बजट 2018 से मुझे खुशी हुई, क्योंकि कुछ वर्षों से मैं जिसकी वकालत कर रहा था, उसे पूरा किया गया है। इनवर्टेड ड्यूटी स्ट्रक्चर (आइडीएस) में सुधार किया गया है। यह दशकों से उत्पादन क्षेत्र में रोजगार को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा था। आइडीएस की समस्या फिनिश्ड/फाइनल गुड्स की तुलना में उनमें लगने वाले कंपोनेंट्स पर ज्यादा ड्यूटी लगने से जुड़ी है। इसमें फिनिश्ड/फाइनल गुड्स पर अक्सर कुछ योजनाओं के तहत सीमा शुल्क में छूट दे दी जाती है। उत्पादन क्षेत्र में सुस्ती के कारण सीमा शुल्क में व्यापक बढ़ोतरी की गई, जहां चीन निर्मित और अन्य आयातित सामान ने हमारे लघु और मझोले उद्योगों (एसएमई) और बड़ी उत्पादन कंपनियों को पीछे छोड़ दिया है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि 1991 से जीडीपी में उत्पादन क्षेत्र की हिस्सेदारी और खासतौर पर रोजगार में वृद्धि नहीं हुई है। नतीजतन, यह धारणा बन गई कि हमने इस क्षेत्र को चीन के लिए ‘एशिया और दुनिया की फैक्ट्री’ के तौर पर सौंप दिया है। यह स्थिति जल्द ही बदलनी चाहिए, ताकि एसएमई और कॉरपोरेट आधारित उत्पादन में विकास से प्रधानमंत्री के 'मेक इन इंडिया' के सपने को पूरा किया जा सके।
जीएसटी ने भारतीय बाजार में विदेशी निर्यातकों के फायदे को कम करना शुरू कर दिया है, जो उन्हें आइडीएस से मिल रहा था। वित्त मंत्री ने जुलाई 2014 के अपने बजट में पहले ही इलेक्ट्रॉनिक्स सामान के मामले में आइडीएस व्यवस्था को बदलने की घोषणा कर दी थी और तब से उसे जारी रखा। दुर्भाग्यवश कई क्षेत्रों पर आइडीएस का नकारात्मक प्रभाव जारी रहा।
चीन ने दो दशकों तक रणनीतिक रूप से औद्योगिक नीति को अपनाया और उसने उत्पादन निर्यात के श्रम सघन क्षेत्र में भारत पर बढ़त बना ली। भारत की ढांचागत नीतियां चीन की अपेक्षा सस्ती श्रम शक्ति का उपयोग करने में नाकाम रहीं, जबकि हम अपनी प्रचुर श्रम शक्ति का उपयोग इसके विकास में कर सकते थे। चीन ने उत्पादन क्षेत्र में अधिक से अधिक श्रम शक्ति को झोंककर अपने देश में गरीबों की संख्या कम करने में सफलता पा ली, जबकि भारत में गरीबी कम होने की दर काफी कम रही। इसकी बड़ी वजह यह नहीं है कि चीन का कृषि विकास और ग्रामीण आय की विकास दर भारत से अधिक है, बल्कि चीन भारत की तुलना में औद्योगिक रोजगार में तेज गति से सृजन कर रहा है। हालांकि, 2000 से 2011-12 तक निर्माण क्षेत्र में नौकरियां तेजी से बढ़ी हैं, लेकिन उत्पादन और रोजगार में वृद्धि उम्मीद के मुताबिक नहीं रही।
विश्लेषण से पता चलता है कि 2004-05 और 2011-12 के बीच उत्पादन क्षेत्र में नौकरियां कम हुईं, बल्कि 2011-12 के बाद यह नकारात्मक हो गईं। भारत में आधे से अधिक उत्पादन क्षेत्र में रोजगार में अधिकांशतः सघन श्रम आधारित उत्पादन क्षेत्र का योगदान होता है। अब इस बजट के बाद इस क्षेत्र को प्रोत्साहन मिलेगा। बजट में कैपिटल गुड्स और इलेक्ट्रॉनिक्स पर सीमा शुल्क बढ़ाया गया था। ये ऐसे क्षेत्र थे, जिन पर पिछले 10 वर्षों से आइडीएस की वजह से नकारात्मक असर पड़ रहा था।
मैंने एक प्रतिक्रिया सुनी कि बजट में सीमा शुल्क में वृद्धि 1991 से पहले के ‘संरक्षणवाद’ की वापसी है। यह गलत व्याख्या है। इसके दो कारण हैं। पहला, 1991 से 1998 के बीच दर में काफी तेजी से कमी की गई। खासतौर पर उत्पादन क्षेत्र के मामले में 1999 तक औसतन 150 से 40 फीसदी तक और 2007-08 में 10 फीसदी तक कम की गई। वर्ष 1990 तक भारतीय उत्पादन क्षेत्र काफी अधिक संरक्षित किया गया और जल्द ही विदेशी कंपनियों से होड़ में उनकी पोल खुल गई। सीमा शुल्क में धीरे-धीरे कटौती करने से उन्हें विदेशी कंपनियों से प्रतिस्पर्धा करने और तकनीक में सुधार लाने में मदद मिलती। ऐसा नहीं होने से उन्हें सस्ते आयातित सामान की वजह से नुकसान झेलना पड़ा, जिससे कई घरेलू छोटे, मझोले और बड़े उद्योग तबाह हो गए। लिहाजा, इन कंपनियों में नौकरियां भी खत्म हुईं।
वर्ष 2000 की शुरुआत में श्रम बल से जुड़ने वालों की संख्या में 2004-05 तक 12 लाख प्रति वर्ष के हिसाब से बढ़ोतरी हुई। उत्पादन क्षेत्र में रोजगार नहीं बढ़ रहा था, तो उन्हें सिर्फ कृषि या पारंपरिक सेवा से जुड़ा ही माना जाएगा। हालांकि, 2003-04 के बाद जीडीपी में बढ़ोतरी हो रही थी, तो गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार साढ़े सात लाख प्रतिवर्ष के हिसाब से बढ़ रहे थे। 2004-05 के बाद से संयोग से दो घटनाक्रमों ने श्रम बल में प्रवेश करने वालों की संख्या में तेजी से गिरावट से बचा लिया। पहला, 1990 के बाद से जनसंख्या वृद्धि में गिरावट आई। दूसरा, सर्वशिक्षा अभियान के बाद एजुकेशन सेस बढ़ने से बच्चों ने स्कूलों में दाखिला लिया और पढ़ाई जारी रखी।
हालांकि, श्रम शक्ति में दाखिल होने वाले लोगों की अपेक्षा ये लोग अधिक शिक्षित हैं। ऐसे में श्रमिक वर्ग में इनका कैसे इस्तेमाल होगा? वे खेतीबाड़ी का काम नहीं करना चाहते। निर्माण क्षेत्र का कठिन श्रम उन्हें आकर्षित नहीं करता है। वे निजी क्षेत्र में अच्छी तनख्वाह वाली नौकरियों या सरकारी नौकरी या फिर आधुनिक सेवाओं में काम करना चाहते हैं। लेकिन क्या उनके लिए इस तरह की नौकरियां तेजी से बढ़ रही हैं? इस बात को काफी गंभीरता से लेने की जरूरत है कि विभिन्न स्रोतों से प्राप्त हालिया डाटा (केंद्र सरकार के लेबर ब्यूरो का वार्षिक सर्वे, जिसका सैंपल साइज एनएसएस से अधिक है और जिसका मैंने और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ द इंडियन इकोनॉमी ने सावधानी से विश्लेषण किया है) से संकेत मिलता है कि श्रमिक वर्ग में रोजगार की तलाश करने वालों की संख्या की तुलना में रोजगार की वृद्धि दर कम है।
इन चार वर्षों में युवा श्रमिक वर्ग (15 और 29 वर्ष आयुवर्ग वाले) में बहुत तेजी से वृद्धि हुई। इसमें लगभग 40 लाख की वृद्धि हुई। इस तरह श्रम शक्ति में बढ़ोतरी स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की वजह से हो रही है। कृषि क्षेत्र में श्रमिकों की संख्या में लगातार कमी आ रही थी, लेकिन 2011-12 के बाद जब गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि में कमी आई तो कृषि क्षेत्र में भी श्रमिकों की संख्या में होने वाली गिरावट में तेजी से कमी आ गई।
सबसे अधिक चिंताजनक यह है कि 2004-05 और 2011-12 के बीच कृषि में युवाओं की संख्या में गिरावट (87 लाख से 61 लाख) आई थी, जबकि 2011-12 के बाद कृषि क्षेत्र में युवाओं की संख्या में व्यापक तौर पर बढ़ोतरी हुई। 2011-12 और 2015-16 के बीच कृषि में युवाओं की संख्या में 24 लाख तक की बढ़ोतरी हुई। इसमें भी 15 से 29 साल के श्रमिकों की संख्या 44 से 47 फीसदी रही।
मैन्युफैक्चरिंग में श्रम बल (संगठित और असंगठित) के साथ-साथ युवाओं की संख्या में गिरावट बताती है कि कैसे 2011-12 के बाद से रोजगार वृद्धि की रफ्तार कम हुई है। ऐसा लगता है कि 2011-12 के बाद से जीडीपी विकास में कमी आई है। जिन युवाओं को मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में मिलने वाली नौकरियों से फायदा हुआ, उन्हें 2011-12 के बाद ज्यादा नुकसान हुआ, क्योंकि मैन्युफैक्चरिंग में गिरावट आई।
2011-12 की तुलना में 2015-16 में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में नौकरीपेशा युवाओं की संख्या काफी कम हुई है। रोजगार पाने वाले युवकों की कुल आबादी में से मैन्युफैक्चरिंग में उनका हिस्सा 2004-05 और 2011-12 के बीच 14.5 से बढ़कर 16 फीसदी हो गया था, वह कम होकर 10.8 फीसदी पर पहुंच गया।
सेकेंडरी स्कूलों में 2010 से 2015 के बीच दाखिला लेने वालों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। दूसरे शब्दों में कहें तो जिस तरह युवाओं को अच्छी शिक्षा मिल रही है, उस हिसाब से बहुत कम को ही मैन्युफैक्चरिंग में नौकरी मिल पा रही है। ऐसा पिछले पांच वर्षों में मैन्युफैक्चरिंग में धीमी गति से विकास दर होने के कारण हो रहा है।
एक बात साफ है कि अर्थव्यवस्था के सिर्फ एक ही सेक्टर ने श्रम बल खासतौर पर युवाओं को रोजगार दिया है। वह है सर्विस यानी सेवा क्षेत्र। इसमें 2011-12 में 36 लाख युवा रोजगार में थे। 2015-16 में यह संख्या बढ़कर 52 लाख हो गई। वहीं, सेवा क्षेत्र में कुल रोजगार 127 लाख से बढ़कर 141 लाख हो गया। सेवाक्षेत्र में रोजगार न सिर्फ 2004-05 और 2011-12 के बीच बढ़ा, बल्कि 2011-12 और 2015-16 में भी बढ़ोतरी हुई।
कुल मिलाकर सर्विस क्षेत्र में रोजगार बढ़ा है, लेकिन यह भी साफ है कि पारंपरिक सेवा क्षेत्र में काफी धीमी गति से वृद्धि हो रही है। यह स्वागतयोग्य है कि 2004-05 से 2015-16 की पूरी अवधि के दौरान आधुनिक सेवाओं ने अधिक गतिशीलता दिखाई है। इन आधुनिक सेवा/सब सेक्टर में मोटर वाहन की बिक्री/रखरखाव, होटल और रेस्तरां, हवाई यातायात, डाक और दूरसंचार, वित्तीय लेनदेन, बीमा और पेंशन फंडिंग, कंप्यूटर और उससे जुड़ी गतिविधियां तथा शोध एवं विकास आते हैं। इसके अलावा, शिक्षा और स्वास्थ्य में भी व्यापक वृद्धि हुई है। वह भी स्वास्थ्य की तुलना में शिक्षा में अधिक वृद्धि हुई। हालांकि, सभी में बढ़ोतरी ज्यादातर निजी क्षेत्र में हुई।
केंद्र या राज्य सरकारों का बजट बनाते समय नीति-नियंताओं और वित्त मंत्रियों के लिए एक अहम सबक वह है, जिसे प्रधानमंत्री ने ‘कम, मेक इंन इंडिया’ अभियान शुरू करते वक्त समझा था। हालांकि, सभी नीति-नियंताओं को अर्थव्यवस्था का सिद्धांत याद रखना चाहिए कि सिर्फ देसी या विदेशी उत्पादकों को प्रोत्साहन देने भर से भारत अचानक मैन्युफैक्चरिंग का हब नहीं बन जाएगा। इसके लिए कुछ हद तक सस्ते उत्पादों के आयात की छूट पर अंकुश लगाने की जरूरत है। जैसा कि 2014 के बाद से बजट में इलेक्ट्रॉनिक्स सामान के मामले में किया गया और उसके नतीजतन देसी इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग को बढ़ावा मिला। अब अंततः कई क्षेत्रों में ऐसा किया गया है। जीएसटी (खासतौर पर, अंतरराज्यीय जीएसटी या आइजीएसटी कंपोनेंट) ने आइडीएस को निष्प्रभावी किया।
कंपनियों पर कर्ज के बोझ और बैंकों के डूबत कर्ज से कर्ज देने की हालत में न रहने की ट्विन-बैलेंसशीट समस्या के निपटारे के प्रति ध्यान और इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड लागू होने से नए मैन्युफैक्चरिंग निवेश के लिए दरवाजा खुलना चाहिए। बेशक, यह सिर्फ देसी कंपनियों के मामले में ही नहीं होना चाहिए।
2003-04 और 2013-14 के बीच जीडीपी में 7.9 प्रतिशत की वृद्धि की एक महत्वपूर्ण वजह ग्रामीण और शहरी मांग में बढ़ोतरी का होना है, क्योंकि कृषि क्षेत्र में जान लौटने से वास्तविक मजदूरी बढ़ी। साथ ही, निर्माण, मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र में नौकरियां बढ़ने से ग्रामीण श्रम बाजार सीमित हुआ। वह अच्छा दौर पहले ही गुजर चुका है। कंज्यूमर डिमांड और सप्लाई के फर्क को पाटे बगैर न तो जीडीपी में वृद्घि होगी, न ही नौकरियां बढ़ेंगी। बजट 2018 में कृषि विकास के साथ-साथ मैन्युफैक्चरिंग नीतियों पर फोकस 2018 के आगे भी जारी रहना चाहिए।
(लेखक जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और द सेंटर फॉर लेबर के चेयरपर्सन हैं)