चर्चित फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास ने 1968 में एक वृत्तचित्र चार शहर एक कहानी पूरी की। यह देश के युवाओं की उम्मीदों पर पानी फिरने और दिल टूटने की कहानी थी। लेकिन उसे केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) ने यू (सामान्य) प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया था। वजह, उसमें गरीबी, सामाजिक अशांति और यौन हिंसा को दर्शाया गया था। ये तब की वास्तविकता थी जो आज भी है, जिससे युवाओं को जूझना पड़ रहा है, लेकिन परदे पर इसे दिखाने के लिए इसे ‘अपरिपक्व’ माना गया। अब्बास अदालत गए और जीत गए। इससे गहरे विरोधाभास की दरारें खुल गईं कि युवाओं पर आधारित फिल्मों को शायद ही कभी युवाओं के लिए उपयुक्त माना जाता है, जब तक उसमें राजा बेटा और लाल परी जैसे रूपक न हों।
लेकिन आधी सदी से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद भी यह विरोधाभास जस का तस बना हुआ है। बल्कि दरारें चौड़ी ही हुई हैं। लिपस्टिक अंडर माय बुर्का (2016) में अपनी ख्वाहिश की खोज करती स्त्रियां (लड़कियां और अधेड़ दोनों) या भोंसले (2018) में जाति हिंसा के शिकार बच्चे की कहानी पर सीबीएफसी ने फटाफट अपनी कैंची चलाई। अमूमन ऐसी फिल्मों पर उम्र वर्गीकरण के औजार का इस्तेमाल किया। अब सीबीएफसी ने अपनी फिल्म प्रमाणन में उम्र वर्गीकरण की नई श्रेणियां शुरू की हैं। सवाल यह है कि क्या यह स्वागतयोग्य है या यह ज्यादा बंदिशें थोपने का औजार बनेगा?
शुरुआत में सीबीएफसी के पास यू (सामान्य या अप्रतिबंधित), यूए (12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए अभिभावकीय मार्गदर्शन) और ए (सिर्फ वयस्क) के व्यापक वर्गीकरण थे। अब नई व्यवस्था यूए श्रेणी को तीन अलग-अलग उम्र वर्गों में विभाजित करेगी: यूए 7+, यूए 13+ और यूए 16+। सूचना-प्रसारण मंत्रालय के मुताबिक, यह व्यवस्था ‘‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उपभोक्ता की पसंद के सिद्धांतों के साथ बच्चों जैसे कच्चे मन वाले दर्शकों की सुरक्षा की जरूरत के संतुलन में अहम भूमिका निभाएगी।’’
छलः जेफरली के 1968 की रोमियो जूलिएट में लियोनार्ड व्हिटिंग और ओलिविया हसी
ऊपरी तौर पर यह ऐसा बदलाव लग सकता है, जो वैश्विक मानकों के साथ मेल खाता है। आखिरकार, ब्रिटेन (बीबीएफसी) और अमेरिका (एमपीएए) में भी इसी तरह के उम्र वर्गीकरण मौजूद हैं। हालांकि, हमारे देश में तरह-तरह की सेंसरशिप का निजाम रचनात्मकता का गला घोंटने के लिए हर पल तैयार रहता है। तथाकथित नैतिक और पहचान की राजनीति के पहरुए संगीन हाथ में लिए खड़े रहते हैं। इसलिए चिंता है कि कहीं ये बदलाव आसानी के बजाए बंदिशें कड़ी करने की वजह तो नहीं बन जाएंगे।
दुनिया भर में फिल्म प्रमाणन व्यवस्थाओं में लंबे समय से विरोधाभास बना रहा है। इसकी मिसाल फ्रेंको जेफरली का 1968 में रोमियो और जूलिएट का रूपांतरण है। इसकी मुख्य भूमिका में लियोनार्ड व्हिटिंग और ओलिविया हसी थे। बीबीसी के मुताबिक, फिल्म निर्माण के समय उनकी उम्र 16 और 15 वर्ष थी। फिल्म में हसी और व्हिटिंग के नग्न दृश्य थे, जो उस समय कानूनी तौर पर फिल्म रिलीज होने से पहले बहुत छोटे थे।
दशकों बाद 2023 में हसी और व्हिटिंग ने जेफरली पर मुकदमा दायर किया कि उन्हें झूठ कहकर नग्न दृश्य फिल्माए गए थे। दोनों का कहना था कि दृश्य फिल्माने से पहले उन्हें आश्वासन दिया गया था कि उन्हें त्वचा के रंग के कपड़े पहनाए जाएंगे और इस तरह बैठाया जाएगा कि नग्नता न लगे। हालांकि, शूटिंग के दिन उन्हें सिर्फ बॉडी मेकअप के लिए कहा गया और फिल्म में व्हिटिंग के नितंब और हसी के स्तन वाले संक्षिप्त दृश्य दिखाए गए थे। कैलिफोर्निया कानून में बदलाव के बाद बाल यौन शोषण के दावों पर कानूनी सीमाओं पर अस्थायी रोक के बाद यह मामला आगे बढ़ा।
यह मामला रेटिंग व्यवस्था की नाकाफी की मिसाल है, जो रोकथाम के बदले प्रतिक्रिया पर आधारित है। अब आइए अपने देश में, जहां फिल्म प्रमाणन पर अक्सर सेंसरशिप और तथाकथित नैतिक पहरेदारी हावी रहती है। सीबीएफसी ने लंबे समय से प्रमाणन देने वाली संस्था की तरह कम, सेंसरशिप वॉचडॉग की तरह अधिक व्यवहार किया है। लिपस्टिक अंडर माई बुर्का, उड़ता पंजाब (2016), हैदर (2014), और हाल में सिस्टर मिडनाइट (2024) और संतोष (2024) जैसी फिल्मों को बेतुके कट, प्रतिबंध या सशर्त मंजूरी से जूझना पड़ा है। तथ्य यह कि इन सभी फिल्मों में कलात्मक योग्यता बहुत है और लोगों की दिलचस्पी भी खासी है, लेकिन इससे शायद सीबीएफसी को कुछ लेना देना नहीं होता है।
सिद्धांत रूप में यूए 7, यूए 13 और यूए 16 जैसे उम्र वर्गीकरण से विभिन्न दर्शक वर्ग के लिए सामग्री परोसने में मदद मिल सकती है। मसलन, किशोर उम्र के बच्चों के विषय, हल्की गाली-गलौज वाली फिल्म यूए 13 में बेहतर बैठ सकती हैं, बजाय इसके कि उसे मनमाने ढंग से प्रतिबंधात्मक यूए या ए स्लॉट में धकेल दिया जाए। ये बारीकियां सैद्धांतिक रूप से फिल्म निर्माताओं को ‘ए’ रेटिंग से बचने की राह बना सकती है। लेकिन इसके लिए कारगर व्यवस्था की जरूरत होती है। व्यवहारगत रूप में देखे, तो भारत में ऐसी कोई व्यवस्था है ही नहीं। अधिकांश थिएटर उम्र आदि की जांच नहीं करते हैं, और ओटीटी प्लेटफॉर्म शायद ही सख्त रोक लगाते हैं, जबकि दर्शकों को उम्र बताना कानूनन जरूरी है। जहां ‘ए’ फिल्में नाबालिग एक क्लिक पर देख सकते हों, वहां यूए 13 रेटिंग कैसे लागू होगी?
फिर, क्या सीबीएफसी इस नए उम्र के वर्गीकरण को लगातार लागू करेगा या पुराने, अपारदर्शी पैटर्न जारी रहेंगे? यह जानना मुश्किल नहीं है कि सरकार या सरकारी पार्टी की आलोचना करने वाली फिल्मों को सख्त रेटिंग मिलेगी, उसकी सामग्री के कारण नहीं, बल्कि राजनीति की वजह से।
अति-वर्गीकरण के अपने जोखिम भी हैं। अधिक श्रेणियों के जरिए सीबीएफसी को तथाकथित सतर्कता या पक्षपात करने का बहाना मिल सकता है और फिल्मों को अनावश्यक सख्त उम्र वर्गों में डाल सकता है। इससे बॉक्स ऑफिस की कमाई और ओटीटी सौदों पर भारी फर्क पड़ सकता है। इससे अधिक साहसी या बारीक बुनावट वाली फिल्में बनाने से फिल्मकारों, खासकर छोटे या स्वतंत्र रचनाकारों के आगे बेडि़यां खड़ी हो सकती हैं। फिल्म निर्माताओं को पहले ही देश में सेंसरशिप के लगातार बदलते और विस्तृत होते दायरे में मुंह बंद किए रहना पड़ता है। समय ही बताएगा कि क्या यह नया वर्गीकरण वास्तव में मददगार होगा या इसमें पारदर्शिता या जवाबदेही के बिना और अधिक रुकावटें जुड़ने जा रही हैं। क्योंकि देश में पहले से ही कई तरह की बंदिशों का माहौल है। ऐसे में दूसरे रूप की इन बंदिशों से कहीं यह मामला और अधिक लालफीताशाही की जकड़न के पाले में न चला जाए। सवाल बहुत हैं, जिनका जवाब मिलना जरूरी है।
(लेखिका फिल्म, टीवी और संस्कृति समीक्षक। मीडिया में लैंगिक, राजनैतिक और सत्ता के पक्षपात पर नजर रखती हैं)