आम तौर से यह माना जाता है कि 1857 का विद्रोह उन्नीसवीं सदी में भारत में औपनिवेशिक राज के खिलाफ हुआ सबसे हिंसक व व्यापक संघर्ष था, जो करीब दो साल तक चला और जिसकी जद में उत्तरी, मध्य व पूर्वी भारत के बड़े हिस्सों समेत पंजाब और उत्तर-पूर्वी भारत (मानक पाठ्यक्रम की किताबों से उलट) भी शामिल था। इस बगावत के दौरान और इसके दमन के तुरंत बाद की परिस्थिति में सैकड़ों हजारों भारतीय मारे गए, जिनमें बड़ा हिस्सा साधारण निहत्थे लोगों का था।
बगावत की तारीख थी इतवार के दिन 10 मई, 1857 और जगह थी मेरठ, जब शहर में तैनात भारतीय सिपाहियों (जिन्हें अंग्रेज 'सेपॉय’ कहते थे) ने विद्रोह कर दिया। इसके बाद ये सिपाही एक साथ मार्च करते हुए अगली सुबह दिल्ली पहुंचे। दिल्ली में उन्होंने कंपनी राज का खात्मा कर के शाहजहानाबाद और उससे लगे बाहरी इलाकों को अपने कद्ब्रजे में ले लिया। उन्होंने मुगल सम्राट बहादुर शाह द्वितीय (1837 से 1857 तक सम्राट) का आशीर्वाद प्राप्त किया, जो प्रतीकात्मक रूप से सम्राट की सियासी अहमियत को दर्शाता था क्योंकि खुद कंपनी ने भी हिचकते हुए ही सही मुगलों की विधिक सत्ता को मान्यता प्रदान कर दी थी। शहर को मुक्त कराने के बाद सिपाहियों के ऊपर राज्य के अंगों को पुनर्गठित करने का जिम्मा आ पड़ा। यहां सावधानीपूर्वक ऐसे लोगों को तैनात किया जाना था जो बागियों के प्रति द्वेष भाव न रखते हों। इस काम में शाही महल यानी लाल किले ने अहम भूमिका अदा की क्योंकि ब्रिटिश राज की अवधि में शहर के दैनिक कामकाज में उसकी करीबी संलग्नता रही थी। यह बात ध्यान रखी जानी होगी कि यह शहर और उसके आसपास के इलाके 1803 में ही कंपनी राज के नियंत्रण में आ चुके थे। नए निजाम की कामकाजी मशीनरी महल में पहले से मौजूद और पुराने पड़ चुके प्रशासनिक ढांचे के इर्द-गिर्द ही संगठित की गई। लाल किले के अफसरों को स्थानीय हालात का करीबी ज्ञान था। उनके निजी संपर्क काफी वृहद् थे। सिपाहियों ने इन्हीं अफसरों के एक तबके की सक्रिय सहभागिता से अपने शासन को स्थिरता प्रदान की। तमाम ऐसे अफसर भी थे जिन्होंने तटस्थ भूमिका अपनाए रखी जबकि शहर के अभिजात्यों का एक प्रभुत्वशाली तबका खुलकर नए निजाम के विरोध में आ चुका था और मौका पड़ने पर वह हमेशा अंग्रेजों के साथ मिल जाता था।
तात्कालिक जरूरत सैन्य संगठन की थी। दिल्ली को बचाया जाना जरूरी था। दूसरी छावनियों में भी सिपाहियों से संपर्क साधे जाने थे। अंग्रेज-समर्थक तत्वों पर भी निगरानी रखी जानी थी। 1857 के जून के अंत तक सैन्य प्रयासों को समन्वित करने और शहर की रक्षा करने का काम आधिकारिक रूप से मिर्जा मुगल ने किया, जो बहादुर शाह जफर के जीवित बेटों में सबसे बड़े थे। उन्हें सिपाही नेतृत्व ने इस काम में मदद की, जो कंपनी की सेना के भारतीय सैन्य अफसर थे। कई निर्णायक मौकों पर खुद सम्राट ने दखल दिया। सिपाही राज के कायम रहने के दौरान बहादुर शाह मूकदर्शक नहीं बने रहे। जफर के कथित 'मुकदमे’ में दिए उनके इस बयान को बहुत सतही तरीके से नहीं पढ़ा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने खुद को महज सिपाहियों के एक कैदी के रूप में सामने रखा था। मसलन, सिपाहियों के दिल्ली पर कब्जे और भारी उथल-पुथल के ठीक अगले दिन बहादुर शाह खुद बाहर निकल कर शहर में जनता के बीच गए और लोगों को भरोसा दिलाया।
बगावत के शुरुआती कुछ हफ्तों के दौरान दिल्ली के निजाम का खात्मा कंपनी की प्राथमिकताओं में सर्वोच्च था। इस काम के लिए पंजाब के कमिश्नर जॉन लॉरेंस ने दिल्ली फील्ड फोर्स नाम की एक इकाई का गठन किया जिसमें उन सैन्य टुकड़ियों को साथ लाया गया था जो क्षेत्र में कंपनी की वफादार थीं, साथ ही इसमें पंजाब की रियासतों से दी गई टुकड़ियों भी शामिल थीं। यह फील्ड फोर्स मई के अंत में दिल्ली की उत्तरी सीमा पर पहुंची थी। अंग्रेजों और सिपाहियों के बीच आठ जून, 1857 को दिल्ली-करनाल रोड स्थित अलीपुर गांव के समीप बादली की सराय में निर्णायक भिड़ंत हुई जिसमें सिपाहियों की फौज को शिकस्त का सामना करना पड़ा। उसी दिन अंग्रेज टुकड़ियों ने उत्तरी रिज पर कब्जा कर लिया (यह दिल्ली विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर के ठीक सामने वाला क्षेत्र है)। अगले दिन सिपाहियों ने रिज पर एक नाकाम हमला छेड़ दिया। इस क्रम में उनका ध्यान यमुना और रिज के बीच की पट्टी से हट गया। इसके चलते अंग्रेजी फौज ने 12 तारीख को थॉमस मेटकाफ के परित्यक्त मकान पर कब्जा कर लिया जिससे उन्हें रिज और नदी के बीच की पट्टी में तैनात अपनी बाईं कतारों को मजबूत करने में सुविधा हो गई। इसके बाद 15 जून को एक बार फिर अंग्रेजी मोर्चे पर हमले की एक नाकाम कोशिश हुई। कुछ अंग्रेजी अफसरों की राय थी कि शहर पर कब्जा करने के लिए खुल कर हमला कर दिया जाए। कुछ और अफसर इसके पक्ष में नहीं थे और वे दूसरी टुकड़ियों की तैनाती के इंतजार के हामी थे। सबके बीच हालांकि एक बात पर सहमति कायम थी कि नाकाम हमला नुकसानदायक साबित हो सकता है। इसीलिए 16 जून को काउंसिल ऑफ वार का आयोजन किया गया जहां यह संकल्प लिया गया कि अपने मौजूदा मोर्चों पर अतिरिक्त सैन्य बल के आने तक इंतजार किया जाए। जुलाई के पहले सप्ताह में सैन्य संघर्ष अपनी निर्णायक स्थिति में पहुंच गया जब बख्त खान ने सिपाहियों की कमान संभाल ली। बंगाल आर्मी की आर्टिलरी में सूबेदार रहा बख्त खान बरेली से एक बड़ा सैन्य दल लेकर जुलाई के आरंभ में दिल्ली पहुंचा था। उसे बागियों के प्रशासन और सैन्य संगठन का नेतृत्व करना था।
सिपाही के शासन का मुख्य अंग 'कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन’ था। उर्दू/हिंदुस्तानी में लिखे इसके मूल संविधान (तारीख का पता नहीं) में अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल अंगों के नामकरण के लिए किया गया था। छह पन्ने का यह अद्भुत दस्तावेज भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार में 'म्यूटिनी पेपर्स’ का हिस्सा है जिसको सुरेंद्र नाथ सेन ने एटीन फिफ्टी सेवन (1857) में पुनर्प्रकाशित किया है। कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के पास ही सारे न्यायिक, कार्यकारी, सैन्य व राजस्वसंबंधी अधिकार थे। इसे अनिवार्यत: लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर गढ़ा गया था हालांकि शासक तो औपचारिक रूप से बहादुर शाह ही थे। इस कोर्ट में दस सदस्य हुआ करते थे-छह सदस्य फौज के तीन अंगों (इनफैंट्री, कैवेलरी, आर्टिलरी) के नुमाइंदे और चार नागरिक सदस्य। इन चार नागरिक सदस्यों को उन लोगों के बीच से बहुमत के आधार पर चुना जाता था जो 'मेधावी, ज्ञानवान और समर्थ’ हों। ये सदस्य अपने बीच से एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष को चुनते थे। अध्यक्ष के पास दो वोट होते थे। इस कोर्ट की रोजाना बैठक होती थी। बहादुर शाह के पास सभी सत्रों में उपस्थित होने का अधिकार था लेकिन वास्तविक निर्णय लेने का काम कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन को ही करना होता था। इसके बाद सम्राट की मंजूरी ली जाती थी और निर्णयों से संबंधित दस्तावेजों पर सम्राट की मुहर लगती थी। कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के संविधान में हमें एक नए राज्य की परिकल्पना भ्रूण रूप में दिखती है। यह अंदाजा लगाना हालांकि इतना आसान नहीं है कि यदि सिपाही विद्रोह कामयाब हो गया होता तो नए राज्य की शक्ल कैसी होती। एक बात हालांकि तय है कि दिल्ली में सिपाही सरकार के विकास क्रम में आधुनिक लोकतंत्र के बीज बेशक मौजूद थे। कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन की जड़ें दरअसल कंपनी सेना की इकाइयों के भीतर मौजूद उस अनौपचारिक सिपाही परिषद तक जाती हैं जो बगावत से पहले सिपाहियों से जुड़े विभिन्न मसलों पर चर्चा का एक मंच हुआ करता था। इन्हीं परिषदों के तत्वों को पारंपरिक पंचायतों के तत्वों के साथ मिलाकर सिपाहियों ने अंग्रेजी संवैधानिक राजशाही और संसदीय प्रक्रियाओं के बारे में अपनी यथासंभव समझदारी के आधार पर कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेथशन को गढ़ा था।
सिपाही सरकार को लगातार काम करते रहने में दिक्कत आने लगी थी क्योंकि संसाधनों तक उसकी पहुंच बमुश्किल ही थी। शहर का संपन्न तबका उसे पैसा देने के हक में नहीं था क्योंकि उसे सिपाहियों के नेतृत्व पर भरोसा नहीं था। इसके अलावा जल्द ही मिर्जा मुगल और बख्त खान के बीच मतभेद पैदा हो गए जिसके चलते सत्ता के दो प्रतिद्वंद्वी केंद्र बन गए। इस टकराव में सम्राट ने बख्त खान का पक्ष लिया, जो उनके वैचारिक पक्ष को समझने का एक महत्वपूर्ण संकेत है। सिपाहियों के उद्देश्य को लेकर उनके मन में जो कुछ भी थोड़ी आशंका रही होगी, ऐसा लगता है कि वह जुलाई तक समाप्त हो चुकी थी। बहादुर शाह ने बख्त खान की क्षमताओं में अपना भरोसा जताया, यह बात इसलिए और अहम हो जाती है क्योंकि मिर्जा मुगल और सिपाही नेतृत्व के बीच का विरोधाभास दरअसल समझौता न करने वाले बागियों के साथ यथास्थितिवादी अभिजात्यों के विरोध का एक अक्स था। अंग्रेजों ने 14 सितंबर 1857 को शहर पर कब्जे के लिए एक जबरदस्त सैन्य धावा बोला। शुरुआती हमले का मुख्य उद्देश्य कश्मीरी गेट से दिल्ली में प्रवेश करना था। अंग्रेजों को सिपाहियों की ओर से इतना तगड़ा प्रतिरोध झेलना पड़ा कि कश्मीरी गेट से लाल किले के बीच दूरी तय करने में उन्हें एक हफ्ते का वक्त लग गया। 20 सितंबर को सिपाही शासन का मुख्यालय शत्रु के हाथों ढह गया। इस तरह से 1857 के उपनिवेश-विरोधी संघर्ष के तजुर्बे से पैदा हुआ प्रशासन का एक नवाचारी प्रयोग अपने अंजाम को प्राप्त हुआ।
(लेखक प्रसिद्ध इतिहासकार हैं। उनकी चर्चित किताब 'जफर एंड द राज’ है।)