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सेहत का जिम्मा किसका

सरकारों के पल्ला झाड़ने और निजीकरण को तरजीह देने से हेल्थलकेयर इंडस्ट्री और मेडिकल टूरिज्म में तब्दील होती चिकित्सा व्यवस्थाझ आम आदमी को करने लगी बेहाल
तड़पती जिंदगीः बीमारी तो पस्त करती ही है पर सरकारी अस्पतालों की बदहाली बनी मारक

गाजियाबाद के वैशाली में रहने वाली सुमन सोनिक बीमारी की मारी हैं। कैंसर उनके परिवार की जमा-पूंजी, घर-बार सब निगल गया। जिंदगी खुद के फ्लैट से किराए के मकान में आ गई। सरकारी अस्पताल किसी लायक न थे, सो जान बचाने की जद्दोजहद प्राइवेट हॉस्पिटलों तक ले गई। जब तक कैंसर का पता चला 5-6 लाख रुपये डॉक्टरों की फीस और जांच वगैरह पर खर्च हो चुके थे। मकान बिक गया। कर्ज चढ़ गया। इलाज जारी है...

सुमन की तरह कितने ही परिवारों के साथ ऐसा हो चुका है। जैसे-जैसे सरकारें स्वास्थ्य सेवाओं से पल्ला झाड़ती गईं, ऐसी त्रासदियां आम होती गई हैं। लोगों को स्वास्थ्य का अधिकार तो दूर बेहतर इलाज भी जब मुहैया न करा सकीं तो सरकारों ने यह जिम्मा प्राइवेट सेक्टर पर डालना शुरू किया। इस तरह चिकित्सा सेवा के बजाय हेल्थकेयर इंडस्ट्री और मेडिकल टूरिज्म में तब्दील हुई।

स्वास्थ्य सेवाओं से सरकारों के पल्ला झाड़ने और चिकित्सा के मुनाफे का धंधा बनने से कैसे हालात पैदा हुए हैं, यह जानने के लिए किसी बड़े सरकारी अस्पताल से गुजर कर देखिए। बिस्तरों से ज्यादा मरीज बरामदों, फुटपाथ पर नजर आएंगे। ऐसा देश जहां 71 फीसदी से ज्यादा लोगों के पास हेल्थ इंश्योरेंस का सहारा नहीं है, सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा के चलते प्राइवेट हॉस्पिटल का रुख करना उनकी मजबूरी बन गया है। दुनिया में 1000 लोगों पर अस्पताल के औसतन 2.5 बेड जरूरी समझे जाते हैं। इस लिहाज से भारत में 20 लाख बेड की कमी है। महाशक्तियों में शुमार होने को बेताब देश जनता के स्वास्थ्य पर जीडीपी का एक फीसदी से थोड़ा ही अधिक खर्च कर संतुष्ट है। नतीजा, देश की करीब 65-70 फीसदी आबादी इलाज के लिए प्राइवेट अस्पतालों या डॉक्टरों पर निर्भर है। आइएमएस इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थकेयर इंफार्मेटिक्स का 2013 का अध्ययन बताता है कि पिछले 25 वर्षों में प्राइवेट हेल्थकेयर सुविधाओं का इस्तेमाल शहरों के साथ-साथ गांवों में भी तेजी से बढ़ा है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर रोजाना सिर्फ तीन रुपये ही खर्च करती हैं।  

जानलेवा लापरवाहीः दिल्ली में शालीमार बाग के मैक्स अस्पताल के बाहर नाराज लोग

जाहिर है, सरकारें जनता को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने की स्थिति में नहीं हैं, इसलिए प्राइवेट सेक्टर पर दारोमदार बढ़ता गया। जहां जिंदगी और मौत का संघर्ष मुनाफे के सौदे में बदलता गया। इस बात को स्वास्थ्य पर होने वाले सरकारी खर्च और लोगों की जेब से होने वाले खर्च के अंतर से भी समझा जा सकता है। नेशनल हेल्थ एकाउंट्स की 2014-15 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में स्वास्थ्य पर सालाना प्रति व्यक्ति औसतन 3,826 रुपये खर्च हुए। इसका 62.6 फीसदी खर्च लोगों को अपनी जेब से उठाना पड़ा। परिवारों पर पड़े खर्च के इस बोझ को जोड़ें तो सालाना तीन लाख करोड़ रुपये से ज्यादा बैठता है, जो स्वास्थ्य पर कुल सरकारी खर्च के दोगुने से ज्यादा और केंद्र सरकार के स्वास्थ्य बजट का छह गुना है। अनुमान लगाइये, हर साल इलाज पर तीन लाख करोड़ रुपये का यह खर्च कितने परिवारों की कमर तोड़ता होगा। कितने प्राइवेट अस्पतालों के वारे-न्यारे हुए होंगे।

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में पब्लिक हेल्थ एंड सोशल मेडिसिन की प्रोफेसर संघमित्रा आचार्य का कहना है कि गत कई दशकों में सरकारों ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में निवेश बढ़ाने की रफ्तार धीमी रखी। इसके अलावा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में भी सुधार नहीं हुआ, जिसके चलते महंगे निजी इलाज पर लोगों की निर्भरता बढ़ती जा रही है। स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच, गुणवत्ता और खर्च इन तीनों ही पैमानों पर सरकार ने निराश किया है। यह बात इस आंकड़े से भी समझी जा सकती है कि देश में स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च का सिर्फ 29 फीसदी सरकार वहन करती है। बाकी के खर्च झेलने के लिए जनता को उसके हाल पर छोड़ दिया गया है।

स्वास्थ्य क्षेत्र की इन चुनौतियों को नई स्वास्थ्य नीति में भी स्वीकार करते हुए यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज की वकालत की गई है। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के प्रेसीडेंट प्रोफेसर के. श्रीनाथ रेड्डी कहते हैं कि सबको बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने के लिए 2019 तक ही जीडीपी का कम से कम 2.5 फीसदी खर्च होना चाहिए। नेशनल हेल्थ पॉलिसी में इसके लिए 2025 की समय-सीमा तय की गई है, जबकि यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए। देश में स्वास्थ्य पर होने वाला सरकारी खर्च दुनिया के बाकी देशों के मुकाबले कितना कम है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, भारत प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर सालाना 75 डॉलर खर्च करता है, वहीं अमेरिका में यह खर्च 9403 डॉलर और चीन में 420 डॉलर है। यहां तक कि श्रीलंका, भूटान, इराक, ईरान जैसे देश भी अपने नागरिकों के स्वास्थ्य पर भारत से ज्यादा पैसा खर्च करते हैं। हम इस मामले में पाकिस्तान और नेपाल से बेहतर होकर संतुष्ट हो सकते हैं।

आंकड़ों की नजर से देखेंगे तो सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बेहद भयावह तस्वीर सामने आएगी। देश में 10 हजार लोगों पर सिर्फ एक सरकारी डॉक्टर मौजूद है। करीब दो हजार लोगों के हिस्से में सरकारी अस्पताल का एक बेड आता है। 90 फीसदी डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे हैं। मरीज तो दूर सरकारी अस्पताल डॉक्टरों का भरोसा हासिल करने में भी नाकाम हैं। आबादी और डॉक्टरों का अनुपात पाकिस्तान और वियतनाम से भी खराब है। प्रति हजार लोगों पर कम से कम एक डॉक्टर के आंकड़े को दुनिया में अच्छा माना जाता है। उस स्तर तक पहुंचने के लिए भारत में अभी तीन लाख डॉक्टरों की कमी है। इन अभावों के बीच हमारी आंख तब खुलती है जब एंबुलेंस के बजाय कोई अपने कंधे पर लाश ले जाता दिखे या फिर अस्पताल के फर्श पर प्रसव होने जैसी घटना घट जाए। सही इलाज किए बगैर जब कोई नामी प्राइवेट अस्पताल 15 लाख रुपये का बिल थमा दे या जीवित नवजात को मृत बताकर माता-पिता को सौंप दे तब जाकर पूरी अव्यवस्था की कलई खुलती है।

ठेके पर सरकारी अस्पताल

बीमारी या बोझः आर्थिक तंगी के चलते इलाज नहीं करा पाते 30 फीसदी ग्रामीण

स्वास्थ्य को प्राइवेट सेक्टर के भरोसे छोड़ने के बाद सरकार अब इससे एक कदम आगे जाने की तैयारी कर रही है। नीति आयोग और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने जिला अस्पतालों की बिल्डिंग और जमीन को प्राइवेट अस्पतालों को लीज पर देने का मसौदा तैयार किया है। मतलब, पहले स्वास्थ्य सेवाओं से खुद हाथ खींचा और अब रहे-सहे सरकारी अस्पतालों को भी प्राइवेट सेक्टर के हवाले करने की तैयारी है। सिर्फ बिल्डिंग और जमीन ही नहीं सरकारी अस्पतालों की ब्लड बैंक और एंबुलेंस जैसी सेवाएं भी प्राइवेट अस्पतालों के साथ साझा की जाएंगी। इस तरह जिला अस्पतालों की जमीन पर निजी भागीदारी में 50 या 100 बेड के अस्पताल खोलने की योजना है। यह पूरी कवायद वर्ल्ड बैंक की सलाह पर आगे बढ़ रही है।

केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री जेपी नड्डा का कहना है कि जहां सरकारी सुविधाएं अपर्याप्त हैं, वहां हम निजी क्षेत्र की विशेषज्ञता और अनुभव को साझा कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत सभी जिला अस्पतालों में राष्ट्रीय डायलिसिस कार्यक्रम को लागू कराया जा रहा है।

सरकार भले ही स्वास्थ्य क्षेत्र में निजी भागीदारी को लेकर खासी उत्साहित दिख रही है लेकिन इसका अतीत भी कटु अनुभवों से भरा है। नीति आयोग जैसी ही पहल पर आगे बढ़ते हुए नब्बे के दशक में दिल्ली सरकार ने दर्जनों अस्पतालों को रियायतों दरों पर जमीन दी थी। इसका क्या नतीजा रहा, इसे समझने के लिए हमें दिल्ली हाईकोर्ट में वकील अशोक अग्रवाल के चेंबर में पहुंचना होगा। अग्रवाल पिछले डेढ़ दशक से दिल्ली सरकार की जमीन पर बने प्राइवेट अस्पतालों में गरीबों को उनके हक का इलाज दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

अशोक अग्रवाल बताते हैं कि उनके फोन की घंटी सुबह से बजनी शुरू होती है और रात में देर तक ऐसे लोगों के फोन आते रहते हैं जिन्हें हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद दिल्ली के प्राइवेट अस्पताल भर्ती करने से कतराते हैं। गरीबों को ये बेड और मुफ्त इलाज की सुविधाएं अशोक अग्रवाल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद मिली हैं। दिल्ली के 45 प्राइवेट अस्पतालों में आज आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 650 बेड मौजूद हैं।

कायदे से यह पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का बेहतरीन उदाहरण साबित होना चाहिए था जहां सरकार ने अस्पताल खोलने के लिए सालाना एक रुपये जितनी मामूली दरों पर जमीन लीज पर दी। इसकी एवज में 10 फीसदी बेड और 25 फीसदी इलाज गरीबों को निःशुल्क मिलना था। लेकिन उच्च स्तरीय अस्पतालों में इलाज का रास्ता समाजसेवी  वकील के चेंबर तक पहुंच गया है। साल 2002 में अशोक अग्रवाल की जनहित याचिका पर 2007 में दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद कई अस्पताल निःशुल्क इलाज देने से कतराते रहे।

अशोक अग्रवाल बताते हैं कि प्राइवेट अस्पतालों ने गरीब मरीजों से पल्ला झाड़ने की तमाम तरकीबें आजमाईं। कभी आय प्रमाण पत्र के नाम पर तो कभी फ्री इलाज वाले मरीजों को दोयम दर्जे का उपचार देकर उनसे पीछा छुड़ाने की कोशिश की गई। यही कारण है कि दिल्ली के कई प्राइवेट अस्पतालों में गरीबों के हिस्से के ये बेड खाली रह जाते थे। लेकिन दिल्ली सरकार की लगातार निगरानी और बढ़ती जागरूकता के चलते अब ईडब्लूएस कोटे के 80-85 फीसदी बेड भरे रहते हैं। अग्रवाल का कहना है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप खास कारगर नहीं है। नीति आयोग से पहले योजना आयोग ने भी हेल्थकेयर सेक्टर में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देने का सुझाव दिया था। पिछले दो दशक में कई राज्यों ने स्वास्थ्य सेवाओं से अपना हाथ खींचते हुए पीपीपी के जरिए इसे प्राइवेट सेक्टर के लिए छोड़ने का काम किया है। ऐसे प्रयोग कई जगह बुरी तरह नाकाम रहे हैं। मिसाल के तौर पर, कर्नाटक सरकार ने 1997 में पीपीपी के जरिए राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल शुरू किया था। इस अस्पताल का नौ साल का तजुर्बा यह रहा है कि भर्ती होने वाले मरीजों में गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों की तादाद घटती गई।

बाकी राज्यों की देखादेखी उत्तराखंड ने भी अपने कई सामुदायिक अस्पतालों को पीपीपी पर दिया था।  जबकि कई जगह लोग इन अस्पतालों को पीपीपी से हटाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। चंपावत के लोहाघाट में स्थानीय निवासियों के विरोध के बाद अस्पताल को पीपीपी मोड से हटाना पड़ा। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय परिषद सदस्य समर भंडारी बताते हैं कि स्वास्थ्य केंद्रों को निजी हाथों में सौंपने के बाद पहले से भी कम डॉक्टर दूर-दराज के इलाके में पहुंचे। इसकी सबसे ज्यादा मार उन लोगों पर पड़ रही है जिनके पास प्राइवेट अस्पतालों तक पहुंच के साधन नहीं हैं।

सुविधाओं का संकटः देश में 1000 लोगों पर एक अदद डॉक्टर भी मौजूद नहीं

शोषण से बचाए कौन

सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव ने जैसे-जैसे प्राइवेट सेक्टर के मुनाफे का रास्ता खोला, जिंदगी-मौत की जंग कमाई का जरिया बन गई। मरीजों की खरीद-फरोख्त, कमीशनबाजी और रिश्वतखोरी ने स्वास्थ्य सेवाओं की आड़ में नए-नए गोरखधंधे पैदा कर दिए हैं। अशोक अग्रवाल मानते हैं कि मरीजों को इस शोषण और उत्पीड़न से बचाने के लिए सबसे पहले शिक्षा की तर्ज पर स्वास्थ्य का अधिकार देना होगा। प्राइवेट अस्पतालों की निगरानी और नियमन के पुख्ता इंतजामों के बगैर फोर्टिस व मैक्स अस्पताल जैसी घटनाएं कहीं भी घट सकती हैं। पीएचएफआई के प्रो. रेड्डी स्तरीय इलाज और सुविधाएं सुनिश्चित कराने के लिए क्लिनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट को एक अच्छी पहल मानते हैं। केंद्र सरकार की ओर से बनाए गए इस कानून के तहत सभी चिकित्सा केंद्रों के लिए मानक तय किए गए हैं।  दिल्ली के अलावा सभी केंद्र शासित प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश जैसे कुछ राज्यों ने इसे लागू किया है। लेकिन ज्यादातर राज्य अभी इसे लेकर बेपरवाह बने हुए हैं।

महाराष्ट्र ने जरूर डॉक्टरों की कमीशनखोरी पर लगाम कसने के लिए लीक से हटकर कदम उठाया है। महाराष्ट्र सरकार ‘प्रीवेंशन ऑफ कट प्रैक्टिस इन हेल्थकेयर सर्विसेस एक्ट 2017’ नाम का कानून लाने जा रही है। यह अपनी तरह का देश में पहला कानून है, जिसका मुंबई में जोर-शोर से प्रचार किया गया।

इससे सीख लेते हुए कई प्राइवेट अस्पताल खुद भी कमीशनखोरी के खिलाफ आगे आए हैं। मुंबई के एक जाने-माने अस्पताल ने एयरपोर्ट के पास एक होर्डिंग लगाया। जिस पर लिखा था, “ओनेस्ट ओपिनियन। नो कमीशन टू डॉक्टर्स।” इस होर्डिंग पर काफी हंगामा मचने के बाद चिकित्सा शिक्षा मंत्री गिरीश महाजन ने महाराष्ट्र के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक प्रवीण दीक्षित की अध्यक्षता में एक समिति का गठन कर उसे इस कानून के व्यावहारिक पहलुओं पर गौर करने की जिम्मेदारी सौंपी है।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल इसे अच्छा कदम बताते हुए कानून का दुरुपयोग किए जाने की आशंका जताते हैं। उन्होंने आउटलुक को बताया, ‘‘चिकित्सक इस कानून के विरोध में नहीं हैं। वे इसमें कुछ बदलाव चाहते हैं ताकि गलत शिकायतें नहीं हों। हम चाहते हैं कि ऐसे मामलों में कार्रवाई का अधिकार पुलिस के पास नहीं होकर मेडिकल काउंसिल के पास हो।’’ हालांकि यह केवल महाराष्ट्र की समस्या नहीं है। देश के छोटे-बड़े अस्पतालों में बरसों से यह खेल चल रहा है।

लेकिन सवाल है कि जब सरकार खुद ही अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रही है तो लोगों को इलाज के नाम पर होने वाले शोषण से कौन बचाएगा?

 

जे.पी. नड्डा

सेहत दुरुस्त करने का दावा

स्वास्‍थ्य के क्षेत्र में सरकारी पहल पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा के जवाब

स्वास्थ्य सुविधाओं की बेहतरी के लिए नई नीति कितनी कारगर है?

15 वर्ष बाद केंद्र सरकार नई स्‍वास्‍थ्‍य नीति लाई है। राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य नीति 2017 में प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं पर जोर दिया गया है। इसमें स्‍वास्‍थ्‍य के लिए जीडीपी का 2.5 प्रतिशत आवंटन नीति की प्रतिबद्धता है।

महंगी दवाइयों और इलाज से राहत दिलाने के लिए क्या कर रहे हैं?

प्रधानमंत्री राष्ट्रीय डायलिसिस कार्यक्रम के तहत 291 जिला अस्पतालों में अब निर्धन व्यक्तियों के लिए नि:शुल्क डायलिसिस सेवा उपलब्ध है। 19 राज्यों में 105 अमृत फार्मेसी की स्थापना की गई है ताकि रोगियों को रियायती दरों पर मधुमेह, सीवीडी, कैंसर तथा अन्य रोगों के लिए किफायती औषधियां उपलब्ध कराई जा सकें। पिछले तीन वर्षों में सरकार ने 700 से अधिक अनिवार्य औषधियों का अधिकतम मूल्य निर्धारित किया है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत लोगों को सभी औषधियां और टीके पूरी तरह नि:शुल्क उपलब्ध कराए जाते हैं।

प्रस्तावित पीपीपी योजना क्या है?

हमारा यह लक्ष्‍य है कि स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं देश के दुर्गम और दूरस्‍थ स्‍थान पर उपलब्‍ध हों। जहां सरकारी स्‍वास्‍थ्‍य नेटवर्क अपर्याप्‍त है, वहां हम निजी क्षेत्र की विशेषज्ञता तथा अनुभव को साझा कर रहे हैं। मसलन, राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के तहत पीपीपी के माध्‍यम से सभी जिला अस्‍पतालों में ‘राष्‍ट्रीय डायलिसिस कार्यक्रम’ लागू किया गया है। 

निजी अस्‍पतालों की मनमानी कैसे रोकेंगे?

इसके लिए सभी राज्‍यों में नैदानिक स्‍थापना अधिनियम का मॉडल फ्रेमवर्क लागू है। राज्‍य चाहें तो वे प्राइवेट सेक्‍टर के नियमन के लिए अपना अधिनियम भी बना सकते हैं।

 

मोहल्ला क्लिनिकः पीरागढ़ी कैंप ‌स्थित क्लिनिक में इलाज कराने पहुंचे लोग

दिल्ली ने दिखाई राह

शशिकांत वत्स

दिल्ली के शालीमार बाग इलाके में मैक्स अस्पताल ने एक जीवित नवजात को मृत बताया तो दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने फौरन उसका लाइसेंस रद्द कर दिया। कुछेक हलकों में इसकी भले आलोचना हुई मगर बड़े पैमाने पर सरकार के इस कदम की सराहना हुई। बेशक, आम आदमी पार्टी की सरकार तो इसे शिक्षा और स्वास्‍थ्य के क्षेत्र में निजीकरण की प्रक्रिया को पलटने की अपनी मुहिम का हिस्सा बताती है। इस मुहिम के तहत सबसे पहले सरकारी अस्पतालों में सुधार के कदम उठाए गए। मोहल्ला क्लिनिक के जरिए लोगों को घर के पास स्वास्थ्य की सुविधा दी गई। निःशुल्क टेस्ट और सर्जरी की सुविधा मुहैया कराई गई। मुफ्त दवा और परामर्श के साथ ही सौ डेंटल क्लिनिक खोलने का दावा भी सरकार कर रही है। साल दर साल बजट में इजाफा किया गया है। 2015-16 के बजट में 4787 करोड़ रुपये के प्रावधान को बढ़ाकर 2017-18 में 5730 करोड़ रुपये कर दिया गया है।

दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन कहते हैं, “पिछले बीस साल से सरकारी अस्पतालों की हालत काफी खराब थी जिसे ठीक करने का सरकार ने बीड़ा उठाया। प्राइमरी हेल्थ केयर पर जोर दिया गया ताकि बीमारी का इलाज शुरुआत में हो सके। इसके चलते ओपीडी में मरीजों की संख्या बढ़ी। पहले साल में तीन करोड़ मरीज देखे जाते थे जो अब बढ़कर पांच करोड़ हो गए हैं।"

डेढ़ साल पहले मोहल्ला क्लिनिक शुरू किए गए, जिसमें अब तक 50 लाख मरीजों को देखा जा चुका है। फिलहाल 158 मोहल्ला क्लिनिक हैं और एक हजार बनाने का लक्ष्य है। स्वास्थ्य मंत्री ने कहा, “राजनैतिक कारणों से इसमें अचड़नें आईं और उप-राज्यपाल ने फाइल पर हस्ताक्षर नहीं किए। सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए अस्पतालों में मरीजों के लिए सौ फीसदी दवा मुफ्त की और निःशुल्क जांच की सुविधा भी दी। एक्सरे, अल्ट्रासाउंड जैसी तमाम जांच निःशुल्क करा सकते हैं। दिल्ली सरकार के तहत एलएनजेपी, जीबी पंत, आंबेडकर, जीटीबी, डॉ. हेडगेवार, लालबहादुर शास्‍त्री समेत 36 अस्पताल हैं। इन अस्पतालों में मुफ्त दवाओं के लिए सरकार ने 250 करोड़ रुपये की राशि आवंटित की है।"

दिल्ली के मरीज निजी लैब में भी एमआरआइ, पैट स्कैन, सीटी स्कैन, कलर डापलर, ईसीजी और टीएमटी जैसे 13 बड़े टेस्ट निःशुल्क करा सकेंगे, बशर्ते उन्हें सरकार की ओर से तय अस्पतालों या पॉलीक्लिनिक में से किसी ने रेफर किया हो। दिल्ली में दुर्घटना पीड़ितों का इलाज भी निःशुल्क किया जाएगा। दुर्घटना के मामलों में समय अहम होता है, अब पुलिस घायलों को पास के अस्पताल में दाखिल कर सकेगी। इसमें आग और एसिड अटैक पीड़ितों को भी शामिल किया गया है। कहीं आग लगने पर घायलों को तत्काल निजी अस्पताल ले जाया जा सकेगा। अगर किसी मरीज को सरकारी अस्पताल में एक महीने में सर्जरी की तारीख नहीं मिलती है तो अस्पताल उन्हें निजी अस्पताल के लिए रेफर कर सकेंगे और इसका खर्च सरकार उठाएगी।

बकौल सत्येंद्र जैन, “निजी क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवा काफी महंगी है और सरकार को अपनी सुविधाओं को सभी के लिए अच्छा करना होगा। इसमें गरीब, मध्यम और अमीर सभी वर्ग के लोग शामिल होने चाहिए तभी निजीकरण को खत्म किया जा सकता है।" मैक्स की घटना पर उन्होंने कहा, “सरकार निजी अस्पतालों पर अंकुश लगाने की दिशा में काम कर रही है और इससे लोगों को महंगे निजी अस्पतालों की लूट से निजात मिलेगी।” इसके लिए सरकार ने महंगी जांच, सर्जरी की सुविधा निजी अस्पतालों में निःशुल्क देने का कदम उठाया है तथा सरकारी अस्पतालों में निःशुल्क दवा दी जा रही है। इन सुवि‍धाओं का कोई भी दिल्लीवासी लाभ उठा सकता है। केवल दिल्ली के निवास की प्रामाणिकता के लिए आधार कार्ड, वोटर कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट में से कोई एक दस्तावेज दिखाना होगा।

 

 

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