श्रीनगर के छात्र अन्वेष कोले ने ऑनलाइन कक्षाएं लेने वाले एक टीचर को खत लिखा, “मुझे स्कूल के टीचर से आपके लेक्चर की जानकारी मिली। मैं मार्च 2020 से आपके क्लास में आ रहा हूं। इससे मुझे नई प्रेरणा मिली है। इसके बदले धन्यवाद बहुत छोटा शब्द होगा। मेरे जीवन के अंधियारे में आप रोशनी और शक्ति स्तंभ की तरह हैं। मैं तहे दिल से आपको शुक्रिया अदा करता हूं।” पंजाब के बठिंडा में रहने वाले 45 साल के संजीव कुमार को पिछले साल दिसंबर में जब हाथ से लिखा यह पत्र मिला तो उनकी आंखों में आंसू भर आए। संजीव दो दशक से केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक हैं। वे अन्वेष के ही नहीं, बल्कि कतर, दुबई और नैरोबी के अनेक छात्रों के भी हीरो हैं।
गणित के शिक्षक संजीव पिछले साल मार्च से ही 3,500 से अधिक छात्रों के लिए ऑनलाइन क्लास आयोजित कर रहे हैं। आठवीं से 12वीं तक के छात्रों के लिए ये कक्षाएं मुफ्त होती हैं। हालांकि संजीव को इन पर हर महीने करीब 20,000 रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं। संजीव की तरह और भी शिक्षकों ने नए तरीके अपनाए हैं ताकि बच्चों की पढ़ाई जारी रहे।
लेकिन यह तो अधूरी कहानी है। अब तक की सबसे जानलेवा महामारी जब दूसरे साल में प्रवेश कर चुकी है, तब बच्चों को अपने छात्र जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजरना पड़ रहा है। वे दोस्तों, स्कूल और हर तरह की बाहरी गतिविधियों से कट गए हैं। विशेषज्ञ छात्रों पर इसके भावनात्मक और शारीरिक प्रभाव की चेतावनी दे चुके हैं। बच्चों के व्यवहार में भी बदलाव हो रहा है।
तमिलनाडु के एक गांव में मचान पर बैठकर ऑनलाइन क्लास करते छात्र
यूनिसेफ का अनुमान है कि 2020 से महामारी और लॉकडाउन के चलते भारत में करीब 15 लाख स्कूल बंद हैं। प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों के करीब 24.7 करोड़ बच्चे इससे प्रभावित हुए हैं। छात्र घर से ही पढ़ाई कर रहे हैं। वे हमेशा मोबाइल फोन या लैपटॉप से चिपके रहते हैं। दोस्तों या टीचर से बातचीत न होने के कारण उनका व्यक्तित्व विकास प्रभावित हो रहा है।
इससे भी अधिक चिंता की बात शहर और गांव का अंतर है। देश के चार में से सिर्फ एक बच्चे के पास डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट कनेक्शन है। दुर्भाग्यवश इनमें से ज्यादातर शहरों में रहते हैं। चाइल्ड फंड इंडिया एनजीओ के सर्वे के मुताबिक अतिरिक्त मदद के बिना करीब 64 फीसदी ग्रामीण बच्चों की पढ़ाई छूट जाने का डर है। ऑनलाइन क्लास आयोजित करने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने और शिक्षकों को प्रशिक्षित करने जैसे प्रयास हुए, लेकिन अभी अनेक सवालों का जवाब मिलना बाकी है।
शिक्षाविदों का कहना है कि अमीर-गरीब और गांव-शहर का अंतर तथा स्कूल न जाने का गहरा असर होगा। अधिक से अधिक इंटरएक्टिव ऑनलाइन कक्षाएं आयोजित करके ही इससे निपटा जा सकता है। तकनीक से वंचित करोड़ों बच्चे पीछे रह जाएंगे। यह खालीपन उन्हें ताउम्र सालता रहेगा।
ग्लोबल क्लासरूम
संजीव की तरह देश में अनेक शिक्षक हैं जो ट्यूशन क्लास के रूप में बढ़ते व्यवसायीकरण को चुनौती दे रहे हैं। वे अभिभावकों के दर्द को समझते हैं और कोचिंग इंस्टीट्यूट के ट्रेंड के खिलाफ जाकर काम कर रहे हैं। माता-पिता बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए इन कोचिंग इंस्टीट्यूट को मुंहमांगी रकम देने को तैयार रहते हैं। लेकिन अब अनेक अभिभावक मुफ्त ऑनलाइन ट्यूटोरियल की तरफ मुड़ रहे हैं। संजीव कहते हैं, “मुझे नहीं मालूम था कि एक छोटा सा प्रयास दुनियाभर के बच्चों को जोड़ देगा। मैं बच्चों के लिए कम से कम इतना तो कर ही सकता हूं। कई बार भाषा की दिक्कत आती है। तमिलनाडु के बच्चे ज्यादा अंग्रेजी चाहते हैं तो उत्तर प्रदेश के बच्चे ज्यादा हिंदी। लेकिन गणित में सब कुछ आंकड़ों का खेल है इसलिए काम चल जाता है।”
ब्लैकबोर्ड और चॉक के आदी शिक्षक भी अब पढ़ाने के लिए टेक्नॉलॉजी अपना रहे हैं। बुलंदशहर स्थित विद्याज्ञान लीडरशिप अकादमी के प्रिंसिपल विश्वजीत बनर्जी कहते हैं, “शिक्षा में टेक्नोलॉजी के हस्तक्षेप को मैं विशाल अवसर के रूप में देखता हूं। शुरू में कुछ शिक्षक इसका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे थे, लेकिन अब उन्होंने भी सीख लिया है। महामारी ने छात्रों, शिक्षकों और मैनेजमेंट सबको दिखा दिया कि शिक्षा में टेक्नोलॉजी का हस्तक्षेप बहुत महत्वपूर्ण है।”
फिर भी बहुत चीजों की कमी तो खलती ही है। जैसे, बच्चे न फुटबॉल खेल पाते हैं न किसी परिचर्चा में भाग ले सकते हैं। वे नोटबुक और लंचबॉक्स साझा नहीं कर सकते। बेंगलूरू की क्राइस्ट यूनिवर्सिटी की बीकॉम द्वितीय वर्ष की छात्रा अनीशा सत्पथी शिक्षा को देखने और महसूस करने की चीज मानती हैं। वे कहती हैं, “ऑनलाइन पढ़ाई तो मजबूरी है। एक के बाद एक अध्याय पढ़ना और शिक्षकों को सुनना ही पढ़ाई नहीं। स्कूल या कॉलेज जाते हैं तो हम बहुत सारी चीजें सीखते और समझते हैं।” पुणे में रहने वाली दो बेटियों की मां मृदुला सिंह कहती हैं, “स्कूलों ने टेक्नॉलॉजी के डर पर तो विजय पा लिया है, अब पूरे सिस्टम पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। पढ़ाने के तरीके में नयापन लाने और बच्चों के साथ ज्यादा अनौपचारिक तरीके से काम करने की जरूरत है। अभिभावकों के डर से बच्चे स्क्रीन के सामने उनींदे होकर बैठे रहते हैं या शिक्षकों के लेक्चर सुनते हैं, जबकि उसमें उनकी जरा भी रुचि नहीं होती।”
शहर बनाम गांव
स्कूल या घर, पंजाब ने संभवतः इस दुविधा से पार पा लिया है। होशियारपुर में सरकारी स्कूल टीचर रविंदर कौर कहती हैं कि प्रदेश के ग्रामीण स्कूल दो तरीके से काम कर रहे हैं। जिनके पास स्मार्टफोन हैं वे बच्चे ऑनलाइन क्लास करते हैं। जिनके पास स्मार्टफोन नहीं हैं वे स्कूल आते हैं या उनके अभिभावक नोटबुक छोड़ जाते हैं, जिसमें शिक्षक असाइनमेंट लिख कर दे देते हैं।
पंजाब में एक और बात देखने को मिल रही है। निजी स्कूलों से छात्र सरकारी स्कूलों में जा रहे हैं। अप्रैल के पहले हफ्ते में करीब 33,000 बच्चे निजी स्कूलों से सरकारी स्कूलों में गए। राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक महामारी के दौरान लगभग 3.5 लाख छात्र स्कूल बदल चुके हैं। इसके पीछे मुख्य वजह आर्थिक चुनौती है।
स्कूल कॉलेज खुलने के बाद भी हालात पहले की तरह नहीं होंगे। गुड़गांव स्थित हेरिटेज एक्सपेरिमेंटल लर्निंग स्कूल के सह संस्थापक मनीत जैन कहते हैं, “बच्चे जब भी औपचारिक कक्षाओं में आएंगे, उन्हें दिक्कत होगी। इसलिए वे जब स्कूल आएंगे तो उनकी मदद के लिए हमने पाठ्यक्रम को खासतौर से डिजाइन किया है। एक काउंसलिंग टीम भी होगी जो छात्रों के साथ मिलकर काम करेगी।”
रोपड़ स्थित केंद्रीय विद्यालय के प्रिंसिपल अनिल कुमार मानते हैं कि इतने लंबे समय तक स्कूल से दूर रहने के बाद छोटे बच्चों को मुश्किल आ सकती है। पहले की तरह परीक्षाएं शुरू होंगी तो इसका और अधिक असर दिख सकता है। इसलिए इससे सावधानीपूर्वक निपटने की जरूरत है।
लॉकडाउन के चलते अभिभावकों के सामने आर्थिक समस्या भी है। अनेक माता-पिता समय पर स्कूल की फीस नहीं दे पा रहे। यहां तक कि वे बच्चों को स्कूल से निकाल रहे हैं। फीस न मिलने से स्कूल भी आर्थिक संकट में हैं। उन्हें कामकाजी खर्चे निकालने में भी दिक्कत आ रही है। कुछ स्कूल फीस में भी कटौती कर रहे हैं ताकि बच्चे छोड़कर न जाएं।
बंदी से बचने के लिए छोटे स्कूल नया बिजनेस मॉडल अपना रहे हैं। दिल्ली के एक निजी स्कूल के प्रिंसिपल ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर बताया, “हमने शिक्षकों की तीन श्रेणी बनाई है। एडहॉक शिक्षक, जिन्हें पूरे अकादमिक वर्ष नियमित वेतन मिलेगा। विजिटिंग शिक्षक, जिन्हें प्रति घंटे के हिसाब से पैसे दिए जाएंगे, और वे शिक्षक जो वीडियो ट्यूटोरियल के लिए काम करेंगे। बच्चे स्कूल छोड़कर न जाएं, इसलिए हमें फीस घटानी पड़ी। किसी टीचर को निकालना न पड़े, इसलिए हमें यह मॉडल अपनाना पड़ा।”
जो माता-पिता पैसे देने में सक्षम हैं, वे भी फीस को लेकर चिंतित होने लगे हैं। नोएडा में रहने वाले नितिन शर्मा कहते हैं, उनकी बेटी सिर्फ एक घंटा ऑनलाइन क्लास करती है। बदले में स्कूल मोटी फीस ले रहा है। नितिन की दस साल और छह साल की दो बेटियां हैं। वे कहते हैं, “नोएडा के ही एक इंटरनेशनल स्कूल में हर बेटी के लिए पिछले साल मैंने हर महीने 11,000 रुपये फीस भरी जबकि रोजाना 45 मिनट की एक या दो कक्षाएं होती थीं। यहां तक कि सिलेबस भी पूरा नहीं कराया गया।”
लद्दाख में ऑनलाइन क्लास लेते शिक्षक
बच्चों पर महामारी का भावनात्मक असर भी हो रहा है। उनके व्यवहार में नाराजगी बढ़ गई है। मुंबई में रहने वाली साइकोथैरेपिस्ट और चाइल्ड काउंसलर पद्मा रेवारी के दो किशोरवय बच्चे हैं। वे कहती हैं, “मैंने अपने ही बच्चों के बर्ताव में बदलाव देखा है। कई बार बेटा दोस्त का फोन नहीं उठाता। ऐसा पहले कभी नहीं होता था।” पदमा ऐसे बच्चों को भी जानती हैं जो लगातार घर में रहने के कारण पढ़ाई पर फोकस नहीं कर पा रहे हैं और काफी बेचैनी महसूस करते हैं।
कुछ स्कूलों ने कैंपस में क्लास आयोजित करने के अनोखे तरीके अपनाए हैं। बिशप कॉटन स्कूल शिमला के सबसे पुराने रेजिडेंशियल स्कूलों में एक है। यहां आरटी पीसीआर टेस्ट के बाद छात्रों को आने की अनुमति दी गई। अलग-अलग कक्षा के छात्र अलग दिन पहुंचे। अभिभावकों को स्कूल परिसर में जाने की इजाजत नहीं थी। हर कक्षा अपने आप में दूसरों से अलग होती थी। हर कक्षा के छात्र के लिए ठहरने की अलग व्यवस्था थी, उनके आने-जाने का रास्ता भी अलग था। उस कक्षा के छात्र साथ खाना खाते हैं, सोते हैं और खेलते हैं। स्कूल में सभी छात्र मास्क पहने, सैनिटाइजेशन करने और शारीरिक दूरी का पालन करते हैं।
उच्च शिक्षा
भारत में स्कूली शिक्षा पूरी करने वाले 26 फीसदी छात्र ही उच्च शिक्षा में दाखिला लेते हैं। यह आंकड़ा भले छोटा हो लेकिन प्रतिष्ठित कॉलेजों में दाखिला लेने की होड़ बड़ी तगड़ी होती है। इसलिए कुछ संस्थान तो अपने स्तर पर परीक्षाएं आयोजित करते हैं। कुछ कॉलेजों ने तो स्कूल की आखिरी परीक्षा खत्म होने से पहले ही दाखिले की प्रक्रिया शुरू कर दी है। पिछले साल की तरह इस बार भी समय पर दाखिले पूरे होने और जुलाई में सत्र शुरू होने की उम्मीद नहीं है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के चेयरमैन प्रो. डीपी सिंह कहते हैं, “वेबीनार, वर्चुअल क्लास, टेलीकॉन्फ्रेंसिंग, ऑनलाइन-ऑफलाइन परीक्षाएं अब हमारी शिक्षा का हिस्सा बन गए हैं। हमने पीएचडी/ एमफिल छात्रों के लिए ऑनलाइन मौखिक परीक्षा भी देखी। विश्वविद्यालय ऑनलाइन दीक्षांत समारोह भी आयोजित कर रहे हैं।”
पश्चिम बंगाल के एक गांव में नेटवर्क के लिए टीचर को मचान पर बैठना पड़ता है
कोरोना की पहली लहर के समय लगभग सभी संस्थाओं ने अपने कैंपस बंद कर दिए थे। लॉकडाउन खुलने के बाद कुछ संस्थानों में कक्षाएं शुरू हुईं और छात्रों को अलग-अलग बैच में प्रयोगशालाओं में भी जाने की अनुमति दी जाने लगी। लेकिन मार्च में दूसरी लहर आने के बाद ज्यादातर संस्थान ऑनलाइन क्लास ही आयोजित करने लगे। कई जगह छात्र हॉस्टल में रह तो रहे हैं लेकिन कक्षाएं ऑनलाइन ही हो रही हैं।
समतुल्य विश्वविद्यालय भारती विद्यापीठ के कुलपति प्रो. मानेकराव सालुंखे कहते हैं, “शिक्षकों के लिए क्लासरूम में पढ़ाना ज्यादा आसान होता है। ऑनलाइन क्लास में भले ही सभी छात्रों ने लॉगइन किया हो, हम नहीं जानते कि कौन ध्यान से लेक्चर सुन रहा है। ज्यादातर छात्र मोबाइल फोन पर ही ऑनलाइन क्लास करते हैं जिसका स्क्रीन बहुत छोटा होता है। सिर्फ 20 फीसदी छात्र सवाल करते हैं। विज्ञान, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग की कक्षाओं में अलग समस्या है क्योंकि वहां प्रयोगशालाओं में जाना महत्वपूर्ण होता है। बिना प्रयोगशाला गए ये छात्र जब डिग्री हासिल करेंगे तो उन्हें नौकरी पाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ेगी। वैसे यह समस्या आजीवन नहीं रहेगी क्योंकि बहुत से छात्र अतिरिक्त प्रशिक्षण के भी इच्छुक होते हैं। टेक्नोलॉजी कॉलेज से निकलने वाले अनेक छात्रों ने इस तरह के कोर्स में दाखिला लेना शुरू कर दिया है।
(साथ में लक्ष्मी देबराय और अश्वनी शर्मा)