महाराष्ट्र देश के उन राज्यों में है जहां राष्ट्रपति शासन बहुत कम लगा है। 12 नवंबर को राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की सिफारिश को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने जब मंजूरी दी, तो ऐसा तीसरी बार हुआ कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा। इससे पहले 1980 में 112 दिनों के लिए 17 फरवरी से 8 जून तक राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। उस वक्त शरद पवार मुख्यमंत्री थे। उसके बाद 35 दिनों के लिए 2014 में 28 सितंबर से 31 अक्टूबर तक राष्ट्रपति शासन लगाया गया था। लेकिन इस बार लगे राष्ट्रपति शासन ने राज्य में पूरे विपक्ष को एकजुट कर दिया है। हाल ही में भाजपा का साथ छोड़ने वाली शिवसेना तो फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है।
शिवसेना नेता अनिल परब का कहना है, “विधायकों का समर्थन पत्र देने के लिए पार्टी ने राज्यपाल से तीन दिन का समय मांगा था, लेकिन उसकी मंजूरी नहीं मिली। ऐसे में हमारे पास कोर्ट जाने के अलावा कोई चारा नहीं था।” कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा, “एक बार फिर साबित हो गया है कि राज्यपाल, केंद्र सरकार के इशारों पर काम करते हैं। वह भाजपा की इच्छा के अनुसार फैसले लेते हैं। कर्नाटक में भाजपा की सरकार बन जाए, इसके लिए राज्यपाल दो से तीन हफ्ते तक इंतजार करते रहे, जबकि हमें केवल 24 घंटे का वक्त दिया। जब शिवसेना ने 24 अक्टूबर को ही साफ कर दिया था कि वह भाजपा के साथ मिलकर सरकार नहीं बनाएगी, तो राज्यपाल महोदय ने 9 नवंबर तक क्यों इंतजार किया?” राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद नई सरकार की क्या संभावनाएं हैं, इस पर लोकसभा के पूर्व सेक्रेटरी जनरल पी.डी.टी. अचारे का कहना है कि राज्यपाल ने विधानसभा भंग नहीं की है। राजनीतिक दल राज्यपाल के सामने सरकार बनाने का दावा पेश कर सकते हैं। राष्ट्रपति शासन के बाद राज्य में संवैधानिक संकट के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट के वकील डी.के. गर्ग का कहना है कि ऐसी कोई स्थिति नहीं है। अगर किसी राजनीतिक दल को लगता है कि उसके पास बहुमत है, तो वह राज्यपाल के पास दावा पेश कर सकता है। अगर कोई पार्टी राज्यपाल को संतुष्ट कर देती है तो निश्चित तौर पर राज्यपाल उसे सरकार बनाने का मौका दे सकते हैं। जहां तक सुप्रीम कोर्ट में शिवसेना की याचिका की बात है, तो मुझे लगता है कि कोर्ट भी उनसे यही बात कहेगा।
लेकिन वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह का कहना है कि राज्यपाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के दबाव में राष्ट्रपति शासन लगाया है। संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति के पास किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का अधिकार है। अगर राज्यपाल को लगता है कि राज्य में संवैधानिक संकट खड़ा हो गया है या कोई भी दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है, तो वह केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट भेजता है। इस पर कैबिनेट अपनी अनुशंसा राष्ट्रपति को भेजती है।
एनडीए में ऐसे मोहभंग की शिकार हुई शिवसेना
1984 : भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की शिवसेना के तत्कालीन प्रमुख बाल ठाकरे के साथ तालमेल पर सहमति बनी। उसी साल चुनाव में शिवसेना के प्रत्याशी भाजपा के चुनाव चिन्ह पर मैदान में उतरे। दोनों दलों ने राज्य में हिंदुत्व की भावनाओं को खूब उभारा, लेकिन कोई सीट नहीं मिली।
1989 : भाजपा और शिवसेना ने औपचारिक गठबंधन किया और लोकसभा चुनाव लड़ा। राज्य की 48 लोकसभा सीटों में से भाजपा 22 सीटों पर लड़ी जबकि शिवसेना छह सीटों पर। हिंदुत्व के मुद्दे पर जुड़े होने के कारण मतदाताओं ने दोनों में कभी अंतर करके नहीं देखा।
1990 : विधानसभा चुनाव में 288 सीटों में से शिव सेना ने 183 सीटों पर चुनाव लड़कर 42 सीटें जीतीं, जबकि भाजपा ने 105 सीटों पर लड़कर 42 पर विजय पाई। विचारधारा के नाम पर एकजुट होने के बावजूद आपसी स्पर्धा बनी रही। नेता प्रतिपक्ष के लिए भी खींचतान हुई।
1995 : बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद हुए ध्रुवीकरण का भाजपा-शिवसेना गठबंधन को फायदा मिला और वह पहली बार सत्ता में आई। मुख्यमंत्री पद विधायकों की संख्या के आधार पर तय हुआ। शिवसेना को 73 और भाजपा को 65 सीटें मिली थीं। इस तरह मुख्यमंत्री पद शिवसेना के मनोहर जोशी को मिला।
1999 : कड़ी सौदेबाजी के बाद शिवसेना ने विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए 12 और सीटें छोड़ दीं। इस तरह भाजपा ने 117 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन गठबंधन बहुमत से पीछे रह गया। शिवसेना को 69 और भाजपा को 56 सीटें मिलीं। 1999 के बाद 15 साल तक गठबंधन सत्ता से बाहर रहा। बाल ठाकरे भाजपा को कमलबाई कहकर मजाक करते थे और कहते थे कि शिवसेना के कारण ही राज्य में कमल खिल रहा है।
2004 : चुनाव के बाद प्रभावशाली शिवसेना नेता और पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे दर्जन भर विधायकों के साथ कांग्रेस में चले गए। शिवसेना ने 62 और भाजपा ने 54 सीटें जीतीं, लेकिन एक दर्जन विधायकों के चले जाने के बाद पहली बार शिवसेना विधायकों की संख्या भाजपा से कम रह गई। भाजपा ने नेता प्रतिपक्ष के पद पर दावा किया लेकिन वह सफल नहीं रही।
2009 : पहली बार भाजपा शिवसेना से ज्यादा सीटें जीतने में सफल रही। भाजपा को 44 और शिवसेना को 42 सीटें मिलीं। इस बार भाजपा नेता प्रतिपक्ष का पद पाने में सफल रही। यहीं से शिवसेना में भाजपा के प्रति नाराजगी और असंतोष पैदा होने लगा।
2014 : सीटों के बंटवारे पर सहमति नहीं बनी तो दोनों दलों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। भाजपा 122 सीटें पाने में सफल रही जबकि शिवसेना 63 पर सिमट गई। शिवसेना ने चुनाव बाद भाजपा से हाथ मिलाया तो जूनियर पार्टी के तौर पर उसे एक दर्जन मंत्री पद मिल गए, लेकिन उन्हें कम महत्व वाले विभाग मिले थे।
2019 : शिवसेना की सीटें घटकर 56 रह गईं, जबकि भाजपा 122 से घटकर 105 पर आ गई। चुनाव से पहले हुई बातचीत के आधार पर शिवसेना का कहना है कि 50:50 फॉर्मूले के तहत ढाई साल के लिए उनका मुख्यमंत्री होना चाहिए। भाजपा का कहना है कि बराबर हिस्सेदारी का आशय मंत्रिपद में 50:50 भागीदारी और निर्णयों में समान भूमिका से था।