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आवरण कथा/कृषि अर्थव्यवस्था: एमएसपी तो बाजार के भी हित में

नेताओं ने इसका इस्तेमाल वोट जुटाने में भी किया
लगातार सूखा और अकाल के बाद एमएसपी की व्यवस्था 1965 में लागू की गई

मुक्त बाजार बनाम सरकारी नियम। केंद्र बनाम राज्य। केंद्र सरकार बनाम किसान। किसानों के विरोध प्रदर्शन और कृषि संकट से जो बहस उभरी है, उसे इन्हीं तीन विरोधाभासों से जोड़कर देखा जा रहा है। लेकिन जमीनी हकीकत काफी जटिल है और उस पर काफी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। करीब दो सप्ताह से दिल्ली की सीमा पर विरोध प्रदर्शन करने वाले किसान संगठनों की दो प्रमुख मांगें हैं। पहला, तीनों नए कृषि कानूनों को रद्द किया जाए और दूसरा, किसानों से सभी उत्पादों की कम से कम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद का कानूनी प्रावधान हो। केंद्र सरकार ने कानून वापस लेने की संभावना से इनकार किया है, लेकिन एमएसपी जारी  रखने की बात वह लिखकर देने को तैयार है। अलबत्ता कानूनी दर्जा देने को तैयार नहीं है। 1960 के दशक में लगातार कई साल सूखा पड़ने और देश के कई हिस्सों में अनाज की लूट के बाद 1965 में पहली बार एमएसपी व्यवस्था लाई गई। अनाज की काफी कमी थी, इसलिए उपज बढ़ाना और बाजार मूल्य में अचानक तेज गिरावट से किसानों को सुरक्षित करना इसका मकसद था। कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिशों के आधार पर एमएसपी तय किया जाता है, जिस पर सरकारी एजेंसियां खरीद करती हैं।

बाजार समर्थक दशकों पुरानी अनाज संकट की स्थिति और मौजूदा सरप्लस की स्थिति की तुलना करते हुए ‘एक देश एक बाजार’ की बात करते हैं। उनका मानना है कि नए सुधारों से किसानों को नए विकल्प मिलेंगे, अभी एमएसपी व्यवस्था में किसान कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) से जुड़े होते हैं।

इक्रियर के प्रोफेसर अशोक गुलाटी कहते हैं, “एमएसपी 1960 के दशक के मध्य में आए अनाज संकट का परिणाम है। उसके बाद भारतीय कृषि काफी बदल चुकी है। हम अनाज की कमी से सरप्लस की स्थिति में आ गए हैं। सरप्लस अर्थव्यवस्था में अगर हम बाजार की भूमिका नहीं बढ़ाएंगे और कृषि को मांग आधारित नहीं करेंगे तो एमएसपी से बड़ा आर्थिक नुकसान हो सकता है।”

नेशनल रेनफेड अथॉरिटी के सीइओ अशोक दलवई, जो किसानों की आय दोगुनी करने की सिफारिश करने वाली समिति के चेयरमैन भी हैं, कहते हैं, “एमएसपी को कानूनी दर्जा देने से महंगाई काफी बढ़ेगी और ऊंची कीमत पर कृषि उत्पादों का निर्यात मुश्किल होगा। अभी किसानों के सामने एपीएमसी मंडी और मुक्त राष्ट्रीय बाजार के रूप में विकल्प उपलब्ध हैं, जो खत्म हो जाएंगे।”

सीएसीपी के पूर्व चेयरमैन और पूर्ववर्ती योजना आयोग के सदस्य रहे अभिजीत सेन इन बातों से इत्तेफाक नहीं रखते। वे कहते हैं, “यह कहना अतिशयोक्ति है कि एमएसपी को कानूनी दर्जा देने से बड़ा आर्थिक नुकसान होगा, महंगाई काफी बढ़ जाएगी या निर्यात प्रतिस्पर्धी नहीं रह जाएगा।” सेन के अनुसार एमएसपी, मुक्त बाजार के विचार के खिलाफ नहीं है, बल्कि इससे तो कीमतों में तेज उतार-चढ़ाव से बचने में मदद मिलती है। इस तेज उतार-चढ़ाव से देश के करोड़ों किसानों का जीवन और उनकी आजीविका प्रभावित हो सकती है। वे कहते हैं, “अनाज सरप्लस होने की बात कहने वाले बाजार समर्थक यह क्यों भूल जाते हैं कि आज कीमतों में उतार-चढ़ाव पहले से कहीं ज्यादा होता है।”

एमएसपी को कानूनी दर्जा देने का मतलब

किसान संगठन सभी फसलों के लिए एमएसपी पर खरीद को कानूनी दर्जा देने की मांग कर रहे हैं। सेन के अनुसार हर खरीद में एमएसपी को लागू करना मुश्किल हो सकता है। इसके लिए हर बिक्री और शिकायत पर नजर रखना पड़ेगा जो आसान नहीं। हालांकि एमएसपी पर खरीद की कानूनी गारंटी देने के और भी तरीके हो सकते हैं। सेन कहते हैं, “एमएसपी की सिफारिश करने वाले सीएसीपी को वैधानिक दर्जा दिया जा सकता है। यह कृषि मंत्रालय के तहत है।” 2005 में सीएसीपी की रिपोर्ट में भी यह सिफारिश थी।

सेन कहते हैं कि सरकार गन्ने की तरह बाकी फसलों का भी वैधानिक न्यूनतम मूल्य तय करे। सरकारी एजेंसियां और निजी चीनी मिलें इसी मूल्य पर गन्ना खरीदती हैं। सेन का कहना है कि एमएसपी की अनुमति तो विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) ने भी दी है। वे कहते हैं, “एमएसपी के कारण ही वैश्विक बाजारों की तुलना में भारत के कृषि बाजारों में कम उतार-चढ़ाव देखने को मिला।” सेन का आकलन है कि एमएसपी से अमेरिकी और अन्य वैश्विक बाजारों की तुलना में भारत के कृषि बाजारों में कीमतों में उतार-चढ़ाव 20 से 25 फीसदी तक कम रहा।

एमएसपी की राजनीति

समस्या तब शुरू हुई जब एमएसपी राजनैतिक और चुनावी मुद्दा बन गया। 2009 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इसी के आधार पर लोकसभा चुनाव जीता था। लेकिन 2014 में मनरेगा और ऊंचे एमएसपी के बावजूद उसके हाथ से सत्ता चली गई। एनडीए ने 2014 और 2019, दोनों लोकसभा चुनावों में एमएसपी को मुद्दा बनाया। 2014 के चुनाव में भाजपा ने एमएसपी, लागत का डेढ़ गुना करने का वादा किया था और उसे इसका फायदा मिला। हालांकि यह बढ़ोतरी चार साल बाद 2018 में की गई, जब 2019 के आम चुनाव में चंद महीने बाकी रह गए थे।

सरकारी नीतियों में लागत का डेढ़ गुना एमएसपी की घोषणा पहली बार 2018 के बजट में की गई थी। उससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में बजट पेश किए जाने से ठीक एक दिन पहले बरेली में किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था। मार्च 2018 में कृषि उन्नति मेले में और उसी महीने की 25 तारीख को अपने 42वें ‘मन की बात’ में भी प्रधानमंत्री ने एमएसपी की बात कही। उन्होंने कहा था, “खेत में काम करने वालों की मजदूरी, मवेशियों पर आने वाला खर्च, मशीन का किराया, बीज और उर्वरकों की कीमत, सिंचाई का खर्च, राज्य सरकार को दिया जाने वाला भू-राजस्व, बैंक को दिया जाने वाला ब्याज और लीज पर ली गई जमीन का किराया, एमएसपी तय करने में इन सबको शामिल किया जाएगा। यही नहीं, किसान या उसके परिवार का कोई सदस्य खेत में काम करता है तो उत्पादन का खर्च तय करने में उसकी सांकेतिक मजदूरी भी शामिल होगी।”

लेकिन 2018 में जब सरकार ने ऐलान किया कि एमएसपी किसान की लागत का डेढ़ गुना कर दी गई है, तो इससे किसान संगठन नाराज हो गए। उनका कहना था कि स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों के अनुरूप व्यापक आधार (सी2) पर इसे तय नहीं किया गया है, बल्कि इसके लिए ए2+एफएल का तरीका अपनाया गया। 194 किसान संगठनों की अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति ने खरीफ फसलों की एमएसपी पर विचार के लिए 13 जुलाई को कार्यकारी दल की बैठक और 14 जुलाई 2018 को आम सभा बुलाई।

बैठक के बाद समन्वय समिति की तरफ से जारी बयान में कहा गया, “हम मोदी सरकार की एमएसपी की घोषणा से काफी निराश हैं। किसान संगठनों ने स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर एमएसपी तय करने के लिए देशव्यापी अभियान शुरू करने का निर्णय लिया है। आयोग की सिफारिशों के मुताबिक एमएसपी व्यापक यानी सी2 आधार पर तय किया जाना चाहिए।”

एमएसपी तय करने के तीन तरीके

सीएसीपी देश भर में फैले केंद्रों और विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों से मिले आंकड़ों के आधार पर एमएसपी का आकलन करता है। एमएसपी के तीन आधार हो सकते हैं। ए2 लागत, जिसमें काम या किसी चीज के लिए जो पैसे दिए जाते हैं सिर्फ उन्हें जोड़ा जाता है। ए2+एफएल, इसमें ए2 के साथ परिवार के लोगों के श्रम का भी आकलन किया जाता है। सी2 लागत, इसमें ए2+एफएल के साथ खेती में लगाई गई पूंजी पर ब्याज, लीज पर ली गई जमीन का किराया या अपनी जमीन होने पर उसका सांकेतिक किराया भी जोड़ा जाता है।

राष्ट्रीय किसान आयोग के प्रमुख रहे कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन ने 2006 में किसानों के लिए व्यापक राष्ट्रीय नीति तैयार की थी। उन्होंने कहा था कि एमएसपी औसत लागत का कम से कम डेढ़ गुना होना चाहिए। किसान संगठन तब से स्वामीनाथन फॉर्मूले की मांग करते रहे हैं। हालांकि न तो यूपीए न ही एनडीए सरकार ने कभी स्वामीनाथन फॉर्मूले को माना।

भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) के पुनर्गठन के लिए हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार की अध्यक्षता में बनी उच्चस्तरीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ 5.8 फीसदी किसान एमएसपी पर अपनी फसल बेच पाते हैं। अशोक गुलाटी का मानना है कि आज यह आंकड़ा नौ फीसदी हो गया है। शांता कुमार समिति एनडीए सरकार ने ही बनाई थी। पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में ही एमएसपी पर फसल खरीदने की बेहतर व्यवस्था है। ज्यादातर पूर्वी राज्य में तो एमएसपी पर फसलों की खरीद बहुत थोड़ी मात्रा में होती है।

के.एस. आदित्य एवं अन्य ने नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के 70वें चरण के आंकड़ों के आधार पर सितंबर 2017 में एक रिपोर्ट जारी की थी। उन्होंने लिखा था कि रबी और खरीफ फसलों की एमएसपी के बारे में 20.04 से लेकर 23.72 फीसदी तक ग्रामीण कृषि परिवार ही जानते हैं। रिपोर्ट के अंत में कहा गया है कि एमएसपी की घोषणा के साथ प्रभावी खरीद और जागरूकता फैलाना भी जरूरी है, ताकि ज्यादा से ज्यादा किसान इसका लाभ ले सकें।

 

किसानों की मांग, तीनों नए कृषि कानून खत्म किए जाएं

एनडीए सरकार ने सितंबर में संसद के मानसून सत्र के दौरान तीनों नए कृषि कानूनों का बिल हड़बड़ी में पेश किया था। प्रदर्शनकारी किसान इन्हें काला कानून बता रहे हैं और रद्द करने की मांग कर रहे हैं। किसान संगठनों को लगता है कि इन कानूनों के पीछे षड्यंत्र है।

सरकार के साथ बातचीत में शामिल जाने-माने किसान नेता शिव कुमार शर्मा उर्फ कक्काजी के अनुसार, “हमारी मांगें बिल्कुल साफ हैं। संसद का विशेष सत्र बुलाकर सरकार तीनों काले कानून रद्द करे और एमएसपी को कानूनी दर्जा दे। सरकार इन कानूनों में संशोधन की बात कह रही है, लेकिन हमें वह स्वीकार नहीं।” अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयोजक वी.एम. सिंह कहते हैं, “ये कानून बड़े एग्रीबिजनेस के आदेश पर और उनके लिए बनाए गए हैं।”

लेकिन दलवई ये कृषि कानून लाने के पीछे का उद्देश्य बताते हैं, “इसका मकसद यह तय करना है कि किसानों को उनकी उपज की पूरी कीमत मिलने के साथ मुनाफा भी हो। इन कानूनों में नए बाजार का ढांचा बनाया गया है। इससे किसानों को ज्यादा विकल्प मिलेंगे और वे अधिक कीमत पर अपनी उपज बेच सकेंगे। यह प्रक्रिया तीन चरणों में होगी। पहला, एग्रिगेशन प्लेटफॉर्म तैयार करना ताकि बाजार खेत के करीब आ सके, दूसरा थोक बाजार को बढ़ावा देना और तीसरा, निर्यात के जरिए वैश्विक बाजार में प्रवेश।”

नए कृषि कानून एनडीए सरकार की तरफ से उठाए गए कृषि सुधारों की दिशा में अगला कदम हैं। इन्हीं सुधारों के तहत 2018 के बजट में 22 हजार ग्रामीण कृषि बाजार स्थापित करने की घोषणा की गई थी। इन सभी बाजारों को ई-नाम से डिजिटल तरीके से जोड़ा जा रहा है, ताकि ऑनलाइन ट्रेडिंग की जा सके।

सेन मानते हैं कि एनडीए सरकार कुछ सुधार लागू करने के प्रयास कर रही है, लेकिन इसके साथ उनका तर्क यह भी है कि ऐसे प्रयास (नए बाजार, ठेके पर खेती) 20 वर्षों से किए जा रहे हैं। वे कहते हैं, “मोदी सरकार ने कानूनी और संवैधानिक गलती की है। कृषि स्पष्ट रूप से राज्य का विषय है। केंद्र को राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं देना चाहिए था। कृषि बेहद जटिल होने के साथ-साथ विविध भी है। आखिरकार किसी भी कृषि सुधार को लागू करने के लिए केंद्र सरकार के पास कौन सी मशीनरी है?”

पूर्व सांसद और अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव हनन मोल्ला कहते हैं, “हाल में जो बाजार आधारित सुधार हुए हैं, उनके केंद्र में किसान नहीं थे।” केंद्र सरकार ने हड़बड़ी में ये कानून बनाए हैं जबकि इस पर राज्यों, किसानों और नागरिकों समेत सभी पक्षों की राय ली जानी चाहिए थी। अब यह लड़ाई मुक्त बाजार बनाम सरकारी नियमन से परे जा चुकी है। सेन के अनुसार, “किसानों को लगता है कि ये कानून अपने लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए हैं। इस संकट से निकलने का एकमात्र रास्ता इन कानूनों को रद्द करना है, न कि किसान संगठनों के साथ उनमें संशोधन के लिए बातचीत करना।”

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