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नानी की विरासत खुशी से उठाना चाहूंगी, अपने अंदाज में

राइमा सेन ने जब चोखेर बाली (2003) से आलोचकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया तब राइमा की तुलना उनकी नानी और दिग्गज अदाकारा सुचित्रा सेन (1931-2014) से होना लाजिमी था। इसमें कोई शक नहीं कि राइमा ने उम्मीदों का पहाड़ खड़ा कर दिया था। धीरे-धीरे राइमा खुद की ‘सोच’ वाली अभिनेत्री के रूप में विकसित हुईं। उन्होंने हिंदी और बांग्ला में अर्थपूर्ण सिनेमा लगातार में कई साल लगाए। गिरिधर झा के साथ बातचीत में उन्होंने कॅरिअर, फिल्म, अभिनेत्री मां मुनमुन सेन की राजनीतिक यात्रा और इन सबके साथ इस पर भी बात की कि आखिर क्यों महान अदाकारा उनकी नानी ने लोकप्रियता के शिखर पर एकांतवासी होना चुना। इंटरव्यू के चुनिंदा अंशः
राइमा सेन

-पहली फिल्म गॉड मदर (1999) से शुरू हुई हिंदी फिल्मों की यात्रा कैसी रही? कॅरिअर के शुरुआती दिनों में आपने चोखेर बाली में जिस तरह अपनी अदाकारी से आशा जगाई थी उससे लगा था, आप ‘टॉप लीग’ में पहुंचेंगी?

एक व्यक्ति के रूप में और कलाकार के रूप में मैं अपनी यात्रा से बहुत खुश हूं, फिर भले ही वह हिंदी फिल्म जगत ही क्यों न हो। मुझे लगता है, मैं भाग्यशाली हूं। मैं हर वो चीज नहीं कर सकती जो मेरे सामने आए। मैंने हर तरह के उतार-चढ़ाव का अनुभव किया है। बांग्ला फिल्मों में आने से पहले मैंने हिंदी सिनेमा में काम शुरू कर दिया था। लेकिन वे फिल्में मुझे कहीं नहीं ले गईं। किसी ने मेरे काम पर ध्यान नहीं दिया जब तक रितुपर्णो घोष ने मुझे चोखेर बाली में मौका नहीं दिया। उस फिल्म ने मेरे पूरे कॅरिअर की दिशा बदल दी और अचानक लोगों का ध्यान मुझ पर चला गया। मैं निर्देशक की कलाकार हूं और हर दिन कुछ नया सीखती हूं। मुझे लगता है मैं सौभाग्यशाली रही कि मैंने ऐसे लोगों के साथ काम किया जो मुझे लगातार मजबूत करते चले गए। अलग तरह का काम करने का मुझे कोई रंज नहीं है। बल्कि मैं हर दिन को नए अवसर की तरह लेती हूं।

-बहुत-सी ऐसी भूमिकाएं हैं जिनकी आलोचकों ने दिल खोल कर सराहना की है। उनमें से कौन-सी भूमिकाओं से आपको गर्व और संतुष्टि का अनुभव होता है?

मैंने गॉड मदर से शुरुआत की थी। वह मेरे लिए खास है क्योंकि इसी से इंडस्ट्री में मेरा पदार्पण हुआ। इस फिल्म को बहुत सारे अवॉर्ड्स मिले। मैं परिणीता (2005), दस (2005), मनोरमा सिक्स फीट अंडर (2007), मिर्च (2010), चिल्ड्रन ऑफ वॉर (2014) और बॉलीवुड डायरीज (2016) को भी गर्व के साथ याद करती हूं। जहां तक बांग्ला सिनेमा का सवाल है, चोखेर बाली मेरी अब तक की श्रेष्ठ फिल्म है। जबकि मैंने अंतर महल (2005), द बॉन्ग कनेक्शन (2006), द जैपनीज वाइफ (2010), नौका डूबी (2011), भीषे स्राबन (2011) और हृद मझारे (2014) जैसी फिल्में भी कीं जिनसे कलाकार के तौर पर मुझे बहुत संतुष्टि मिली।

-आप ज्यादातर छोटे बजट, अलग तरह की फिल्मों का हिस्सा रही हैं, बड़े बजट की फिल्मों को लेकर आपका निर्णय स्पष्ट था लेकिन मेनस्ट्रीम सिनेमा आपने जानबूझ कर किया?

मैं हर तरह का सिनेमा पसंद करती हूं। किसी भूमिका को निभाने के लिए कई कारक होते हैं। खासकर तब जब किसी प्रोजेक्ट पर निर्णयात्मक कदम उठाना हो। इनमें स्क्रिप्ट और निर्देशक सबसे महत्वपूर्ण है। मैं स्क्रिप्ट को हमेशा बजट से ऊपर रखती हूं। मैं अच्छी और मनोरंजक फिल्मों में काम करना चाहती हूं न कि बड़ी फिल्मों में। यदि अच्छी और मनोरंजक फिल्म व्यावसायिक हो जाए तो इससे बड़ी खुशी क्या होगी। पहले अक्सर व्यावसायिक फिल्मों की कहानी कमजोर होती थी। धीरे-धीरे इनमें भी अच्छी सामग्री आ रही है और इनमें वास्तविक मुद्दों पर बात की जा रही है। जैसे टॉयलेट : एक प्रेम कथा (2017) ने व्यावसायिक सफलता की परिभाष बदल दी। कई सारी मध्यम बजट वाली अलग तरह की फिल्में आ रही हैं। इनमें सैराट (2016) भारी व्यावसायिक सफलता वाली फिल्म साबित हुई।

सुचित्रा सेन देवदास में

-आप महान अदाकारा सुचित्रा सेन की नातिन हैं। अक्सर कहा जाता है, आपमें उनकी उत्तराधिकारी होने की संभावना है। एक कलाकार के तौर पर यह तुलना फायदेमंद रही या नुकसानदेह। इस तरह की उम्मीदों के साथ क्या यह कुछ हद तक डराने वाला होता है?

मैंने कुछ लोगों को कहते सुना है कि मैं उनकी तरह दिखती हूं। मुझे अच्छा लगता है लेकिन उसी वक्त मुझे महसूस होता है कि उम्मीदों का बड़ा दरिया है जिसे मुझे भरना है। जब मैंने काम शुरू किया था, तो मैंने नानी और मां से अपनी तुलना का दबाव खुद पर हावी कर लिया था। मेरी नानी अभूतपूर्व थीं और परिवार के सदस्य होने के नाते हम उन पर बहुत गर्व करते हैं। वह मां, मेरे और मेरी बहन रिया (अभिनेत्री रिया सेन) के लिए सतत प्रेरणा का स्रोत थीं। इंडस्ट्री में मेरे कॅरिअर के शुरुआती दिनों में किस तरह के प्रोजेक्ट का चयन करना है, कैसे एक ही तरह के रोल करने से बचना है, कैसे शेड्यूल ठीक रखना है जैसी सलाह मुझे वही देती थीं। इस तरह की सलाह मेरे लिए बहुत ही फायदेमंद थी।

हालांकि इस वसीयत की उत्तराधिकारी हो कर मुझे खुशी ही होगी फिर भी मैं महसूस करती हूं कि हर व्यक्ति अलग होता है। मैं इसमें अपने व्यक्तित्व का अंश भी जोड़ना चाहती हूं, ठीक उनकी तरह। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था कि जो भी भूमिकाएं उन्होंने निभाईं वह उन्हीं की हो गईं। इस वजह से दर्शक उनसे ज्यादा जुड़ाव महसूस कर पाए। हालांकि मैं सिर्फ अपने पुराने परफॉर्मेंस से ही खुद की तुलना करती हूं और कॅरिअर की सफलता-असफलता के लिए खुद को जिम्मेदार मानती हूं।    

-आपके बचपन की यादें और अपनी नानी के साथ आपका रिश्ता कैसा था?

यदि मैं कहूं कि मैं एक सामान्य बच्ची थी तो कोई भी विश्वास नहीं करेगा। हमारा परिवार अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ था। बहन और मेरी स्कूलिंग किसी सामान्य बच्चे की तरह ही हुई। गर्मियों की छुट्टियों में परिवार के साथ बाहर जाना आम बात थी। मैं लोरेटो स्कूल में पढ़ी हूं। हमारे माता-पिता ने कभी हमें वह हवा ही नहीं लगने दी जिससे हम अलग तरह का महसूस करते। बच्चे के तौर पर बस एक ही बात अलग हो सकती है, मां और नानी के साथ फिल्मों के सेट्स पर जाना।

नानी से जुड़ाव बहुत खास था। अपनी परेशानी कम करने के लिए हर छोटी से छोटी बात उनसे साझा करना मेरी आदत थी। वह भी चाहती थीं कि वह अपने शानदार अनुभव और जानकारी से अच्छी सलाह दें। वह बहुत ही ज्यादा प्यार करने वाली थीं।

-जब आपकी नानी लोकप्रियता के चरम पर थीं उन्होंने चमक-दमक की दुनिया से खुद को दूर कर लिया। उन्हें पूर्व की ग्रेटा गार्बो कहा जाता था। कहा जाता है कि उन्होंने दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड लेने से भी इनकार कर दिया था। इसके कुछ दिनों बाद ही उनका निधन हो गया। उनके इस निर्णय को आप कैसे देखती हैं?

दीदा (नानी) को बहुत सारे अवॉर्ड मिले थे। सप्तपदी (1961) के लिए मास्को अंतरराष्ट्रीय फिल्म उत्सव में उन्हें 1963 में श्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला था। यह अवॉर्ड पाने वाली वह पहली भारतीय अभिनेत्री थीं। 1972 में उन्हें पद्मश्री दिया गया। उन्हें पश्चिम बंगाल सरकार का सबसे बड़ा पुरस्कार बंग बिभूषण भी मिला था। 25 साल से ज्यादा के अपने विलक्षण कॅरिअर में लगभग 60 फिल्मों में काम करने के बाद उन्होंने तय किया कि वह फिल्म से संन्यास लेंगी। वह बहुत ही आध्यात्मिक किस्म की थीं। संभव है उनके एकांतवासी होने के पीछे एक कारण यह भी रहा हो। एक व्यक्ति के तौर पर मैं उनके निर्णय का आदर करती हूं। मेरा मानना है कि हर व्यक्ति जैसा चाहता है उसे वैसा जीने का अधिकार है।

-नानी की फिल्मी यात्रा पर क्या मानना है। खासकर उन बांग्ला फिल्मों के बारे में जो उन्होंने उत्तम कुमार के साथ कीं या फिर देवदास (1955), बॉम्बे का बाबू (1960), ममता (1966) और आंधी (1975) जैसी अनमोल हिंदी फिल्में। आज यदि उनकी किसी फिल्म का रीमेक बने तो वह कौन-सी भूमिका होगी जो आप निभाना चाहेंगी?

उनकी फिल्मी यात्रा बेमिसाल है। सुचित्रा सेन और उत्तम कुमार को जोड़ी के रूप में उतारने वाली पहली फिल्म शारे छोत्तर (1953) को आज भी याद किया जाता है। दीदा ने उत्तम कुमार के साथ तकरीबन 30 फिल्मों में काम किया होगा। उनमें से कुछ हिट थीं। जैसे अग्नि परीक्षा (1957), गृह प्रबेश (1954), इंद्राणी (1958), जीबन तृष्णा (1957) और हर मन हर (1972)। सभी टाइमलेस क्लासिक्स हैं। इन्हें आज भी देखा और सराहा जाता है। दूसरी फिल्मों में दीप जले जाई (1959), उत्तर फाल्गुनी (1963) और सात पाके बंधा (1963) देखकर आज भी मेरे रोएं खड़े हो जाते हैं।

देवदास के लिए उन्हें श्रेष्ठ अभिनेत्री अवॉर्ड के लिए नामांकित किया गया था। वह उनकी पहली हिंदी फिल्म थी। आंधी और ममता ऑल टाइम क्लासिक साबित हुईं। यदि मुझे मौका मिले तो मैं उनकी बांग्ला फिल्म सूर्य तोरण (1958) का रोल करना चाहूंगी। यह रूस की प्रसिद्ध उपन्यासकार, दर्शनशास्‍त्री, पटकथा लेखिका ऐन रैंड के उपन्यास द फाउंटेनहेड पर आधारित थी। दीदा ने इस फिल्म में बहुत ही खूबसूरती से डॉमिनिक की भूमिका निभाई थी।    

चुनावी मंचः मां मुनमुन सेना का प्रचार करतीं राइमा और रिया सेन

-सत्यजीत राय से लेकर रितुपर्णों घोष तक ने बांग्ला सिनेमा को उन्नत विरासत दी है। इतने सालों में बांग्ला फिल्म उद्योग की उन्नति को आप कैसे देखती हैं?

‘क्षेत्रीय सिनेमा’ के दिन लद गए। अब यह ‘क्षेत्रीय भाषाई सिनेमा’ है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराहा जा रहा है। बॉलीवुड फिल्मों के पास बांग्ला सिनेमा की तुलना में ज्यादा दर्शक हैं। इसलिए उनकी दर्शक संख्या और हर जगह प्रदर्शन के मौके और उससे मिलने वाला मुनाफा कम है। मैं बंगाली हूं। कोलकाता में पली-बढ़ी। मेरी नानी और मां ने बांग्ला और हिंदी फिल्म उद्योग में काम किया। हालांकि मेरा कॅरिअर हिंदी फिल्म से शुरू हुआ लेकिन टर्निंग पॉइन्ट बांग्ला फिल्म चोखेर बाली साबित हुई। मैं खुश हूं और खुद को भाग्यशाली समझती हूं कि मैंने सभी अच्छे बांग्ला निर्देशकों के साथ काम किया।  

एक वक्त ऐसा भी था जब बांग्ला फिल्म जगत में कोई भी फार्मूला और नई योजना काम नहीं कर रही थी। लेकिन अब हम दोबारा पटरी पर हैं और हर निर्देशक नई कहानी कहना चाहता है। अब यहां भी ऐसे निर्माता हैं जाे बांग्ला फिल्मों पर चार करोड़ से ज्यादा खर्च करना चाहते हैं। मार्केटिंग और प्रमोशन अलग से। मेरा विश्वास है कि उद्योग की उन्नति के लिए बजट मायने रखता है। अब बांग्ला फिल्म उद्योग सिर्फ बांग्ला भाषियों को ही नहीं बल्कि गैर बांग्ला भाषी लोगों को भी साथ ले कर चल रहा है।

-उन प्रोजेक्ट के बारे में बताइए जिनकी आप उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही हैं?

हर प्रोजेक्ट मेरे दिल के करीब है क्योंकि मैं काम को लेकर बहुत सिलेक्टिव हूं। वोदका डायरीज और कुलदीप पटवाल आ चुकीं। 3 देव और इश्क कभी करियो ना आने वाली है। निर्देशक राणा भाटिया हैं। अगले साल वाराणसी है। बांग्ला फिल्म सितारा भी कतार में है। फिलहाल मैं चर्नी गांगुली की फिल्म तारीख कर रही हूं। इसके अलावा बांग्लादेशी प्रवासियों पर बन रही फिल्म कर रही हूं। यह वास्तविक घटना पर आधारित है।

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