रबंधन से जुड़े नियम-कायदों की नजर में भीषण गर्मी या लू कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। ताज्जुब की बात है कि शीतलहर को प्राकृतिक आपदाओं की सूची में शामिल किया गया है, लेकिन लू इस सूची में नहीं है। जबकि खुद सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में लू से मरने वाले लोगों की तादाद पिछले दो दशकों में तेजी से बढ़ी है। साल 2015 में देश में करीब ढाई हजार लोग हीट स्ट्रोक का शिकार हुए थे। जानलेवा गर्मी और भीषण गर्म हवाओं को लेकर सरकारी लापरवाही की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि साल 2013 में इस मुद्दे पर शरद पवार की अध्यक्षता में गठित मंत्रियों का समूह भी कोई निर्णय नहीं ले पाया।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के पूर्व उपाध्यक्ष एम. शशिधर रेड्डी बताते हैं कि लू को प्राकृतिक आपदाओं की सूची में शामिल कराने के लिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखा था। रेड्डी के मुताबिक, लू को प्राकृतिक आपदा का दर्जा इसलिए नहीं मिल पाया क्योंकि गृह मंत्रालय के अधिकारियों को लगता था कि गर्मी से होने वाली मौतों का पता लगाना आसान नहीं है।
उल्लेखनीय है कि प्राकृतिक आपदाओं की आधिकारिक सूची में शामिल होने के बाद भीषण गर्मी और लू से पीड़ित लोगों को सरकार की ओर से मिलने वाली डेढ़ लाख रुपये की अनुग्रह राशि और राहत पाना आसान हो जाएगा। लू से होने वाली मौतों को दर्ज करने और ऐसी स्थिति से निपटने के सरकारी उपायों में भी सुधार आ सकता है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि पिछले चार साल से लू को प्राकृतिक आपदाओं की सूची में शामिल करने का मामला अटका हुआ है। शायद देश के नीति-निर्माताओं को लू से और अधिक मौतों का इंतजार है।
अहमदाबाद की सेप्ट यूनिवर्सिटी में एनवायरनमेंटल प्लानिंग के प्रोफेसर शाश्वत बंदोपाध्याय का मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग से प्रभावित होने के बावजूद भीषण गर्मी और लू को देश में आपदा प्रबंधन के नजरिये से नहीं देखा जा रहा है। आपदा प्रबंधन से जुड़ी संस्थाओं को इस रवैये को बदलना चाहिए। बंदोपाध्याय बढ़ती गर्मी को इमारतों में इस्तेमाल होने वाली कांच और स्टील, एयर कंडीशनरों के बढ़ते इस्तेमाल और इनकी वजह से शहरों के ऊपर गर्म हवाओं के टापुओं यानी अरबन हीट आइलैंड से भी जोडक़र देखते हैं।
लू से मौतों में लगातार बढ़ोतरी
लू से होने वाली मौतों का आंकड़ा साल दर साल बढ़ता जा रहा है। यह बात राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से भी साबित होती है। देश में प्राकृतिक कारणों से होने वाली दुर्घटनाओं में मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण ऊष्माघात यानी हीट स्ट्रोक है। साल 2015 में हीट स्ट्रोक की वजह से 1908 लोगों की मौत हुई (हालांकि एनडीएमए 2015 में लू से मरने वाले लोगों की संख्या 2422 मानता है)। इसी साल ठंड से 1149 लोगों की जान गई। साल 2005 से 2015 के बीच एक दशक के दौरान हीट स्ट्रोक से मरने वालों की तादाद 78 फीसद बढ़ी है। ये आंकड़े अपने आप में चौंकाने वाले हैं, जबकि न जाने कितने मामले सरकारी आंकड़ों में दर्ज होने से रह गए होंगे।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ ने कई अन्य संस्थानों के साथ मिलकर साल 2010 में अहमदाबाद में एक अध्ययन किया था। यह अध्ययन बताता है कि ऊष्माघात से होने वाली मौतों में से बहुत थोड़े मामले दर्ज हो पाते हैं। इस अध्ययन के अनुसार, मई 2010 में जब अहमदाबाद भयंकर लू की चपेट में था, तब शहर में कुल मौतों की संख्या वर्ष 2009 और 2011 की समान अवधि के मुकाबले 43 फीसद बढ़ गई थी। इन शोधकर्ताओं ने अत्यधिक गर्म दिनों में अधिक मौतों के बीच संबंध को भी दर्शाया है। इस अध्ययन से स्पष्ट होता है कि प्रत्यक्ष रूप से होने वाली मौतों के अलावा लू लोगों के स्वास्थ्य को परोक्ष रूप से प्रभावित कर जनलेवा साबित हो सकती है।
मानकों में गुम खतरा
प्राकृतिक आपदा के तौर पर लू की अनदेखी के साथ-साथ इसकी परिभाषा की वजह से ही यह खतरा नजरअंदाज हो रहा है। मौसम विज्ञान विभाग लू या हीट वेव की घोषणा तभी करता है जब मैदानी इलाकों में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक और 30 साल के सामान्य तापमान से 4.5 डिग्री अधिक हो। तापमान 45 डिग्री से अधिक होने पर सामान्य तापमान का रिकॉर्ड देखे बगैर लू की घोषणा कर दी जाती है। अहमदाबाद में हुए शोध के अनुसार, मौसम विभाग की यह परिभाषा अत्यधिक गर्मी के स्वास्थ्य पर पडऩे वाले कुप्रभावों का पता लगाने के मामले में कारगर नहीं है।
तपती लहरों की आंधी
मौसम की चरम घटनाओं के 100 वर्षों के इतिहास पर गौर करें तो लू का प्रकोप उत्तर से दक्षिण भारत की ओर बढ़ता प्रतीत होता है। वर्ष 1978 से 1999 के दौरान देश में लू से सबसे ज्यादा मौतें राजस्थान में हुई थीं। इसके बाद बिहार, उत्तर प्रदेश और ओडिशा का स्थान आता है। लेकिन हाल के वर्षों में तेलंगाना, महाराष्ट्र और तमिलनाडु लू के कहर को लेकर सुर्खियों में रहे हैं। शायद लू के कहर का भूगोल तेजी से बदल रहा है। नब्बे के दशक में जब अल-नीनो प्रभाव और जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंताएं जोर पकड़ रही थीं, तभी 1998 की भीषण लू ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा। देश में लू की वजह से करीब 3000 लोगों की जान गई, जिनमें से 200 मौतें अकेले ओडिशा में हुईं। उस साल भारत ही नहीं दुनिया के कई हिस्सों में लू का कहर बरपा। इसके बाद गर्म हवाओं के बढ़ते प्रभाव और प्रवृत्ति को लेकर कई शोध हुए जो साल 1991 से 2000 के बीच लू की घटनाओं, इनके कहर और दायरे में बढ़ोतरी की पुष्टि करते हैं। उल्लेखनीय है कि यह दशक पिछले 140 वर्षों का सबसे गर्म दशक रहा था। बाद के वर्षों ने तो गर्मी के ये पुराने रिकॉर्ड भी तोड़ दिए। पिछले 100 वर्षों में कई साल बेहद गर्म रहे हैं। इसकी वजह जलवायु परिवर्तन है या फिर स्थानीय कारक, इसे लेकर मौसम वैज्ञानिकों में मतभेद हैं। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि सन 1911-67 के मुकाबले 1978-99 के बाद लू की घटनाओं में काफी बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इसलिए इस बात तो खारिज करने का कोई कारण नहीं है कि आने वाले समय में तपती लहरों का कहर बढ़ेगा।
झुलसता भविष्य
मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार, सन 1978 से 1999 के बीच 21 वर्षों में लू की वजह से कुल 5300 लोगों की जानें गई थीं, जबकि 2012 से 2015 के बीच चार वर्षों में 5619 लोग लू का शिकार हो चुके हैं। भविष्य और भी भयावह हो सकता है। मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के साल 2015 में हुए एक शोध में सामने आया है कि भविष्य में लू और अधिक घातक होगी। शोध के अनुसार, वर्ष 2070 से 2099 के बीच लू के कारण होने वाली मौतों में दिल्ली सबसे आगे होगा। महाराष्ट्र में लू से होने वाली मौतों की संख्या 1970 से 1999 के मुकाबले दोगुनी अधिक हो सकती है। दक्षिण भारत के पूर्व और पश्चिमी तटों का बड़ा हिस्सा जो फिलहाल लू से बचा हुआ है, वह भी इसकी चपेट में आ सकता है।
वर्ष 2013 से अहमदाबाद नगर निगम ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ और अमेरिका के जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के सहयोग से भीषण गर्म हवाओं से निपटने के लिए एक योजना तैयार की थी। इसमें गर्म हवाओं के बारे में एक चेतावनी प्रणाली विकसित करने, स्वास्थ्यकर्मियों के प्रशिक्षण और अत्यधिक गर्म तापमान के हिसाब से शहर के बुनियादी ढांचे को विकसित करना शामिल है।
देर आए दुरुस्त आए
साल 2015 की लू से सबक लेते हुए इस साल मौसम विभाग और एनडीएमए समय रहते सतर्क हो गए हैं। अहमदाबाद के हीट एक्शन प्लान से सबक लेते हुए देश के 11 राज्यों में लू से निपटने की तैयारी की जा रही है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर भीषण गर्मी से निपटने का कोई एक्शन प्लान नहीं है। भारतीय मौसम विभाग के महानिदेशक के.जे. रमेश ने बताया है कि लू से होने वाली मौतों को रोकने के लिए मौसम विज्ञान विभाग और एनडीएमए ने मिलकर काम करना शुरू कर दिया है। अप्रैल, मई और जून महीने के हर गुरुवार को मौसम विज्ञान विभाग गर्मी को लेकर विशेष तौर पर अनुमान जारी करेगा। राज्यों के साथ लू से निपटने की तैयारियों पर जोर दिया जा रहा है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की मदद से विभाग देश में क्षेत्रवार लू के खतरों को लेकर अलर्ट जारी करेगा। देश के 50 जिलों को गर्मी और लू के लिहाज से संवेदनशील मानते हुए राज्य सरकारों को सतर्क कर दिया गया है। इस अभियान में रेड क्रास सोसायटी और मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को भी साथ जोड़ा जा रहा है।