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मैगज़ीन डिटेल

ओडिशा तो आ गया ऊपर

कालाहांडी की भुखमरी के कलंक को भूलकर ओडिशा गरीबी घटाने में पश्चिम बंगाल, यूपी, बिहार और मध्य प्रदेश से आगे निकला

ये कहां आ गए हम!

आज कई विद्रूपताएं हमारे सामने हैं। एक ओर ‘राष्ट्रवाद’ का नया दौर है, जो आजादी की लड़ाई के दौरान बने भारत के विचार को खारिज करता दिखता है तो दूसरी ओर हर मामले में यह धारणा मजबूत होती गई है कि इसमें मेरे लिए क्या है। यह धारणा परिवार, समाज, सत्ता और कारोबार सभी जगह हावी हो गई।

नए समीकरणों के उलझे सवाल

नीतीश के पैंतरा बदलने से नए सियासी परिदृश्य में अपने-अपने समीकरण पुख्ता करने की तेज हुईं रणनीतियां

दान की जमीन पर हाथ साफ करने के दांव

बृजमोहन अग्रवाल ने सरकार को दान में दी गई जमीन पत्नी और पुत्र के नाम पर खरीदी, मामला सामने आने पर गरमाई राजनीति

‘आजाद भारत’ के पहले ध्वजारोहण का साक्षी

यहां जिमखाना मैदान में 30 दिसंबर 1943 को नेताजी ने फहराया था तिरंगा

आदर्शवाद, विचारधारा और सर्वसत्तावादी राजनीति

आदर्शवाद और विचारधारा चचेरे भाई जैसे हैं। सामान्य दौर में वे एक-दूसरे की अतियों पर अंकुश रखते हैं लेकिन फिलहाल भारत में यह सामान्य समय नहीं है, इस दौर में आदर्शों को झुठलाने के लिए राजनीति विचारधारा का इस्तेमाल करने लगी है

कहां खो गए वे आदर्श

राष्ट्री य आंदोलन के दौरान गांधी और नेहरू की भविष्यआ की परिकल्पहना अलहदा थी पर आम आदमी के कल्याण के प्रति गहरी दृष्टि से प्रेरित थी, मगर आज हम कॉरपोरेट ताकतों और संकीर्ण राष्ट्रपवाद के सामने अपने समर्पण के बीच हर आदर्श से पूरी तरह खाली नजर आते हैं

दिवास्वप्न नहीं आदर्शवादी पूंजीवाद

समाज में गरीब आदमी परेशान होता है तो किसी न किसी दिन वह यही कहेगा कि बहुत हुआ, अब और नहीं! गरीबों की जिंदगी बेहतर करने के लिए हमने उतना नहीं किया जितना हम कर सकते हैं। हम इस तरह धन समेटने में लगे हैं जैसे कि कल तो आएगा ही नहीं

वामपंथ का द्वंद्वात्मक आदर्शवाद

राष्ट्र-भक्ति दक्षिणपंथ तो पार्टी-भक्ति वामपंथियों की गर्भ-नाल की तरह है, इन दो ध्रुवों के बीच करोड़ों भारतीय पिसते हैं, समकालीन समाज में व्याप्त विचारधारात्मक नकारवाद हमें क्रूरता को महिमामंडित करने की ओर ढकेलता है

सच कहने, सुनने का टूटता साहस

सच कहने का साहस और सच के लिए संघर्ष करने का सत्साहस खोते जा रहे हैं हम। जितने-जितने लोग, उतने-उतने सच! आस्थाै और तर्क के बीच घिसटता मेरा अपना देश आज कहां पहुंच गया है

निराशा के दौर में जलते-बुझते आशा के दीये

हम उस दौर में जी रहे हैं, जहां हिंसा के दृश्य आम हैं लेकिन जनवार कैसल, सब्बाह हाजी और अमित-जयश्री ऐसे नाम हैं जो शिक्षा के अलख से उजियारा भर रहे हैं

ऐसे उन्मुक्त होती गई शिक्षा

विश्वविद्यालयों में माहौल दमघोंटू हो गया है और उच्च शिक्षा के संस्थान ऐसे स्थान नहीं रह गए जहां विचारों के सौ फूल खिल सकें और विश्वविद्यालय ऐसे उद्यान नहीं रहे जहां नाना प्रकार की सुगंध आती हो

बदलती हकीकत का फसाना

आजाद देश में नेहरूवादी आदर्शों और आर्थिक नीतियों से लेकर उदारीकरण और राष्ट्रवाद की नई व्याख्या के दौर में इतिहास के पड़ावों और अहम मोड़ों से उपजी समस्याओं और संवेदनाओं के ‌वृतांत फिल्मकारों के यहां कई

जय उनकी कहां जो सिर्फ खेलभावना में ही जुटे

एक वक्त ऐसा भी था जब व्यावसायिकता को खेलों के लिए खतरा माना जाता था लेकिन आज जीतना और पैसे कमाना ही अंतिम लक्ष्य बनने लगा तो खेलभावना घाव सहलाती नजर आने लगी

प्रसिद्धि जिसके नसीब में नहीं थी

बसंत प्रकाश प्रसिद्ध नहीं सफल संगीतकार थे, उन्होंने फिल्मी संगीत को जो दिया अच्छा दिया

झोले और चप्पल की सहकारिता

कुछ अलग ही महिमा रही है चप्पल के साथ झोले की

नए निजाम के मायने

नवाज की विदाई के बाद फौज की चुप्पी से मुस्लिम लीग की सत्ता आसान नहीं

ज्ञान के नए केंद्र निजी ‍विश्वविद्यालय

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में महत्वसपूर्ण बदलाव ला रहे हैं कॉरपोरेट घरानों से संचालित निजी शिक्षण संस्थान

छात्रों के लिए खुलते हैं अवसर के नए दरवाजे

यहां उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए मिलती है विश्वस्तरीय सुविधा, योग्य शिक्षक देते हैं मार्गदर्शन

दिग्गज देते हैं यहां ज्ञान

डिग्री या रिसर्च नहीं जानकारों का अनुभव आता है काम

आजादी और विभाजन

यह अवसर उन लोगों को याद करने का, जिनके बलिदानों के कारण भारत अंग्रेजों के शासन से मुक्त हो सका