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धर्म, राजनीति और हिंसा-अहिंसा

दुनिया के अन्य हिस्सों से प्राचीन भारत में सामाजिक और राजनैतिक हिंसा कम नहीं थी मगर इतिहास की चुनिंदा व्याख्या नहीं होनी चाहिए, उसे लोकतंत्र, आजादी, बराबरी के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए
अप्रभावितः सारनाथ के मुलागंधकुटी विहार में गौतम बुद्ध का भित्तिचित्र

अहिंसा की मजबूत परंपरा प्राचीन भारत के धार्मिक इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। जैन और बौद्ध धर्म, दोनों ही अनात्म दर्शन हैं। ये मुक्ति का मार्ग त्याग को बताते हैं और, अहिंसा पर जोर देते हैं। ब्राह्मणवादी परंपरा में भी अहिंसा संन्यासी बनने के विचार से जुड़ी हुई है और यह सामान्य धर्म या लोक धर्म में भी है। यानी वह धर्म जो बिना किसी सामाजिक या स्‍त्री-पुरुष भेदभाव के सभी के लिए होता है। हिंदू धर्म में भी वैष्णव पंथ में अहिंसा जुड़ी हुई है।

लेकिन सवाल यह भी है कि धर्म किस हद तक लंबे दौर में अपने अहिंसा केंद्रित मूल सिद्धांत के प्रति सच्चे बने रहते हैं? क्या अहिंसा केंद्रित धर्मों के अनुयायी बाकियों की अपेक्षा अधिक अहिंसक या दयालु होते हैं? अहिंसा के मूल्यों का राजनैतिक क्षेत्र में, खासतौर पर युद्ध के नजरिए पर किस हद तक प्रभाव पड़ता है?

युद्ध पर मत-विमत

सभी अहिंसा केंद्रित धर्मों में जैन धर्म सबसे अधिक अहिंसक है। हालांकि, मठ के संन्यासियों और साधारण लोगों के लिए भिन्न रूपों में अहिंसा पालन का विधान है। जैन ग्रंथों में युद्ध को लेकर दुविधा, मौन स्वीकृति या जायज ठहराने के तर्क हैं। हालांकि यह भी हिदायत है कि युद्ध में हत्या से बचना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, आठवीं सदी के आदिपुराण में बाहुबली अपने राजपाट के लिए सौतेले भाई भरत से लड़ता है। वह भरत को हरा देता है, लेकिन उसकी हत्या नहीं करता है और मोक्ष की तलाश में वन चला जाता है। जैन रामायण में, राम रावण का वध नहीं करना चाहते हैं। लक्ष्मण यह करता है और रावण की तरह नरक में जाता है। दूसरी तरफ, समयसर में जैन संन्यासी कुंडाकुंड कहते हैं कि जो व्यक्ति सोचता है कि वह मार सकता है या मर सकता है, वह अज्ञानी है क्योंकि मृत्यु और हत्या पूर्वजन्मों के कर्मों का परिणाम है (यह भगवतगीता के दर्शन की तरह लगता है)। सोमदेवासुरी के एक छंद की व्याख्या कई बार ऐसी भी मिलती है कि आत्मरक्षा के लिए युद्ध में हत्या से बचा जाना चाहिए, लेकिन आम लोगों के लिए यह अनिवार्य नहीं है।

फिर, अहिंसक युद्ध जैसा तो कुछ होता नहीं है। इतिहास बतलाता है कि जैन राजाओं ने युद्ध लड़ा और जैन संन्यासी भविष्यवाणी किया करते थे। कलिंग का राजा खरवेल हाथीगुंफा के अभिलेखों में बड़े गर्व से अपनी जीत का बखान करता है। बाद में, जैन धर्म के प्रति झुकाव वाले गंगा के राजा राष्ट्रकूट और हयसाल राजाओं ने दूसरे धर्म के राजाओं की ही तरह वर्चस्व कायम करने के लिए युद्ध किए। गंगा का सेनापति चामुंडार्य युद्ध के मैदान में क्रूरता के लिए विख्यात था। जाहिर है कि जैन राजा युद्ध विरोधी नहीं थे।

बौद्ध धर्म भी राजनैतिक हिंसा और युद्ध के प्रति अलग-अलग नजरिया रखता है। लगभग सभी जातक कथाएं अहिंसा और करुणा पर जोर देती हैं। कई बोधिसत्व युद्ध लड़ते हैं। बौद्ध मूल्यों में अहिंसा मठ के भिक्षु समुदाय और आम लोगों के लिए एक समान थी। महायान शाखा सभी जीवों के प्रति दया की बात करती है। दूसरों को मोक्ष की तरफ ले जाने वाली बोधिसत्व की विचारधारा में भी करुणा है। लेकिन, शून्यता के सिद्धांत का इस्तेमाल अहिंसा के नैतिक बल को कमजोर करने में किया जा सकता है। बौद्ध राजा अशोक ने युद्ध को त्याग दिया था, लेकिन जंगल की जनजातियों की दी गई चेतावनी से पता चलता है कि वह पूरी तरह युद्ध विरोधी नहीं था।

एशियाई बौद्ध इतिहास में, बौद्धों के युद्ध से जुड़े होने के अवशेष मिलते हैं। श्रीलंका और बर्मा में अधिकारों के लिए युद्ध को अक्सर न्यायोचित और वैध करार दिया जाता है। छठी सदी में विद्रोही संन्यासी तांग चीन ने हिंसक विद्रोह को उचित ठहराया। हालांकि, दिलचस्प बात है कि प्राचीन भारतीय इतिहास में बौद्ध हिंसा की कोई घटना दर्ज नहीं हुई। धर्म में हिंसा की संभावना राजनीति से जुड़े संबंधों में निहित है।

धार्मिक टकराव और उत्पीड़न

राजनीति प्रेरित धार्मिक टकराव का मुद्दा इन दिनों ज्वलंत है। प्राचीन समय में कैसी परिस्थितियां थीं? ईसा पूर्व छठी शताब्दी और सातवीं शताब्दी के बीच, तीन बड़े धार्मिक अत्याचारों की घटना का पता चलता है। दिलचस्प है कि इन सभी का बौद्ध ग्रंथों में जिक्र है। इनमें से पहला पुष्यमित्र शुंग (ईसा पूर्व दूसरी सदी) से जुड़ा है। हमें बताया गया कि पुष्यमित्र ने अशोक के बनाए 84,000 स्तूपों को ध्वस्त करने का फैसला किया और सेना के साथ कुक्कुतरमा मठ की तरफ कूच कर गया। जब राजा ने संन्यासियों से 84,000 स्तूप और 84,000 मठ में से किसी एक को बचाने को कहा तो, उन्होंने स्तूप को चुना। तब उसने मठ को नष्ट कर दिया और सभी संन्यासियों की हत्या कर दी। उसने बौद्ध संन्यासियों का सिर लाने वाले के लिए सोने के 100 सिक्के के इनाम की पेशकश भी की।

पुरातत्ववेत्ता जॉन मार्शल के मुताबिक, सांची के महान स्तूप की ईंटों से पता चला कि स्तूप को जानबूझकर नुकसान पहुंचाया गया। मार्शल इसे शुंग राजा की गतिविधियों से जोड़ते हैं। पुष्यमित्र को ही कौशांबी में घोषितराम मठ और मध्य भारत में देवरकोठार स्तूप के ध्वंस के लिए जिम्मेदार माना जाता है। वहीं, दूसरी तरफ, हम यह भी जानते हैं कि शुंग काल के दौरान मध्य भारत में सांची और अन्य बौद्ध मठ खूब फले-फूले। बौद्धों पर पुष्यमित्र के अत्याचार के बावजूद क्या ऐसा मुमकिन था? क्या ऐसा इसलिए था कि शुंग राजाओं ने बाद में अपनी बौद्ध धर्म विरोधी नीतियों का त्याग कर दिया? या क्या ऐसा इसलिए था कि क्योंकि बौद्ध मठ राजाओं के आश्रय पर वाकई निर्भर नहीं थे?

बौद्ध ग्रंथों में हूणों को भी धार्मिक आक्रांता के रूप में बताया गया है। हूण शासक तोरमाण ने कौशांबी में मशहूर बौद्ध मठ को ध्वस्त किया था। तोरमाण के उत्तराधिकारी मिहिरकुल (जिसका झुकाव शैव धर्म के प्रति माना जाता है) ने बौद्धों के उत्पीड़क के रूप में कहीं अधिक ख्याति हासिल की। सातवीं सदी के चीनी यात्री ह्वेनसांग ने उसे क्रूर और बौद्ध दमनकारी शासक बताया। बाद में 16वीं/17वीं सदी में तिब्बती यात्री तारनाथ ने इसे प्रचारित किया। तक्षशिला में धर्मराजिका स्तूप की खुदाई के दौरान आग, सिर, क्षत-विक्षत शव और खोपड़ियों पर चोट के निशान मिले। जॉन मार्शल ने इसे हूणों के नरसंहार का प्रमाण बताया। पुरातत्व प्रमाण हिंसक घटना की तरफ इशारा करते हैं। धर्मराजिका मठ में विभिन्न प्रकार के तीर खतरे की संभावना की ओर इशारा करते हैं। छठी सदी की शुरुआत में गांधार की यात्रा करने वाले चीनी यात्री सोंज्ञुन ने गांधार मठों के ध्वंस के लिए हूणों को जिम्मेदार ठहराया।

नई राहः कलिंग युद्ध की विभीषिका को दर्शाता एक चित्र। इस युद्ध ने सम्राट अशोक के नजरिए को बदल दिया था

ह्वेनसांग के मुताबिक, मिहिरकुल ने गांधार में 1,600 बौद्ध मठों को ध्वस्त किया। सिंधु नदी के किनारे नौ हजार लोगों की या तो हत्या कर दी या गुलाम के तौर पर बेच दिया। दूसरी तरफ, साल्ट रेंज के कुरा में मिला शिलालेख तोरमाण शासनकाल में रोट्टा सिद्धवृद्ध‌ि द्वारा एक बौद्ध मठ के निर्माण के बारे में बताता है। निर्माणकर्ता इससे प्राप्त पुण्य राजा और उनके परिजनों के साथ साझा करने की इच्छा जताता है। इस तरह हूण शासनकाल में बौद्ध मठों का निर्माण हो रहा था। तो, क्या मिहिरकुल बौद्धों के उत्पीड़न में शामिल था? या उसके एक कट्टर राजनैतिक विरोधी, बौद्धों के संरक्षक मगध के बालादित्य के कारण उसे बौद्ध विरोधी क्रूर शासक के तौर पर पेश किया गया? दिलचस्प तथ्य यह है कि नौवीं और दसवीं शताब्दी के जैन ग्रंथों में मि‌हिरकुल को दुष्ट और जैन विरोधी अत्याचारी शासक बताया गया है। 

बौद्धों का उत्पीड़न कर ख्याति हासिल करने वाला एक और राजा शशांक था। 17वीं शताब्दी की शुरुआत में पूर्वी भारत पर उसका राज था। ह्वेनसांग के मुताबिक उसने बौद्ध मठों को तोड़ दिया और बोधि वृक्ष काट डाले। बोधगया में बुद्ध की शिव के अवतार के तौर पर छवि स्‍थापित करने की असफल कोशिश की। शशांक कन्नौज के शासक हर्षवर्धन का प्रतिद्वंद्वी था, जिसका झुकाव बौद्ध और शैव दोनों तरफ था। तो, क्या कटु राजनैतिक टकराव की पृष्ठभूमि में शशांक को बौद्धों के दुश्मन के तौर पर पेश किया गया था?

अगर हम धार्मिक उत्पीड़न के आरोपों को खारिज कर दें और इसे अतिश्योक्ति मान लें तो भी क्या ये हिंसक राजनैतिक टकराव की ओर इशारा नहीं करते? या क्या ये राजसी संरक्षण और मदद में कमी से पैदा आक्रोश का इजहार करते हैं? या क्या यह राजनैतिक संघर्षों को धार्मिक सांचे में ढालता है? इन सबमें राजा लिप्त थे इसलिए इसे राजनैतिक नजरिए से देखा जाना चाहिए, लेकिन धार्मिक उत्पीड़न पर उनकी धारणा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

फिर भी ये दृष्टांत दस्तूर की बजाय अपवाद हैं। शुरुआती काल में बड़े पैमाने पर धार्मिक हिंसा न होना शासक और धार्मिक क्षेत्र के बीच संबंधों का नतीजा है। जिस समय शिलालेखों में राजाओं ने धार्मिक प्रतिबद्धता की विस्तार से घोषणा की, उस वक्त वे अपनी सरपरस्ती का दायरा अलग-अलग वर्गों तक बढ़ा चुके थे। कोई धर्म ‘राजधर्म’ नहीं बन पाया। हालांकि, समय के साथ जब धार्मिक पहचान में कट्टरता बढ़ी और राजनैतिक संरक्षण बढ़ने लगा तो धार्मिक द्वेष की अभिव्यक्ति ज्यादा मुखर, प्रचंड और हिंसक हो गई। मसलन, हम वैष्‍णव, शैव, जैन और बौद्धों के बीच दक्षिण भारत में संघर्ष के बारे में सुनते हैं।

हम जानते हैं कि हिंदू शासक जीत की निशानी के तौर पर अपने शत्रुओं के मंदिर से मूर्तियां ले जाते थे। पल्लव शासक महेंद्रबर्मन (जिसके बारे में कहा जाता है कि शैव और जैन धर्म के बीच दुविधा में था) पर शैव और जैनियों पर जुल्म करने के आरोप हैं। शंकराचार्य की जीवनी दिग्विजय से तगड़ी धार्मिक प्रतिस्पर्धा का पता चलता है। ठोस साक्ष्य मिलीजुली तस्वीर पेश करते हैं।

एक तरफ, मध्ययुग की शुरुआत में शत्रु का संहार करते देवताओं में प्रतीकात्मक हिंसा की छवि दिखती है। दूसरी ओर, नालंदा जैसे बौद्ध स्‍थलों में हिंदू देवताओं की संसर्गलीन प्रतिमाएं मिली हैं। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि वास्तविक हिंसा, प्रतीकात्मक हिंसा, धार्मिक आडंबर और राजनैतिक विचारधारा के कारण हुई हिंसा के बीच फर्क किया जाए। लेकिन, यह आसान नहीं है।

हिंसा का लंबा ‌सिलसिला

यह महत्वपूर्ण है कि धर्म क्षेत्र के एक दायरे में अहिंसा की बहस काफी तेज थी मगर राजनैतिक दायरे में उसका असर बहुत मामूली था। कलिंग युद्ध के बाद युद्ध से तौबा कर लेने के कारण अशोक प्रसिद्ध हैं लेकिन, अन्य किसी भारतीय राजा ने उनका अनुसरण नहीं किया, चाहे वह बौद्ध रहा हो या किसी और मत का अनुयायी। इस बात पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि दुनिया के अन्य हिस्सों की तुलना में भारत में पुराने समय में सामाजिक और राजनैतिक जीवन में हिंसा का स्तर कम था। इसका कारण था राजनैतिक दायरे में अहिंसा के सिद्धांत का काफी असर न होना।

राजनैतिक-धार्मिक टकरावों के लंबे इतिहास में (मुख्य रूप से मध्ययुगीन भारत के संदर्भ में) दो प्रकार के दृष्टिकोण हैं। एक, ऐसे संघर्षों के अस्तित्व को नकार देना और दूसरे, इन्हें बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना। ये दृष्टिकोण या तो सांप्रदायिक सौहार्द्र को बढ़ाने या वर्तमान में सांप्रदायिक धुव्रीकरण के लिए गढ़े जाते हैं या फिर पुराने ऐतिहासिक तथ्यों को खारिज करने अथवा जायज ठहराने के लिए। लेकिन, ऐसे दृष्टिकोणों से परे इतिहास को नायकों और खलनायकों के नजरिए से देखकर भारतीय इतिहास के एक हिस्से के तौर पर विभिन्न प्रकार की हिंसा के रूप, संदर्भ, औचित्य और आलोचनाओं को समझने की कोशिश की जा सकती है।

इतिहास अतीत का वह हिस्सा है जो समाप्त हो चुका है। जब हमें इतिहास को समझने की जरूरत होती है और इससे भाग नहीं सकते तो हमें उसका दास नहीं बनना चाहिए। सदियों पहले हुई या न हुई घटनाओं को लेकर अलग-अलग समय, अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग दृष्टिकोणों से प्रतिक्रिया देनी चाहिए। इतिहास, सांस्कृतिक स्मृति और रचनात्मक धारणाओं के बीच अंतर होता है। अंततः समुदायों और हिंसा मुक्त राजनीति की हमारी आकांक्षा प्राचीन या मध्यकालीन इतिहास की चुनिंदा व्याख्या पर आधारित नहीं होनी चाहिए। इसे लोकतंत्र, आजादी, बराबरी और कानून के राज के आधुनिक सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए।

(लेखिका दिल्ली विश्‍वविद्यालय में इतिहास की प्रोफेसर, चर्चित किताब पॉलिटिकल वायलेंस इन एनसिएंट इंडिया इनकी कृति है)

 

 

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