सुर्खियों में घोली जाए, थोड़ी-सी खिजाब/ उसमें फिर मिलाई जाए, सियासी आब/ होगा यूं नशा जो तैयार वो......(लोकप्रिय गीतकार दिवंगत गोपाल दास 'नीरज' और मशहूर गायक दिवंगत किशोर कुमार से क्षमा-प्रार्थना सहित उनकी पंक्तियों में थोड़ी हेरफेर)। फिर तो टीआरपी मस्त, कमाई मस्त, सियासत मस्त, लोग मस्त, सारा जहां मस्त (एक बार फिर माफी सूफी गायकी से)। और घबराइए नहीं पस्त की फेहरिस्त भी छोटी नहीं। कोविड-19 पस्त, भयावह आर्थिक मंदी पस्त, सीमा पर चीन के तेवर पस्त, लॉकडाउन और लोकतांत्रिक संस्थाओं की बर्बादी पस्त, विपक्ष और विपक्षी सरकारें पस्त, हर तरह के सवाल पस्त वगैरह, वगैरह। यकीन न हो तो फिल्म एक्टर 34 वर्षीय सुशांत सिंह राजपूत की दर्दनाक आत्महत्या या हत्या के टीवी अफसाने पर थोड़ा ठहरकर विचार कीजिए। 14 जून को हुई यह दुखद घटना छोटे परदे पर ज्यादातर वक्त नए-नए किस्सों-कहानियों और सनसनीखेज मोड़ के साथ लगभग ढाई महीने से छाई रही है। उसमें सियासी रंग भी घुलते रहे और अभी परदे से उतरने या बस जरूरत भर दिखाने-बताने की कोई गुंजाइश नहीं दिख रही है। मीडिया की खबरों पर नजर रखने वाली संस्था न्यूज-लॉन्ड्री के मुताबिक, टीवी पर लगभग 35 दिनों तक लगातार खबरों में सुशांत प्रकरण की हिस्सेदारी 70 से 90 फीसदी तक रही है। एक दूसरा आंकड़ा ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल इंडिया (बार्क) का है कि तकरीबन 17 करोड़ लोगों ने टीवी पर सुशांत प्रकरण को देखा। फिर इस आंकड़े पर भी गौर कीजिए। बार्क के मुताबिक 8-14 अगस्त के हफ्ते में रिपब्लिक टीवी की मार्केट हिस्सेदारी पहली दफा 52.65 फीसदी पर पहुंच गई और वह नंबर वन बन गया। मार्केट हिस्सेदारी पाने की यह होड़ हर ओर जारी रही।
अब जरा दूसरी ओर रुख करते हैं। इससे न सिर्फ दुनिया में सबसे तेजी से फैलते कोविड-19 संक्रमण और बढ़ती मौत की खबरें (37 लाख संक्रमित और लगभग 66 हजार की मौत) सुर्खियों से गायब हुईं, बल्कि लॉकडाउन की वजह से पहले ही खस्ताहाल अर्थव्यवस्था गर्त में गहरे धंसने (मौजूदा जीडीपी के आंकड़े के मुताबिक शून्य से 23.9 फीसदी नीचे), बेपनाह बेरोजगारी दर (तकरीबन 2 करोड़ नौकरियां खत्म) और सीमा पर चीन की फौज की बढ़ती आक्रामकता भी लोक चर्चा से दूर रहीं। इसके बदले सुशांत प्रकरण में महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस की खामियां, गफलतें और कथित नेताओं की मिलीभगत जैसे आरोप ही सियासी फिजा को गरम करते रहे। तो, यह कहानी मीडिया के इस नए रूप की जैसे जीती-जागती तस्वीर बन गई।
हालांकि इसकी नजीरें और भी हैं। जैसा कि बॉबे हाइकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने कुछ ही दिनों पहले तबलीगी जमात के आयोजन में आए विदेशी नागरिकों को रिहा करते हुए अपने फैसले में कहा, “कोई राजनैतिक सरकार प्राकृतिक आपदाओं और अन्य मुश्किलों से ध्यान हटाने के लिए बलि के बकरों की तलाश करती है। इन बेकसूर लोगों को फंसाया गया जबकि इनका कोरोना टेस्ट भी निगेटिव था।” अब मार्च के आखिर और अप्रैल-मई में टीवी कवरेज की याद कर लीजिए। क्या-क्या नहीं कहा गया। ऐसा लगा कि टीवी चैनल ही अंतिम फैसला सुनाने की पीठ बन गए हैं, जिसे अब कुछ लोग मीडिया-ट्रायल कहने लगे हैं।
खैर! अब लौटते हैं, इस कथित मीडिया-ट्रायल के सबसे चर्चित सुशांत प्रकरण पर। यह भरपूर सस्पेंस और कहानी में गजब के मोड़ से लबालब है। पहले 40-42 दिनों तक बॉलीवुड में भाई-भतीजावाद और कुछ खास मंडलियों के मजबूत दबदबे की घुटन में बाहरी किरदारों के दम तोड़ देने के आरोप थे। फिर, सुशांत के पिता के.के. सिंह की शिकायत पर बिहार पुलिस सक्रिय हुई तो फोकस बदला, सियासी रंग घुला और खलनायक अब रिया चक्रवर्ती बन गई। 28 साल की रिया कोई ए-लिस्ट वाली हिरोइन भी नहीं जिसके नाम बॉक्स ऑफिस हिट दर्ज हो। वह कई वर्षों से बॉलीवुड में पांव जमाने की जद्दोजहद में ही जुटी थी। मगर आज वह सुर्खियों में छाई है और इसका श्रेय कई खबरिया चैनलों पर चल रहा अनवरत मीडिया ट्रायल है, जिसमें उसे सुशांत की मौत का दोषी ठहराने में संदेह की ‘कोई गुंजाइश नहीं’ छोड़ी गई। हालांकि फिलहाल सीबीआइ ने उसके खिलाफ आरोप-पत्र भी अभी दाखिल नहीं किया है।
दरअसल मीडिया अपना फैसला सुनाने की हड़बड़ी में दिख रहा है, चाहे वह जायज हो या नहीं। उसे कानूनी जांच एजेंसियों या फिर न्यायिक प्रक्रिया के पूरा होने तक इंतजार करना भी बेमानी लग रहा है। असल में 14 जून को फिल्म अभिनेता की रहस्यमय परिस्थितियों में मुंबई के घर में मौत के बाद से ही उनके लिए इंसाफ की मांग का भारी अभियान शुरू हो गया। देश और विदेश से लाखों लोग इस असमय मृत्यु पर हैरान थे और कुछ गड़बड़झाले का संदेह जता रहे थे, जिसे शुरू में मुंबई पुलिस ने आत्महत्या का मामला मान लिया। उसके बाद सीबीआइ को यह मामला सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से सौंपा गया।
सीबीआइ फिलहाल जांच कर रही है और सुशांत की लिव-इन पार्टनर रिया और अन्य लोगों से कई दौर की पूछताछ कर चुकी है। लेकिन टीवी मीडिया की सीबीआइ के समांतर अपनी जांच जारी रखने की जाहिर वजहें हैं। आखिर मीडिया ट्रायल सेक्स या शाहरुख से ज्यादा जो बिकता है!
आखिरकार खबरिया चैनलों के बीच भारी होड़ में धैर्य या स्थापित कायदों को बमुश्किल ही तरजीह दी जाती है। सो, सुशांत प्रकरण में भी वही रवैया हावी दिखता है। टीवी रेटिंग पाइंट (टीआरपी) की अंधी दौड़ में चमक-दमक वाले टीवी स्टूडियो आदलतों जैसे बना दिए जाते हैं और एंकर नए 'मी लॉर्ड' की भूमिका में उतर आते हैं। आज, ऐसा लगता है कि कोई औसत टीवी पत्रकार सिर्फ जज नहीं है, बल्कि उसने अपने ऊपर अनेक जिम्मेदारियां ओढ़ ली हैं। वह जूरी, जासूस, जांचकर्ता, इंसाफ देने वाला और जल्लाद सब एक साथ बन बैठा है।
जाहिर है, टीवी न्यूज इंडस्ट्री ने टीआरपी में इजाफे की संभावना को देख सुशांत प्रकरण को लपक लिया और प्रतिद्वंद्वी चैनल ने अपने-अपने तरीके से सुशांत की मौत के रहस्य से परदा उठाने की कोशिश में जुट गए। तमाम तरह की तथाकथित स्वतंत्र जांच शुरू हो गई, चैनल मौका-ए-वारदात को नए सिरे से तैयार करने, पोस्टमार्टम, फोरेंसिक और झूठ पकड़ने के टेस्ट में जुट गए, ताकि दर्शक टीवी परदे पर आकर्षित हों। टीवी पर ट्रायल का यह सिलसिला कोई नया तो नहीं है, लेकिन यह निहायत ही निचले स्तर पर पहुंच गया है।
एम.एस. धोनीः द अनटोल्ड स्टोरी (2016) और छिछोरे (2019) जैसे बॉक्स ऑफिस हिट से चर्चित हुए, बिहार में जन्मे अभिनेता पर अपने असमय अवसान के ढाई महीने बाद सभी टीवी डिबेट में खुलकर ड्रग एडिक्ट, बाइपोलर डिस्आर्डर से ग्रस्त और औरतबाज होने के आरोप लगाए जा रहे हैं। यहां तक कि आखिरी कुछ महीनों में अवसाद के लिए उनके कथित इलाज के पर्चे और मनोचिकित्सकों द्वारा दी गईं दवाइयों के नाम भी टीवी परदे पर दिखाए जा रहे हैं। इस दौरान उनकी पूर्व गर्ल फ्रेंड रिया पर तोहमतों की बारिश की जा रही है कि उसने बॉलीवुड माफिया और ड्रग माफिया के साथ मिलकर सुशांत की हत्या करवाई। उस पर सुशांत की कमाई लूटने की लालची, किसी नेता से संबंध जैसे न जाने कितने आरोप मढ़े गए। लेकिन ऐसा कोई पुख्ता प्रमाण कम से कम सार्वजनिक नहीं है, लेकिन इससे शायद चैनलों को कोई फर्क नहीं पड़ता।
मीडिया के जानकारों का मानना है कि कुछ चैनलों ने तो सभी हदें पार कर दीं, सिर्फ इसलिए कि ग्लैमरस हिरोइन का बॉय फ्रेंड के साथ लिव-इन रिश्ता मध्यवर्गीय मानसिकता में फिट नहीं बैठता। उनकी दलील है कि वह कामयाब नहीं थी, इसलिए उसे अपने धनी बॉय फ्रेंड की संपत्ति लूटने वाली बता दिया गया।
इसमें कोई अचरज भी नहीं है क्योंकि आरुषि तलवार से लेकर शीना बोरा मामले तक, हर सनसनीखेज प्रकरण में टीवी पत्रकारिता ने किसी तरह की मर्यादा का पालन करना जरूरी नहीं समझा। ऐसे में एक युवा सितारे के असमय अवसान में वह सब करने को मानो उन्हें डॉक्टरी नुस्खा मिल गया था। इसमें हर तरह का मसाला भरपूर था, फिल्म माफिया से लेकर ड्रग तक की चर्चाएं गरम थीं तो बिजनेस की भरपूर संभावनाएं दिखीं। शुरू में ही इसमें पिल पड़ने वालों को फायदा मिला भी। मसलन, #जस्टिसफॉरसुशांत अभियान चलाने वाले रिपब्लिक टीवी को हाल के हफ्तों में सभी अंग्रेजी चैनलों में ज्यादा दर्शक मिले। उसके हिंदी संस्करण रिपब्लिक भारत को इस मामले में सनसनीखेज बढ़त लेने की वजह से हिंदी चैनलों के अब तक के अगुआ आजतक को पछाड़ दिया। बार्क के अनुसार 25 जुलाई से 21 अगस्त के बीच रिपब्लिक टीवी की टीआरपी 52.65 फीसदी पर पहुंच गई, जो बाकी चैनलों की टीआरपी के योग से ज्यादा थी। अर्णब गोस्वामी की अगुआई वाले चैनल ने ट्वीट किया, “रिपब्लिक मीडिया नेटवर्क ने सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए। रिपब्लिक टीवी 52 फीसदी पर पहुंच गया और रिपब्लिक भारत अब देश में नं. 1 चैनल है। धन्यवाद दर्शकों।” यह इस तथ्य काे जैसे सबूत बताया गया कि सनसनीखेज मामलों में मीडिया ट्रायल को दर्शक पसंद करते हैं, चाहे पत्रकारिता की मर्यादाओं की धज्जी ही क्यों न उड़ाई जाए। बार्क और और मार्केट रिसर्च फर्म नीलसन के मुताबिक अगस्त के पहले हफ्ते में राम मंदिर भूमि पूजन के अलावा ढाई महीने से सुशांत प्रकरण ही टीवी प्रसारण में सबसे ऊपर बना हुआ है।
लेकिन यह रिपोर्टिंग 1966 में स्थापित भारतीय प्रेस परिषद की परीक्षा नहीं पास कर पाई। प्रेस परिषद यूं तो प्रिंट मीडिया पर निगरानी रखने की संस्था है, मगर पत्रकारिता के मानकों पर उसकी राय का महत्व है। टेलीविजन न्यूज चैनलों को स्वतंत्र निकाय न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी (एनबीएसए) है, जिसका गठन न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने किया है। एनबीए के इस समय प्रेसिडेंट इंडिया टीवी के रजत शर्मा हैं। प्रेस परिषद ने 28 अगस्त को कहा, “सुशांत सिंह की कथित आत्महत्या की कवरेज में कई मीडिया संस्थान पत्रकारिता के मानकों का उल्लंघन कर रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि वे तय मानकों का पालन करें।” उसके अनुसार कवरेज के दौरान इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि संदिग्ध की स्टोरी ऐसे न पेश की जाए कि वह आम लोगों को दोषी लगने लगे। यही नहीं, अटकलों के आधार पर रिपोर्टिंग नहीं होनी चाहिए। मीडिया को कवरेज के दौरान सनसनी फैलाने से बचना चाहिए। मीडिया को गवाह, पीड़ित, संदिग्ध या आरोपी की कवरेज में भी उसकी निजता का ध्यान रखना चाहिए। ऐसा नहीं करने से जांच एजेंसियों पर भी दबाव पड़ सकता है।
लेकिन न्यूज नेशन नेटवर्क लिमिटेड के कंसल्टिंग एडिटर दीपक चौरसिया इससे सहमत नहीं लगते। उनका कहना है, “मेरे ख्याल से हर बड़े केस की कवरेज इसी तरह होती है। सुशांत सिंह राजपूत केस में ही मीडिया ऐसा नहीं कर रहा है। इसके पहले आरुषि केस, निठारी कांड में इसी तरह रिपोर्टिंग करके सभी एंगल तलाशे गए थे। एक बड़े स्टार की दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से मौत हुई है। इसलिए मीडिया तमाम एंगल तलाश रहा है। हर पत्रकार चाहता है कि वह खबर की तह तक पहुंचे, वह भी पूरे सबूतों के साथ। यह कोई नई बात नहीं है। आरुषि और सुनंदा पुष्कर केस में भी इस तरह के सवाल उठे थे।” तो क्या इस वजह से मीडिया को खुद ही फैसला करने का अधिकार मिल जाता है, इस पर चौरसिया कहते हैं, “मीडिया वही बातें सामने लाता है जिनके बारे में कोई आरोप लगता है या फिर जिसका उसके पास सबूत है। वह खबरों को लेकर तटस्थ नहीं रह सकता है। एक बात और समझनी होगी कि अंत में फैसला न्यायालय ही करता है।”
लेकिन चौरसिया की बात से प्रेस एसोसिएशन के अध्यक्ष जयशंकर गुप्ता इत्तेफाक नहीं रखते हैं। उनका कहना है, “आरुषि-हेमराज हत्याकांड 2008 में हुआ था, उस केस में क्या हुआ? उस समय प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ‘बेटी का हत्यारा बाप’ जैसी हेडिंग की झड़ी लगा दी थी। ऐसा माहौल बना दिया था कि आरुषि की हत्या उसके पिता ने ही की थी, जबकि अंत में हाइकोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया। उसके बाद क्या किसी मीडिया संस्थान ने आरुषि के पिता से माफी मांगी? किसी ने भी ऐसा नहीं किया, लेकिन उनका चरित्र हनन हो गया। ऐसा ही अब सुशांत सिंह राजपूत केस में हो रहा है। मीडिया का काम रिपोर्टिंग करना है। उसे तथ्यों के आधार पर रिपोर्टिंग करनी चाहिए।”
गुप्ता की बात में दम है। अतीत में कई लोगों को मीडिया ट्रायल का दंश झेलना पड़ा है। इसरो के वैज्ञानिक नंबी नारायण को 1990 के दशक में जासूसी का आरोप लगने पर केरल में मीडिया ट्रायल से गुजरना पड़ा। कवि, वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद के पूर्व प्रमुख गौहर रजा को भी ऐसी ही गलत रिपोर्टिंग का दंश झेलना पड़ा। वे कहते हैं “मुझे अफजल गैंग का सदस्य बता दिया गया था। उस समय मेरे खिलाफ ऐसा माहौल बन गया था कि अगर मैं अकेले घर से बाहर निकलता तो कोई मेरे ऊपर हमला कर सकता था। हर वक्त डर लगता था। खैर! मैंने लड़ाई लड़ी और बाद में जी नेटवर्क को माफी मांगनी पड़ी।” लेकिन उस दौर को याद करके वह आज भी सिहर जाते हैं। गौहर कहते हैं, “देखिए जब कोई भी बड़ा चैनल किसी के ऊपर इल्जाम लगाता है और अगर वह झूठा है तो भी उस आम शख्स के पास कोई ऐसा तरीका नहीं होता कि वह उसका जवाब दे सके। व्यक्ति पूरी तरह से लाचार हो जाता है।”
जी मीडिया नेटवर्क के एडिटर-इन-चीफ सुधीर चौधरी का कहना है कि लोग ही बदलाव ला सकते हैं। वे कहते हैं, चाहे अभिनेत्री श्रीदेवी की मृत्यु का मामला हो, बाबा राम रहीम की गिरफ्तारी या फिर अब सुशांत सिंह राजपूत की मौत का, तीनों मामले में मीडिया का पतन दिखता है। ऐसा लगता है कि सस्ता कंटेट दिखाने की होड़ मची हुई है। जिस चैनल का जितना सस्ता कंटेट होगा, उसकी रेटिंग उतनी ही ज्यादा होगी। इस पतन को चैनल यह कहकर ढंकने की कोशिश करते हैं कि जनता यही देखना चाहती है। दुर्भाग्य से न्यूज मीडियम ऐसे बिजनेस मॉडल से जुड़ा है जहां कंटेट प्राथमिक नहीं रह गया है। हो सकता है कल कोई चैनल इनामी योजना निकाल दे कि दर्शक भी रिया चक्रवर्ती से सवाल पूछ सकेंगे। यह एक चिंताजनक ट्रेंड है।
उनका दावा है कि रिया चक्रवर्ती और चैनल, दोनों गलतियां कर रहे हैं। सीबीआइ के पास पूछताछ के लिए जाने से ठीक 24 घंटे पहले रिया की पब्लिक रिलेशंस (पीआर) टीम सभी चैनल से संपर्क कर रही थी। उन्होंने सहानुभूति के लिए एक न्यूज चैनल को इंटरव्यू दिया। जी नेटवर्क ने इंटरव्यू से इंकार कर दिया।
खैर! उस इंटरव्यू में रिया चक्रवर्ती ने कहा, “मुझे बिना किसी सबूत के सुशांत की हत्या की साजिश में शामिल कर दिया गया, मेरे एक नेता से संबंध बताए गए, मेरे ड्रग माफिया और अंडरवर्ल्ड से भी कनेक्शन बताए गए। यह सब परेशान करने वाला है। इन वजहों से कई बार मुझे आत्महत्या करने का भी ख्याल आया। अब तो यही लगता है कि लोग मुझे और मेरे परिवार को खड़ा कर गोली मार दें, तभी शांति मिलेगी।” रिया ने यह भी कहा है कि उन्हें जान से मारने और बलात्कार करने तक की धमकी सोशल मीडिया पर मिल रही है।
रिया सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटा चुकी हैं। उन्होंने 10 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में कहा है, “मीडिया ने मुझे पहले ही दोषी करार दे दिया है। मीडिया में जिस गलत तरीके से ट्रॉयल किया जा रहा है, वह मेरी निजता का भी उल्लंघन है।” यही नहीं, उन्हें लगता है कि राजनीतिक एजेंडे के तहत उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है।
सुशांत प्रकरण में सियासी एंगल भी जुड़ा। महाराष्ट्र में शिवसेना की अगुआई वाली सरकार ने यह मामल मुंबई पुलिस से लेकर सीबीआइ को सौंपने का विरोध किया था। उसने आरोप लगाया कि सुशांत के गृह प्रदेश बिहार के जद(यू)-भाजपा गठजोड़ ने चुनाव के मद्देनजर यह कुछ जाल बुना है। सुशांत के पिता के.के. सिंह के पटना में एफआइआर करवाने से मामला सीबीआइ को सौंपने की राह खुली। हालांकि महाराष्ट्र सरकार और रिया दोनों ने क्षेत्राधिकार का मामला उठाकर इसका विरोध किया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ जांच की इजाजत दे दी। शिवसेना नेताओं का अब भी यही आरोप है कि बिहार की राजनैतिक पार्टियां चुनावी फायदे के लिए इस रहस्यमय मौत के मामले को उठा रही हैं। महाराष्ट्र के नेताओं का यह भी आरोप है कि भाजपा उद्धव ठाकरे सरकार को अस्थिर करना चाहती है, क्योंकि शिवसेना ने पिछले अक्टूबर में विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा से नाता तोड़कर राकांपा और कांग्रेस के साथ मिलकर महाविकास अघाड़ी सरकार बना ली थी। शिवसेना का दावा है कि इसी वजह से आदित्य ठाकरे का नाम घसीटा गया।
दरअसल, सुशांत की मौत पर विवाद बढ़ा तो भाजपा नेता नारायण राणे के बेटे नीलेश राणे ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे का संबंध इस मामले से है। इसी तरह, बिहार में जद(यू) नेता संजय सिंह ने रिया की गिरफ्तारी की मांग की और सीबीआइ से राज उगलवाने के लिए थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करने को कहा।
टीआरपी के खेल पर वरिष्ठ पत्रकार और एक न्यूज चैनल में एक्जीक्यूटिव एडिटर प्रियदर्शन का कहना है, “सनसनी का तत्व हमेशा मीडिया को रास आता रहा है। इत्तेफाक से इस बार मीडिया को राजनीति और सुशांत के परिवार दोनों का समर्थन मिल गया है। सुशांत की मौत के बाद उनके परिवार ने तरह-तरह के आरोप लगाकर विवाद की शुरुआत की। इसके बाद बिहार और महाराष्ट्र की राजनीति भी इसमें शामिल हो गई, जो धीरे-धीरे एनडीए बनाम यूपीए में तब्दील हो गई। रिया ऐसा किरदार थी, जिस पर हमला किया जा सकता है। तो मीडिया को सब कुछ मिल गया।”
इंडिया न्यूज नेटवर्क लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर राणा यशवंत का कहना है, “आप चाहे कितनी भी बातें कर लें, जब टीआरपी आती है तो साफ तौर पर पता चलता है कि लोग क्या देख रहे हैं? मैं मानता हूं कि अगर मीडिया में इतना शोर-शराबा नहीं होता, उसने सबूत पेश नहीं किए होते तो यह मामला सीबीआइ तक नहीं जाता।”
कांग्रेस सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर भी 2014 में मीडिया ट्रॉयल का सामना कर चुके हैं। उस वक्त उनकी पत्नी सुनंदा पुष्कर की दिल्ली के होटल में मौत हो गई थी। खबरों से परेशान होकर थरूर ने 2017 में रिपब्लिक टीवी के एडिटर अर्णब गोस्वामी के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट 2 करोड़ रुपये का मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया था। दिल्ली कोर्ट ने 2019 में रिपब्लिक टीवी और गोस्वामी के खिलाफ एफआइआर दर्ज करने के भी आदेश दिए थे। असल थरूर ने चैनल पर आरोप लगाया था कि उसने जांच के गोपनीय दस्तावेजों को चुराया था।
इसे न्यायिक प्रक्रिया कैसे देखती है, इस पर सुप्रीम कोर्ट के वकील डी.के. गर्ग का कहना है, “देखिए मीडिया चाहे जितनी भी बातें कर ले, जांच एजेंसी अगर मीडिया ट्रॉयल से प्रभावित हो जाए तो वह जांच एजेंसी नहीं रह जाएगी। वह अपने तरीके से ही काम करेगी।”
अब तक की जांच पर सीबीआइ के पूर्व ज्वाइंट डायरेक्टर एन.के. सिंह कहते हैं, “मैंने 34 साल के करिअर में ऐसा अनुभव कभी नहीं किया। अभी केवल मीडिया ट्रॉयल हो रहा है। मीडिया ने बिहार के उभरते कलाकार की मौत को मजाक बना दिया है। बिना किसी सबूत, जांच के फैसला सुनाया जा रहा है। कुछ मीडिया संस्थान तो सारी हदें पार कर चुके हैं, अपने शो में ऐसे लोगों को बुलाकर बहस कर रहे हैं, जिन्हें जांच का ककहरा भी नहीं पता।” सीबीआइ, ईडी और नारकोटिक्स ब्यूरो जैसी जांच एजेंसियों पर उनका कहना है, “जांच की एक निश्चित प्रक्रिया होती है। उसी आधार पर एजेंसियां काम करेंगी।”
मीडिया की आलोचना पर यह दलील भी दी जा रही है कि खोजी पत्रकारिता नहीं की जाएगी तो सच सामने नहीं आएगा। इस पर प्रियदर्शन कहते हैं “जब लोगों को लगता है कि सच छुपाया जा रहा है, तो मीडिया की भूमिका अहम हो जाती है। अगर खोजी पत्रकारिता नहीं होती तो बीएमडबल्यू हिट एंड रन केस, जेसिका लाल केस में इंसाफ नहीं होता। लेकिन आज जो हो रहा है, वह कहीं से खोजी नहीं है। एजेंसियां पत्रकारों को जो खबरें बता रही हैं, उसे ही परोस दिया जा रहा है।”
तबलीगी जमात
याद कीजिए मार्च 2020 का महीना जब देश में कोरोना ने दस्तक दी थी। उस दौरान दिल्ली में दुनिया भर से आए तबलीगी समुदाय के लोगों का मरकज में धार्मिक सम्मेलन हो रहा था। उस दौरान कुछ तबलीगियों की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आने के बाद मीडिया के एक तबके ने उन्हें 'कोरोना वायरस सुपर स्प्रेडर' तक कहा। इस कारण समुदाय विशेष के लोगों को संदेह की नजर से देखा जाने लगा। लेकिन बॉम्बे हाइकोर्ट ने 22 अगस्त को 29 विदेशी और 6 भारतीय तबलीगियों के खिलाफ दर्ज एफआइआर को खारिज कर दिया और कहा, “सियासी हुकूमत उस वक्त बलि का बकरा ढूंढ़ने की कोशिश करती है, जब मुसीबत या महामारी आती है।”
जेसिका लाल
जेसिका की 30 अप्रैल 1999 में दक्षिण दिल्ली के एक रेस्तरां में गोली लगने से मौत हो गई थी। आरोप हरियाणा कांग्रेस के नेता विनोद शर्मा के बेटे मनु शर्मा पर लगा था। गवाहों के मुकरने से फरवरी 2006 में ट्रॉयल कोर्ट ने सभी आरोपियों को रिहा कर दिया। तब मीडिया के सकारात्मक रूख ने माहौल बदला। दिसंबर 2006 में दिल्ली हाई कोर्ट ने मनु शर्मा को आजीवन कारावास और दूसरे साथियों को सजा सुनाई।
आरुषि हत्याकांड
आरुषि-हेमराज हत्याकांड मई 2008 में हुआ। 13 साल की आरुषि तलवार और उसके यहां काम करने वाले 45 साल के हेमराज की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई थी। मीडिया ट्रॉयल में शक की सुई आरुषि के माता-पिता डॉ राजेश तलवार और नुपूर तलवार पर घूमती रही। 2017 में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने दोनों को रिहा कर दिया। सीबीआइ ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है।
गौहर रजा
वैज्ञानिक और शायर गौहर रजा 5 मार्च 2016 को दिल्ली में शंकर-साद मुशायरे में नज्म पढ़ रहे थे। मुशायरे पर जी न्यूज ने खबर चलाई जिसे अफजल प्रेमी गैंग का मुशायरा नाम दिया गया। अप्रैल 2016 में रजा ने न्यूज ब्रॉडकास्टिंग स्टैण्डर्ड्स अथॉरिटी में जी न्यूज के खिलाफ अपील की। अथॉरिटी ने जी न्यूज के खिलाफ आदेश देते हुए कहा कि वह चैनल पर माफीनामा चलाए और एक लाख रुपये हर्जाना दे।
बीएमडबल्यू हिट एंड रन
हथियार कारोबारी सुरेश नंदा के बेटे संजीव नंदा ने साल जनवरी 1999 में अपनी बीएमडबल्यू कार से 6 लोगों को कुचल दिया था। इसमें तीन पुलिस वाले भी शामिल थे। शुरूआत में सबूतों के अभाव में संजीव पर आरोप साबित नहीं हो पाए थे और रिहा हो गया था। मीडिया ट्रॉयल ने उसे आखिरकार सलाखों के पीछे पहुंचा दिया। उसे 2008 में दो साल की सजा, जुर्माना और दो साल सामुदायिक सेवा की सजा सुनाई गई।