अपने परिवेश के प्रति सजग कवि, कथाकार, रामदरश मिश्र की उपस्थिति का एहसास ही हिंदी जगत में एक आश्वस्ति पैदा करता है। सबसे बुजुर्ग रचनाकर्मियों में एक रामदरश जी की मौजूदा सामाजिक-राजनैतिक परिवेश के प्रति सजगता तो युवा पीढ़ी के रचनाकर्मियों को चुनौती देती लगती है। उनका नया कविता संग्रह रात सपने में कई ऐसे नए अनुभवों को समेटे हुए है जिनसे यथार्थ के बेहद चौंकाऊ पहलू खुलकर सामने आ जाते हैं। ‘रात सपने में’ कविता पाठक को आज की राजनैतिक सच्चाइयों से रू-ब-रू कराती लगती है। सपने में अचानक एक क्रूर तानाशाह आता है और कहता है, “तुम मेरे खिलाफ कविता क्यों लिखते हो?” और यह संदेश भी देखिए कि “ये कविता से नहीं मरते/इन्हें समूह में होकर मारना पड़ता है।”
ऐसी तीखी राजनैतिक अभिव्यक्ति बरबस रघुवीर सहाय की याद दिला देती है। एक और कविता ‘तू मुझे जानता है?’ में “आज वह फिर/विद्वानों की सभा में वाणी-विजय करके लौटा था/ ...वह सोचने लगा-वह यह भी जानता है।”
रामदरश जी के कथा साहित्य और कविताओं में गांव, किसान, जल, जमीन, परंपरा, संस्कृति का अनोखा स्वाद मिलता है। उनमें इस परिवेश के टूटन और बिखराव का एहसास भी गहरा है। मौजूदा संग्रह की कविताओं में भी यह एहसास पाठक को एक नए धरातल पर ले जाता है। लेकिन आज के दौर में गांव, नगर, लोग सब बदल रहे हैं। राजनीति, समाज सब करवट ले रहा है। यह सब इतनी तेजी से हो रहा है कि इसकी अनुभूतियां भी रचनाकर्म से छूटती जा रही हैं। इसीलिए यह बहस भी छिड़ गई है कि साहित्य में सन्नाटा है। लेकिन रामदरश जी की कविताएं बदलते यथार्थ के विभिन्न पहलुओं को अनूठे अनुभव के साथ पेश करती हैं।
संग्रह की छोटी कविताएं भी ऐसा भाव लेकर आती हैं जिससे आदमी की निजता के संदर्भ में भी नए पहलू उद्घाटित होते हैं। मसलन, प्रकृति की वह खुशबू भी अब पीछे छूटती जा रही है, जो अभी कुछ समय पहले तक अपने हर मौसम का एहसास करा जाती थी। ‘सावन’ कविता देखिए, “हर साल सावन को आना ही होता है/आ गया/...कंक्रीट के मकानों और सड़कों पर/पटपट पटपट का शोर बजता रहता है/....याद आता है/मैं मक्के के खेत में गड़ी मचान पर बैठा हूं/नंगे बदन/भीगी भीगी पुरवा।” मिट्टी की वह खुशबू बदली है तो किसान भी निरंतर तरह-तरह के संकटों में घिरता जा रहा है। ऐसे आफत के दिन आ गए हैं कि कोई राह न सूझने पर खुदकुशियों का दौर शुरू हो गया है। ऐसे आत्महंता दौर में रामदरश जी की कविताएं ही उस पीड़ा को उसके समग्र रूप में पकड़ सकती हैं। इस संग्रह की कई कविताएं इस संकट की ओर इशारा करती हैं। इनमें पुराने दौर की खुशनुमा यादें भी बसी हुई हैं जो मौजूदा संकट को और व्यापक बनाती हैं।
हालांकि इन कविताओं में निराशा का भाव कहीं नहीं मिलता। इसके बदले ये अनुभव भी एक नई आशा का संचार करते हैं। वसंत, फूलों, वनस्पतियों, पेड़-पौधों की खुशबू भी इन कविताओं में नए अनुभव के साथ खिलती है। इसके साथ शहर ही नहीं, ग्रामीण जीवन के बदलते स्वरूप में संबंधों और रिश्तों की संवेदना में आ रहे बदलावों पर भी कवि की तीखी नजर है।
ये कविताएं राजनीति के विस्तृत होते फलक को भी जाहिर करती हैं और यह भी गहरी संवेदना के साथ बताती हैं कि व्यक्ति की निजता में भी राजनीति की दखलंदाजी कैसे बढ़ती जा रही है। यह दखलंदाजी कई तरह की विद्रूपताएं पैदा कर रही है। राजनीति अब समाज के विभिन्न दायरों में ही विद्रूप ढंग से नहीं समाती जा रही है, बल्कि उसका दंश प्रकृति, पर्यावरण समेत समूचे परिवेश में दिखाई पड़ने लगा है। राजनीति की इन विद्रूपताओं के बरक्स गांधी की याद भी आती है जिन्होंने राजनीति को रचनात्मक कार्य में बदल दिया था।
हमारे दौर के सबसे बुजुर्ग रचनाकार की ये सशक्त अभिव्यक्तियां हमें नई सच्चाइयों से रू-ब-रू कराती हैं और सोचने पर विवश करती हैं। आज के दौर की कविताओं में ये खास अंदाज भर देती हैं। इसलिए बिलाशक यह संग्रह महत्वपूर्ण है। आशा है, बुजुर्ग कवि समाज की तमाम विद्रूपताओं और विसंगतियों पर और भी तीखी बहसें अपने रचनाकर्म के जरिए आगे लाते रहेंगे। उम्मीद यह भी की जानी चाहिए कि गांव के संकट पर उनसे और भी नए विचार पढ़ने को मिलेंगे।