काश बातों से पेट भरता! 32 साल हो गए हैं जब जनसांख्यिकी विशेषज्ञ दिवंगत आशीष बोस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भेजी अपनी एक पन्ने की रिपोर्ट में कुछ राज्यों को ‘बीमारू स्टेट’ का नाम दिया था। बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के शब्दों का यह लघु रूप आज भी बदनामी और शर्मिंदगी का पर्याय है। तब शायद मंशा रही होगी कि यह शर्मिंदगी बदलाव के प्रयासों में तब्दील हो। लेकिन इस शर्मिंदगी से उबरना आसान नहीं है। आज भी यह शब्दावली कुछ राज्यों को अपमानित करती है और समय-समय पर कई राज्य इस स्थिति से बाहर निकलने के दावे भी करते रहे हैं। लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि जमीनी स्तर पर यह बीमारी स्थायी दिखाई पड़ती है।
इस बीमारी की पड़ताल करें तो इसका एक कारण, जो 1985 में बोस ने बताया, इन राज्यों में गरीबों की बड़ी तादाद है। उस समय देश की 40 फीसदी निर्धन आबादी इन राज्यों में थी। बीच के दशकों में भारत कई महत्वपूर्ण बदलावों से गुजरा है, और अब अक्सर इसे वैश्विक विकास का इंजन बताया जाता है। ये राज्य भी बदलाव की इस आंधी से अछूते नहीं हैं, हालांकि, ये भारत के सामने खड़ी मुश्किल आर्थिक चुनौतियों के केंद्र में हैं।
बोस के बीमारू राज्य खासकर, यूपी और बिहार, शुद्ध राज्य घरेलू उत्पादन (एनएसडीपी) के पैमाने पर संपन्नता और आय में भी पिछड़े ही रहे हैं। तीव्र विकास दर और मंडल राजनीति की वजह से उत्पन्न सामाजिक गतिशीलता के नए स्वरूपों के बावजूद ये संपन्न राज्यों की बराबरी नहीं कर सके। यह अंतर जो बहुत कुछ कहता है, चिंताजनक है। क्षेत्रीय असंतुलन की यह तस्वीर इतनी भयावह है कि यह मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन के शब्दों में भारत की सबसे बड़ी “राजनीतिक-आर्थिक पहेली” बन गई है।
यूपी को ही लीजिए। भारत का सर्वाधिक आबादी और राजनीति को दिशा देने वाला राज्य। हर आम चुनाव में भारतीय राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाता है। लेकिन आय के मामले में यह निचले पायदान पर है। अगर यूपी कोई देश होता तो इसकी अर्थव्यवस्था का आकार कतर के बराबर होता। यह सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन तथ्य यह है कि कतर की महज 25 लाख की आबादी के मुकाबले यूपी में 21.5 करोड़ लोग रहते हैं। ब्राजील जितनी इस आबादी का मतलब है कि यूपी की प्रति व्यक्ति आय उप-सहारा अफ्रीका के देश बुर्किना फासो से ज्यादा नहीं है। आम तौर पर किसी देश या राज्य की गरीबी का अंदाजा ऐसे ही लगाया जाता है।
चिंता की बात है कि इतने वर्षों से भारत क्षेत्रीय असंतुलन दूर करने के लिए किसी प्रकार का नीतिगत हस्तक्षेप करने में नाकाम रहा है। 1960 के बाद आमदनी के पायदान पर तेजी से ऊपर चढ़े केरल, गुजरात, तमिलनाडु और कर्नाटक ने अपनी जगह कायम रखी है। औद्योगिकीकरण के निम्न स्तर और अप्रवासियों द्वारा वापस भेजे पैसों पर निर्भरता के बावजूद केरल ने जरूर अपनी संपन्नता समान रूप से बढ़ाने का उदाहरण पेश किया है (हालांकि संभ्रांत वर्ग और वंचितों के बीच अंतर वहां भी है)।
सभी राज्यों की कुल आय में ‘बीमारू’ राज्यों की हिस्सेदारी इसका सबूत है। वर्ष 2013-14 में यूपी की हिस्सेदारी मात्र 1.2 फीसदी थी। इसकी तुलना बाकी राज्यों से करें तो यूपी की तस्वीर बेहद निराशाजनक नजर आएगी। मसलन, सभी राज्यों की कुल आय में नए राज्य छत्तीसगढ़ का योगदान 14.2 फीसदी है। गरीब माने जाने वाले त्रिपुरा ने 1984 से 2014 के बीच अपनी प्रति व्यक्ति आय करीब छह गुना बढ़ा ली है। अस्सी के दशक में मध्यम श्रेणी में रहे हिमाचल प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय में चार गुना बढ़ोतरी हुई है। कभी कालाहांडी में भूख से मौतों का पर्याय माने जाने वाले ओडिशा ने ग्रामीण गरीबी को बिहार के मुकाबले दोगुनी रफ्तार से घटाया है और तीन पायदान ऊपर आ गया है। जबकि ओडिशा के पड़ोस के पश्चिम बंगाल ने निराश किया। साठ के दशक के इस धनी औद्योगिक राज्य की जगह आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने ले ली है। इसका एक कारण उद्योग विरोधी दौर रहा। साल 1998-1999 से 2004-2005 के बीच बंगाल ने उद्योगों में काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या में चार फीसदी की गिरावट दर्ज की। फिर से निवेश को आकर्षित करने के प्रयासों की वजह से वर्ष 2005-2006 से 2012-2013 के बीच उद्योगों में काम करने वाले लोगों की तादाद में 3.5 फीसदी का सुधार हुआ। लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स की संघमित्रा बंदोपाध्याय बताती हैं कि इस एक अपवाद को छोड़कर पिछले चार दशकों में अमीर और गरीब राज्यों के समूह में मोटे तौर पर कोई बदलाव नहीं आया।
बिहार इस पहेली की जड़ है। फिलहाल यह भारत के सबसे तेजी से विकास करने वाले राज्यों में शामिल है। जाहिर है इसका कारण अतीत में बिहार का पिछड़ापन या सांख्यिकी की भाषा में कहें तो “लो-बेस इफेक्ट” है। इसे यूं समझें कि अगर पहले ग्रोथ रेट बहुत कम रही है तो इसमें थोड़ा इजाफा भी ऊंची वृद्धि दर प्रदर्शित करेगा। बिहार के साथ ऐसा ही हुआ। 11वीं योजना (समाप्ति वर्ष 2011-2012) के पांचों वर्षों के दौरान बिहार की औसत विकास दर सर्वाधिक रही। वर्ष 2006-07 में यह दर 15.69 फीसदी और 2012-13 में 14.48 फीसदी थी। प्रति व्यक्ति आय के मामले में बढ़ोतरी के मामले में भी बिहार अव्वल रहा। लेकिन महंगाई समायोजन करके देखें तो बिहार की प्रति व्यक्ति आय सबसे कम (2015-2016 में 26,801 रुपये) थी। इस लिहाज से केरल बिहार के मुकाबले 365 गुना धनी था।
इस असंतुलित विकास का लोगों के जीवन पर क्या असर पड़ेगा? अगर आप यूपी या बिहार में नौकरी खोज रहे युवा हैं तो बेहतर होगा कि केरल, गुजरात, कर्नाटक या महाराष्ट्र चले जाएं। क्योंकि वहां आपके चार गुना ज्यादा धनी होने की संभावना है। इस बात को आम भारतीय बखूबी समझते हैं। वित्त मंत्रालय द्वारा एकत्रित रेल यात्रियों के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2011 से 2016 के बीच काम के सिलसिले में आंतरिक पलायन दोगुना होकर 90 लाख तक पहुंच गया। बड़ी तादाद में लोग इन पिछड़े राज्यों को छोड़ रहे हैं।
यह स्थिति वैश्विक रुझानों के विपरीत है। हर जगह गरीब इलाकों की स्थिति बेहतर हुई है। चीन का कोई भी सूबा आज तीन दशक पहले जितना गरीब नहीं है। खासकर आय और खपत के मामले में निर्धन क्षेत्रों के बाजारों को धनी इलाकों से जोड़ने के अर्थशास्त्र के सिद्धांत के हिसाब से ऐसा ही होना चाहिए। अर्थशास्त्री इसे कन्वर्जेंस कहते हैं। लेकिन विरोधाभास देखिए, भारत के राज्य इस तरह के जुड़ाव के बजाय छितराव को प्रदर्शित करते हैं। खासकर अगर राज्यों के शुद्ध घरेलू उत्पाद (एनएसडीपी) को प्रति व्यक्ति आय के आधार पर देखा जाए। किसी राज्य के निवासियों की औसत आय को मापने का यह सबसे प्रचलित पैमाना है, जो राज्यों के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का ही एक रूप है। हालांकि, इस पैमाने में कुछ खामियां हैं। मसलन, जीडीपी या एनएसडीपी में खनन जैसी बड़ी औद्योगिक गतिविधियां भी शामिल होती हैं, जिनकी वजह से आंकड़ों में जमीनी सच्चाई छिप जाती है। जैसे, महाराष्ट्र से मुंबई या पुणे को अलग कर दें तो राज्य की एकदम अलग तस्वीर नजर आएगी।
भारत अक्सर चीन को टक्कर देना चाहता है। यह मुकाबला गरीबी हटाने के मामले में भी होना चाहिए। चीन की मौजूदा विकास दर को देखते हुए उसका सबसे गरीब राज्य गांसू, 23 वर्षों में वहां के सर्वाधिक धनी सूबों गुआंगडोंग और शंघाई के मुकाबले आधा रास्ता तय कर लेंगे। इस मामले में हम कहां हैं? आर्थिक सर्वेक्षण में इस समस्या का विश्लेषण करने वाले अरविंद सुब्रमण्यन के मुताबिक, धनी राज्यों की बराबरी करने के मामले में भारत राह भटक रहा है।
मुंबई स्थित आइडीएफसी इंस्टीट्यूट के अर्थशास्त्री विवेक देहेजिया और प्रवीण चक्रवर्ती अपने हालिया अध्ययन में बताते हैं कि किस तरह 1990 से पहले और 1990 के बाद दो अलग-अलग युग की तरह दिखते हैं। इस अध्ययन में उन्होंने प्रचलित पद्धतियों के साथ-साथ नए तरीकों का भी इस्तेमाल किया। समृद्धि के संकेत के तौर पर रात में जगमग लाइटों की सैटेलाइट इमेज की मदद ली गई। जाहिर है, परिणाम दिमाग की बत्ती जला देने वाले थे!
सन 1960 के अमेरिकी सैटेलाइट डाटा के आधार पर बंगाल, बिहार, गुजरात, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और यूपी समेत कुल 12 राज्यों का विश्लेषण किया गया। तब का सबसे धनी राज्य महाराष्ट्र निर्धनतम बिहार से दोगुना संपन्न पाया। 2014 तक केरल सबसे संपन्न राज्य हो गया लेकिन इसकी आय बिहार से चार गुना अधिक थी। उनका निष्कर्ष है कि जो राज्य पहले संपन्न थे, वे उदारीकरण के दौर में और तेजी से तरक्की करते गए।
केरल और कर्नाटक को अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन अक्सर आदर्श राज्य की संज्ञा देते हैं। इन दो राज्यों ने सामाजिक खर्च बढ़ाते हुए शिक्षा, खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किया, जो उत्पादक श्रम शक्ति के लिए महत्वपूर्ण साबित हो रहा है। अगर केरल एक देश होता तो आज यूरोप की विकसित अर्थव्यवस्थाओं से बराबरी करता। केरल में जीवन प्रत्याशा स्वीडन के बराबर 82 वर्ष है। शिशु मृत्यु दर प्रत्येक 1000 पर 12 है, जो चीन से बराबरी करती है।
बीमारू राज्यों में भी उम्मीद की किरण देखी है। पिछले कुछ वर्षों में निरंतर उच्च वृद्धि दर बताती है कि बिहार बुनियादी रूप से बदल रहा है। बिहार के अर्थशास्त्र एवं सांख्यिकी निदेशालय के उप निदेशक विष्णु दयाल पंडित कहते हैं, “राज्य की प्रति व्यक्ति आय कम बनी हुई है, जैसे दशकों पहले थी। इसके लिए मैं गरीबी के बोझ और विकास का लाभ अंतिम व्यक्ति तक न पहुंच पाने को दोषी मानता हूं।” योजना आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, 2004-05 में बिहार की 54.4 प्रतिशत जनता गरीबी रेखा से नीचे थी। 2009-10 में भी इसमें मामूली अंतर ही आया और यह 53.5 फीसदी रही।
इसके विपरीत ओडिशा में गरीबी तेजी से घटती दिखी है। इंस्टीट्यूट फॉर स्टडीज इन इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के उदित शर्मा राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहते है कि 2009-10 से 2011-12 के बीच ओडिशा में असंगठित कामगारों की मजदूरी सर्वाधिक 17 फीसदी बढ़ी है।
लेकिन यूपी और बिहार में ठहराव को क्या सिर्फ अर्थशास्त्र से समझा जा सकता है? इसके सामाजिक पहलू भी हैं, जिनके बीच कारण और प्रभाव का संबंध स्थापित करना मुश्किल है। समाज विज्ञानी जाति को इसकी बड़ी वजह मानते हैं। भेदभावपूर्ण सामंती ढांचे की जकड़न बाजार को स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने देती। जिससे विकास का लाभ प्रभावशाली जातियों को ही मिल पाता है। लोकतंत्र और विकास के बीच यह तनाव जारी है।
पिछड़ेपन के सूत्र भू-स्वामित्व में भी तलाशे जा सकते हैं। बिहार कृषि विश्वविद्यालय, भागलपुर के अशोक कुमार सिन्हा कहते हैं कि बिहार सबसे पहले जमींदारी उन्मूलन कानून लागू करने वाले राज्यों में से एक था। लेकिन जमींदार कानून की खामियों का फायदा उठाने में कामयाब रहे क्योंकि सरकारें सही मायनों में उनकी प्रतिनिधि थीं। इस स्थिति को बदलने का एक ही तरीका है कि गैर-कृषि आधारित रोजगार पैदा किए जाएं। अब ऐसा हो भी रहा है।
विकास की राह में भारत दो तथ्यों को नजरअंदाज कर रहा है। पहला, औद्योगिक विकास की तुलना में कृषि क्षेत्र की वृद्धि दोगुनी गरीबी दूर कर सकती है। दूसरा, लेकिन ये एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। मतलब, एक गणना के अनुसार कृषि उत्पादन में एक फीसदी बढ़ोतरी वास्तव में औद्योगिक उत्पादन को 0.5 फीसदी और राष्ट्रीय आय को 0.7 फीसदी बढ़ाती है। फिर भी अस्सी और नब्बे के दशक में कृषि क्षेत्र में निवेश की दर 8-12 फीसदी जितनी कम रही। जबकि अन्य क्षेत्रों में सुधार के साथ-साथ 35 फीसदी से ज्यादा सार्वजनिक निवेश हुआ।
भारत में क्षेत्रीय असंतुलन के जटिल मुद्दे को चक्रवर्ती और देहेजिया एक हालिया उदाहरण से समझाते हैं। ऐप्पल भारत में अपना मैन्युफैक्चरिंग बेस बनाना चाहती है। कर्नाटक और तमिलनाडु के मुकाबले बिहार में जमीन और श्रम की लागत काफी कम होती है, फिर भी उन्होंने दक्षिण भारत का रुख किया। बिहार कब तक इस फर्क को सहन करता रहेगा। उपाय यही है कि राज्यों को नीतिगत मामलों में अधिकतम छूट दी जाए।